काव्य : 39
भिन्नेभकुम्भगलदुज्वलशोणिताक्त, मुक्ताफलप्रकरभूषित-भूमिभागः। बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते॥ ३९॥
क्षत-विक्षत कर दिये गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल। कान्तिमान् गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनी-तल॥ जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरी की हो उन्नत ओट। ऐसा सिंह छलांगे भरकर, क्या उस पर कर सकता चोट?॥३९॥
काव्य : 39 पर प्रवचन
हे देव! जिसका चित्त आपके ‘क्रमयुग', अर्थात् चरणकमल में अचलरूप से आश्रित हैं, उसे सिंह का भय नहीं है। सिंह भी उस पर आक्रमण नहीं करता। सिंह भी कैसा? जिसने पजे के प्रहार से विशाल हाथी के कुम्भस्थल को चीर डाला है और उस हाथी के कुम्भस्थल में से बहते हुए रक्त से रञ्जित, सफेद गजमोती-मुक्ताफल से पृथ्वी का भाग चमक रहा है। भद्र जाति के उत्तम हाथी के मस्तक में मोती पकता है, उसे गजमोती कहते हैं, सभी हाथियों के मस्तक में ऐसे गजमोती नहीं होते। ऐसे बलवान हाथी के मस्तक को पञ्ज के प्रहार से जिसने चीर दिया है – ऐसा सिंह 'बद्धक्रम', अर्थात् छलाङ्ग मारता हुआ आता हो और आपका भक्त 'क्रमगतम्', अर्थात् उसके पजे के बीच में आ पड़ा हो, तो भी 'क्रमयुग', अर्थात् आपके चरण कमल का अचल आश्रय करनेवाले भक्त पर सिंह आक्रमण नहीं करता। अहो जिनदेव! आपके समीप तो सिंह जैसे क्रूर जीव भी शान्त हो जाते हैं।
देखो, महावीर भगवान का जीव, जब पूर्व के दसवें भव में सिंह था, तब दो मुनिराज उसे सम्बोधित करने आकाश से उतरे, वह सिंह तो उन मुनिवरों की वीतरागी शान्ति देखकर चकित हो गया; मुनिराजों को सिंह का भय नहीं लगा, अपितु वह सिंह, मुनिराजों को देखकर शान्त हो गया और आत्मज्ञान प्राप्त किया।
अञ्जना (हनुमान की माता) जब जङ्गल की गुफा में रहती थी और मुनिसुव्रतस्वामी की भक्ति करती थीं, तब गुफा के द्वार पर एक क्रूर सिंह आकर गर्जना करने लगा, उससे भयभीत अञ्जना जिनस्मरण करने लगी, तभी वहाँ एक देव ने अष्टापद (आठ पैरवाला) का रूप धारण करके सिंह को भगा दिया और अञ्जना की रक्षा की। पुण्ययोग से धर्मात्माओं को ऐसा योग बन जाता है।
कई बार मुनि को सिंह-बाघ खा जाते हैं न! पार्श्वनाथ के जीव को पूर्व में आनन्दराजा के भव में सिंह खा गया था, सुकौशल मुनिराज को बाघिन (जो उनकी जन्म देनेवाली माता थी, वही बाघित होकर)' खा गयी – ऐसे भी प्रसङ्ग बनते हैं न! – इसका स्पष्टीकरण पहले कहा जा चुका है कि यदि उस प्रकार का अशुभकर्म का उदय शेष हो तो वैसा प्रसङ्ग बन जाता है परन्तु ऐसे प्रसङ्ग में भी जिसके अन्तर में जिनभक्ति है, उसे कोई भय नहीं है; मृत्यु आवे तो भी वह धर्म की आराधना नहीं छोड़ता है। सिंह आकर भी क्या करेगा? क्या वह मेरे सम्यक्त्वादि धर्म को खा जाएगा? कभी नहीं; - इस प्रकार भी धर्मी जीव, नि:शङ्क और निर्भय रहते हैं।
सिंह पीछे दौड़ा आ रहा हो तो धर्मी जीव भागता भी है, इस जाति का नोकषायरूप भय होता है, परन्तु वह जिनमार्ग में नि:शङ्क है; उस समय भी उनको निजधर्म के नाश का भय या मिथ्यात्वरूप भय नहीं होता। सिंह के पैर के बीच पड़ा हो तो भी धर्मात्मा, नि:शङ्क है कि सिंह मेरे धर्म पर आक्रमण नहीं कर सकता। देखो! इस जिनभक्त की अन्तरङ्गदशा !
जिनभक्त को बाहर में क्रूर सिंह और अन्दर में अशुभकर्मों के उदयरूप सिंह के उपसर्ग, विशुद्धपरिणाम द्वारा दूर हो जाते हैं। कदाचित् ऐसे उपसर्ग आये तो उन उपसर्गों के बीच भी साधक जीव की शूरवीरता ऐसी जागृत होती है कि उपसर्ग से डरकर वह आराधना को नहीं छोड़ता। कभी ऐसी स्तुति के श्लोक भी अशुभकर्म का उदय पलटने में निमित्त बन जाते हैं; इसलिए पूर्व श्लोक का नाम 'गजभयभञ्जक-स्तुति' था और इस श्लोक का नाम 'सिंहभयभञ्जक-स्तुति' है।
प्रभो! सिंह के दोनों पैरों के बीच खड़े हों, तब भी हमारे हृदय में आप विराजमान हो, हमारे अन्तर में आप उपस्थित हो; फिर आपके समीप हमें सिंह का भय कैसा? जहाँ परमात्मा विराजमान हों, वहाँ समवसरण में सिंह आदि भी शान्त -अहिंसक बन जाते हैं और खरगोश भी उनसे नहीं डरते हैं। तब जहाँ हमारे जैसे धर्मात्मा के हृदय में आप विराज रहे हो, वहाँ हमें सिंह आदि का भय कैसा? हमें तो कर्म के उदयरूप सिंह का या प्रतिकूलता का भी डर नहीं है, क्योंकि उनसे भिन्न ज्ञायक-चिदानन्दतत्त्व की अनुभूति और भावना निरन्तर वर्तती है। हमने सर्वज्ञ की शरण ली है।
सर्वज्ञदेव के सम्यक्श्रद्धा-ज्ञानरूप दोनों चरणों की जिसने शरण ली है – ऐसे हम, कदाचित् सिंह के पजे के बीच में हों तो भी धर्म से विचलित नहीं होते हैं, भयभीत होकर धर्म को छोड़ते नहीं हैं। अपयश आये, दरिद्रता आये, रोग आये, कोई बेड़ी से बाँधकर जेल (कारागार) में डाल दे, तो भी हे नाथ! आपका भक्त, कर्मरूपी सिंह के पजे में सकपकाता नहीं है, निर्भयरूप से वह मोक्ष के मार्ग पर चलता रहता है।
अनन्त वीर्यशक्तिवाले आत्मा की शरण ली तो वहाँ अब भय किसका? चैतन्य के साधक धर्मात्मा को पूर्व का अशुभकर्म हो, वह छूट जाता है और नया पुण्य बँधता है तथा कदाचित् कोई अशुभकर्म रह जाए और प्रतिकूलता आ जाए तो उसे विशेष पुरुषार्थ जागृत हो जाता है; उदय के पञ्जे में उसकी चेतना नहीं फँसती। उसे पुण्य और पुरुषार्थ का सुमेल होता है।
अहा प्रभो! जिसका चित्त आपके ध्यान में लगा है, उसे बाहर में सिंह आकर खाता हो तो भी क्या? आपके गुण में जिनका चित्त लगा है, उसे सिंह का डर नहीं है। अरे सिर, सिंह के मुख में हो और अन्दर आत्मा में केवलज्ञान की तैयारी चलती होती है - उसने अन्तर में परमार्थ भगवान की, अर्थात् आत्मस्वभाव की शरण ली है। कर्म का उदयरूप सिंह छलाङ्ग मारकर हमें दबा देगा या हमारे चेतनशरीर को, अर्थात् धर्म को खा जाएगा – ऐसा भय धर्मी को नहीं होता; उसने तो अन्दर में परमात्मस्वभाव का शरण लिया है। बाहर में कोई देव, सिंह का रूप धारण करके कहे कि तू जिनधर्म को छोड़ दे, नहीं तो तुझे खा जाऊँगा – तो वहाँ भी धर्मात्मा, सिंह का भय प्राप्त करके जिनेन्द्र भगवान की शरण नहीं छोड़ता।
हे देव! हमने आपके चरणों और आपके वीतराग मार्ग का आश्रय लिया है, वहाँ सिंह-बाघ हमारा अब क्या करेगा?
कोई बेड़ी से बाँधकर जेल (कारागार) में डाल दे, तो भी हे नाथ! आपका भक्त, कर्मरूपी सिंह के पजे में सकपकाता नहीं है, निर्भयरूप से वह मोक्ष के मार्ग पर चलता रहता है।
[भक्तामर स्तोत्र के इस 39 वें श्लोक में 'बद्धक्रम, क्रमगतं और क्रमयुग' - ऐसे तीन शब्द हैं, उस ओर लक्ष्य खींचकर पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने कहा था कि देखो, प्रत्येक द्रव्य की पर्याय का उत्पाद-व्यय ‘क्रमबद्ध' होता है - यह सिद्धान्त है। विश्व के समस्त पदार्थों में क्रमबद्ध -नियमित परिणमन और भगवान सर्वज्ञदेव को समस्त द्रव्य -गुण-पर्यायों का ज्ञान; इस प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयों के परिणमनस्वभाव की सन्धि है, उसमें आगे-पीछे नहीं होता; अर्थात्, सर्वज्ञ जाने कुछ और पदार्थ में परिणमन हो दूसरा कुछ – ऐसा नहीं होता। ऐसे ज्ञानस्वभाव का निर्णय करनेवाले जीव को अपने में शुद्ध ज्ञानरूप मोक्षमार्ग का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।
यह न्याय गुरुदेवश्री को अत्यन्त प्रिय था और उसका ज्ञानस्वभाव की सन्मुखताप्रेरक अतिसुन्दर, गम्भीर और स्पष्ट विवेचन गुरुदेवश्री ने 13 प्रवचनों में किया है। वे प्रवचन 'ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव' नाम की पुस्तक में प्रकाशित हुए हैं। जिसका संकलन ब्रह्मचारी हरिभाई ने किया है। गुजराती आत्मधर्म वर्ष 12, अङ्क-133-34 में भी वे प्रकाशित हुए हैं। आत्मा के ज्ञानस्वभाव के निर्णय में अथवा सर्वज्ञ की श्रद्धा में, अन्तर्मुखी मोक्षमार्ग का कितना जोर आता है - यह बात बहुत अलौकिक शैली से गुरुदेवश्री ने समझायी है। साधर्मीजनों से इस ग्रन्थ का स्वलक्ष्यपूर्वक अध्ययन करने का विनम्र अनुरोध है।]
काव्य : 40
कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं, दावानलं वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥४०॥
प्रलयकाल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर। फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछे अंगारों का भी होवे जोर॥ भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार। प्रभु के नाम-मन्त्र जल से वह, बुझ जाती है उस ही बार॥४०॥
काव्य : 40 पर प्रवचन
इस भक्तामर स्तोत्र में 'भयनिवारक' 9 श्लोक (38 से 46) हैं; उनमें 'गजभयभञ्जक' और 'सिंहभयभञ्जक' के बाद यह 'अग्निभयभञ्जक' नाम का तीसरा श्लोक है। हे देव! आपका मार्ग तो 'भव-भवभञ्जक' है, उसमें दूसरे भय की तो बात क्या बात!
आज से लगभग 18550 वर्ष के बाद इस भरतक्षेत्र में कल्पान्तकाल आयेगा, तब पञ्चम काल के अन्त में ऐसी भयंकर पवन चलेगी कि वृक्ष-मकान-पर्वत आदि सब उड़ जाएँगे, प्रलय हो जाएगी। ऐसे प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु से महा अग्नि लगी हो, उस धधकती अग्नि की चिंगारी चारों ओर उड़ती हो, मानों कि विश्व को जला देगी - ऐसी आग का भभकता दावानल सामने आता होने पर भी, हे जिनदेव! आपके नामकीर्तनरूपी जल द्वारा वह एकदम शान्त हो जाता है; इस कारण जिसके अन्तर में आप विराजते हो, उसे अग्नि का भी भय नहीं है। जो जीव अन्तर में आपका ध्यान करता है, उसके अन्तर में संसार का दावानल प्रवेश नहीं कर सकता, शान्तरस के सिञ्चन से घोर भवाग्नि भी शान्त हो जाती है।
देखो तो सही, जिनगुणों की महिमा ! यहाँ बाहर के संयोग की प्रधानता नहीं है, भक्त के अन्तर में वीतरागता का रस पकता है, उसका महत्त्व है। जहाँ वीतरागता है, वहाँ भय कैसा? जहाँ राग-द्वेष-कषाय है, वहीं भय है और वैराग्य तो अभय है। यह तो जिनभक्ति के बहाने भक्त के अन्तर में वीतरागता का घोलन है।
यहाँ कहते हैं कि हे देव! आपका नाम लेते ही अग्नि का उपद्रव शान्त हो जाता है; आत्मा, कषाय से छूट जाता है। अयोध्या के लोगों ने जैसे-तैसे बोलकर, जब किसी पापकर्म के उदय से सीताजी का अपवाद किया और श्रीराम ने उन्हें वन में भेज दिया और फिर अन्ततः उनका लोकोपवाद दूर करने तथा शील की प्रसिद्धि करने के लिए अग्निपरीक्षा रची; उसके लिए धधकती अग्नि का बड़ा कुण्ड तैयार किया और सीताजी उसमें कूदने के लिए तैयार हुई... तब पञ्च परमेष्ठी भगवन्तों का स्मरण करके वे कहते हैं कि 'मेरे हृदय में पञ्च परमेष्ठी विराजमान हैं; यदि मैंने अपने स्वामी (श्रीरामचन्द्र) के अतिरिक्त, दूसरे किसी पर पुरुष की स्वप्न में भी इच्छा की हो तो हे अग्नि! तू मुझे जलाकर भस्म कर देना और यदि मैंने दूसरे की इच्छा न की हो, अखण्ड शीलव्रत का पालन किया हो तो तू शान्त हो जाना.... मुझे स्पर्श मत करना।' - ऐसा कहकर सीताजी जहाँ अग्नि कुण्ड में प्रवेश करती हैं तो उनके पुण्योदय से एक देव के द्वारा वह अग्नि शान्त हो जाती है और सीताजी की शील की महिमा जगत्प्रसिद्ध होती है; पाप का उदय टलकर शुभ का उदय हो जाता है।
किसी को प्रश्न होता है कि अयोध्या में सीताजी की अग्नि तो शान्त हो गयी और शत्रुञ्जय पर्वत पर पाण्डव मुनियों की अग्नि शान्त क्यों नहीं हुई? वे तो अग्नि में जल गये।
उसका समाधान - सीताजी ने तो 'यदि शील हो तो अग्नि शान्त हो जाओ' - ऐसा कहकर पुण्य की उदीरणा की थी, इस कारण अग्नि शान्त हो गयी; जबकि पाण्डवों ने ऐसी उदीरणा नहीं की थी, विकल्प नहीं किया था; अपितु निर्विकल्परूप से वीतरागी शुक्लध्यान में एकाग्र होकर, शान्तरस से कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया और मुक्त हुए; इसलिए उनको तो समस्त संसार-अग्नि शान्त हो गयी; उन्हें अग्नि का भय नहीं था। वे पाण्डव अग्नि में नहीं जले, शरीर जला परन्तु वे तो चैतन्य के हिमालय में प्रवेश करके शन्ति में स्थिर हो गये। अन्तर की चैतन्यगुफा में तो कषाय-अग्नि का या बाहर की अग्नि का सम्बन्ध ही कहाँ है ? शरीर जला परन्तु चेतना नहीं जली; अग्नि ने देह को जलाया परन्तु वह उन्हें केवलज्ञान साधने में या मोक्ष प्राप्त करने में बाधक नहीं हो सकी; इसलिए उनको अग्नि का भय नहीं है।
हे जिनदेव! आपके भक्त चाहे जैसी अग्नि से भी, भय पाकर मोक्ष की साधना को छोड़ते नहीं है, वे तो अग्नि के बीच भी निर्भयपने मोक्ष को साधते हैं। हे देव! जिस प्रकार शीलधर्म के प्रताप से और आपके नामकीर्तन से सीताजी को अग्नि जला नहीं सकी, शान्त हो गयी; इसी प्रकार आपके धर्म की आराधना करनेवाले जीव को अग्नि नहीं जला सकती, अन्तर में और बाहर में भी अग्नि शान्त हो जाती है। अरूपी, अस्पर्शी आत्मा में अग्नि का स्पर्श कैसा?
धर्मात्मा, जहाँ स्वभाव के शान्तरस की गुफा में प्रवेश कर गया, वहाँ अब कषाय-अग्नि का या बाहर की अग्नि का सम्बन्ध कैसा?
'राग आग दहै सदा, तातें समामृत सेईये'
अर्थात् राग, वह आग है जो जीव को जलाती है; उससे बचने का एक ही उपाय है कि चैतन्य में प्रवेश करके शान्तभावरूप अमृत का सेवन करना। स्वानुभव के शान्तरस की धारा से राग बुझ जाता है। कषाय-अग्नि समस्त संसारी जीवों को जलाती है परन्तु वह जिनमार्ग के उपासक धर्मात्मा की ज्ञानचेतना को जला नहीं सकती; वह ज्ञानचेतना तो अन्तर के शान्तरस में मग्न है।
देखो तो सही! द्वारिका जैसी सुन्दर नगरी; इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने जिसकी रचना की, नेमिनाथ जहाँ अवतरित हुए और श्रीकृष्ण ने जहाँ राज्य किया; वह द्वारिका नगरी जब सुलगी, तब देव भी बचाने नहीं आये। छ: महीने तक धू-धू करके जली, उसमें सभी नगरवासी और पशु-पक्षी भस्मीभूत हो गये, तथापि ऐसी अग्नि के बीच भी, जिसके अन्तर में जिनदेव विराजते हैं और जो जिनधर्म के आराधक हैं, उन्हें भय नहीं होता।
जहाँ जिनधर्म की आराधना से भव की अग्नि भी शान्त हो जाती है, वहाँ बाहर की अग्नि की क्या बात ! इसलिए हे जीव! तू सर्व प्रकार का भय छोड़कर जिनधर्म की आराधना कर... जिनगुणकीर्तनरूप भक्ति में तत्पर हो! तेरे चैतन्यतत्त्व में आनन्द का शीतल कुण्ड है, उसमें प्रवेश करते ही कषायों का आताप शान्त हो जाएगा; बाहर में अग्नि के गोले बरसते हों तो भी तुझे भय नहीं होगा।
सर्वज्ञ-वीतरागता का कीर्तन करके, चैतन्य की शान्ति का वेदन किया, वहाँ कषाय शान्त हो गयी, फिर बाहर का भय भी नहीं रहता; उसका चित्त शीतल-शान्त हो जाता है।
भेदविज्ञान जग्यो जिनके घट, शीतल चित्त भयो जिम चन्दन। कैलि करे शिवमारग में; जगमाँहि जिनेश्वर के लघुनन्दन॥
जिसने भेदज्ञान करके शान्त आत्मा का शरण लिया, उसका चित्त शान्त हो गया, वह जिनेश्वर का नन्दन हुआ, सर्वज्ञ का पुत्र हुआ और आनन्द करता-करता शिवपुर के मार्ग में गमनशील होता है। भगवान के ऐसे भक्त को अग्नि आदि का भय नहीं होता।
त्रिकाली द्रव्य की दास जैसे भगवान किसी को वन्दन नहीं करते; वैसे ही निर्मल आत्मस्वभाव भी किसी को वन्दन या किसी का आदर नहीं करता। निर्मल पर्याय तो स्वभाव का वन्दन या आदर करती है, किन्तु निर्मल द्रव्यस्वभाव किसी को वन्दन नहीं करता। वह तो दृष्टि का विषय परिपूर्ण तत्त्व है, वह किसी को नमस्कार नहीं करता, किसी का सत्कार नहीं करता। जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैं, वे त्रिकाली द्रव्य की दास हैं; परन्तु त्रिकाली द्रव्य किसी का दास नहीं है। - विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-116
त्रिकाली द्रव्य की दास जैसे भगवान किसी को वन्दन नहीं करते; वैसे ही निर्मल आत्मस्वभाव भी किसी को वन्दन या किसी का आदर नहीं करता। निर्मल पर्याय तो स्वभाव का वन्दन या आदर करती है, किन्तु निर्मल द्रव्यस्वभाव किसी को वन्दन नहीं करता। वह तो दृष्टि का विषय परिपूर्ण तत्त्व है, वह किसी को नमस्कार नहीं करता, किसी का सत्कार नहीं करता।
जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैं, वे त्रिकाली द्रव्य की दास हैं; परन्तु त्रिकाली द्रव्य किसी का दास नहीं है।
- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-116