काव्य : 45
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार भुग्नाः शोच्यां दशामुपगताश्च्युत-जीविताशाः। त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृत दिग्ध-देहा, मा भवन्ति मकरध्वज तुल्यरूपाः॥४५॥
असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोधर पीड़ा भार। जीने की आश छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार॥ ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन। स्वास्थ्य लाभकर बनता उसका, कामदेव सा सुन्दर तन॥४५॥
काव्य : 45 पर प्रवचन
हे जिनेन्द्र! उत्पन्न हुए भयंकर जलोधर रोग के भार से जो टूट पड़ा है, जिसकी दशा अत्यन्त करुणाजनक है और जिसके जीवन की भी आशा नहीं है - ऐसा मनुष्य भी, यदि आपके पादपङ्कज की रजरूप अमृत से अपने शरीर को सींचता है तो वह पुरुष रोगरहित और कामदेव जैसे सुन्दर रूपवाला बन जाता है।
अहो देव! शुद्ध चैतन्यरूप आपको पहचानते ही मिथ्यात्व जैसा भयंकर मोहरोग भी क्षण में दूर हो जाता है और आत्मा सम्यक्त्व के अपूर्व रूप को धारण करके अल्प काल में स्वयं आपके समान परमात्मा बन जाता है। वहाँ आपकी भक्ति के प्रताप से (शुभभाव से पुण्य की उदीरणा होने पर) बाह्य रोग मिटकर सुन्दर रूप की प्राप्ति हो तो उसमें क्या बड़ी बात है!
जिसका पेट जलोधर से फूलकर फट पड़ता हो, शरीर एकदम बैडोल हो गया हो, चल भी नहीं सकता हो, मरणतुल्य दशा हो गयी हो, जहाँ दुनिया की अन्य कोई औषधि काम नहीं करती हो – ऐसे रोग में या कोढ़ आदि भयानक रोग में भी जिनगुणों की महिमारूप औषधि का जो सेवन करता है, वह निरोग हो जाता है, उसे कामदेव जैसा सुन्दर रूप प्राप्त होता है। इस प्रसङ्ग के लिए राजा श्रीपाल आदि का दृष्टान्त पुराणों में प्रसिद्ध है। ऐसे प्रसङ्ग किसी को बनते हैं, किसी को बाहर में नहीं भी बनते।
सनतकुमार चक्रवर्ती, जिसके रूप की प्रशंसा देवों ने भी की, वे साधु हुए और शरीर में भयंकर कुष्ठरोग हो गया... परन्तु चैतन्य की साधना में मस्त उन्हें शरीर के रोग की चिन्ता कहाँ थी? अरे, एक देव, वैद्य का रूप धारण करके रोग मिटाने आया... तब साधु सनतकुमार कहते हैं – मुझे तो मेरा भवरोग मिटा देना है। इस शरीर का रोग तो मुँह का थूक लगाते ही मिट जाता है। (उनको ऐसी लब्धि थी) इस प्रकार शरीर में रोग आये तो भी धर्मात्मा निर्भयरूप से आत्मा को साधता है।
कितने ही मुनिराजों को ऐसी लब्धि होती है कि उनके शरीर को स्पर्श करके जो हवा आती है, उससे कैसा भी रोग दूर हो जाता है; उनके चरण से स्पर्शित धूल से भी रोग दूर हो जाते हैं। केवली भगवान को तो 'चरणरज' नहीं होती, वे तो आकाश में विचरण करते हैं परन्तु चरणरज कहने से भगवान के चरणों के प्रति भक्ति समझना; उससे रोग मिट जाते हैं।
हे देव! आपके चरण की रज / धूल से भी भयंकर रोग मिट जाते हैं, तो फिर साक्षात् आपको ही अपने हृदय में विराजमान करने से हमारा मोहरोग मिट जाए, इसमें क्या आश्चर्य है? आप जहाँ विराजते हो, वहाँ कोई रोग नहीं रहता।
हे जिनदेव! आपके द्वारा कथित शुद्ध चैतन्यतत्त्व की सम्यक्श्रद्धा-ज्ञानरूपी अमृत से जो अपने असंख्य प्रदेश को सींचता है, उसके मिथ्यात्वादि सर्व रोग दूर हो जाते हैं और सम्यक्त्वादिरूप सुन्दरता प्रगट होती है; वह सम्पूर्ण निरोगी - ऐसे सिद्धपद को प्राप्त करता है। बीच के काल में इन्द्र -कामदेव-चक्रवर्ती - तीर्थङ्कर आदि दिव्यरूपवाली पदवी सहज बिना इच्छा के ही प्राप्त हो जाती है। बाहुबली, कामदेव थे, भरत राजा चक्रवर्ती थे, ऋषभदेव, तीर्थङ्कर थे परन्तु वे सब अन्तर में देह से भिन्न अतीन्द्रिय चैतन्यपद को देखनेवाले थे और उसी की उपासना से सिद्धपद को प्राप्त किया है।
भगवान के भक्त का ध्येय पुण्य में, राग में या संयोग में नहीं है; उसके ध्येय में तो शुद्ध आत्मा ही है; वह परमात्मा के समान अपने शुद्धात्मा को ध्येय बनाकर निर्भयपने मोक्षमार्ग में विचरता है। परमात्मपना ही आत्मा का सर्वोत्कृष्ट सुन्दर रूप है। जिनचरण का अमृत सेवन करनेवाले को उसकी प्राप्ति होती है।
देखो ! यह है भक्ति !! प्रभु! मुझे विश्वास है कि आप मेरे ऊपर दया-कृपा करेंगे ही। आपके केवलज्ञान में भी आ गया है कि मेरी पर्याय निर्मल होगी ही और मैं अपने आत्मा का आदर भी करता ही हूँ; अतः वह आत्मा कृपा करके मुझे निर्मल पर्याय प्रदान करेगा ही। -विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-132
प्रभु! मुझे विश्वास है कि आप मेरे ऊपर दया-कृपा करेंगे ही। आपके केवलज्ञान में भी आ गया है कि मेरी पर्याय निर्मल होगी ही और मैं अपने आत्मा का आदर भी करता ही हूँ; अतः वह आत्मा कृपा करके मुझे निर्मल पर्याय प्रदान करेगा ही।
-विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-132
काव्य : 46
आपादकण्ठमुरुश्रङ्खलवेष्टिताङ्गा, गाढं बृहन्निगड़कोटिनिघृष्टजङ्घाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति॥४६॥
लोह श्रृंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त। घुटने-जंघे छिले बेड़ियों से, अधीर जो हैं अतित्रस्त॥ भगवन् ऐसे बन्दीजन भी, तेरे नाम-मन्त्र की जाप। जप कर गत-बन्धन हो जाते, क्षण भर में अपने ही आप॥४६॥
काव्य : 46 पर प्रवचन
हे जिनेन्द्र देव! जिसे पैर से लेकर गले तक विशाल बेढ़ियों से बाँधा गया है, गाँठ बँधी हुई लोहे की बेड़ी के घर्षण से जिसकी जङ्घा-पैर आदि छिल गये हैं – ऐसा पुरुष भी यदि आपके नामरूपी मन्त्र का निरन्तर स्मरण करता है तो तुरन्त ही वह स्वयं बन्धन के भय से छूट जाता है।
इस स्तोत्र द्वारा जिनस्तुति करते हुए मानतुङ्ग मुनिराज के स्वयं को बेड़ी आदि के बन्धन टूट गये थे – यह बात प्रसिद्ध है; इस प्रकार पुण्ययोग से किसी को बाहर के बन्धन टूट जाते हैं, किसी के नहीं भी टूटते, फिर भी 'बन्धन का भय' तो छूट ही जाता है। (विगतं बंधभया भवंति)), तथा अन्दर के मोह बन्धन तो निश्चित रूप से टूट ही जाते हैं। धर्मात्मा, कारावास (जेल) में बैठे-बैठे भी 'जिनगुण चिन्तन' द्वारा 'निजगुण-चिन्तन' से, अर्थात् आत्मा के शुद्धस्वरूप के चिन्तन से अपने को 'मुक्त' अनुभव कर सकते हैं। वहाँ उसे बन्धन का भय नहीं रहता; जेल का ताला उसे रोक नहीं सकता और सुविशुद्ध परिणाम के लिए उसे पूर्वबद्ध कर्म भी तड़-तड़ करके टूट जाते हैं।
यहाँ भक्तामर स्तोत्र की रचना में बेड़ी के बन्धन या जेल के ताले तो टूट गये, परन्तु ऐसा प्रसङ्ग न बने तो भी शुद्धभाव से जिनगुणस्तवन की महिमा कोई कम नहीं है। जिनदेव के प्रति 'भाव नमस्कार' को तो पाप का नाशक, पुण्य का वर्द्धक और परम्परा मोक्ष का फल देनेवाला कहा है।
(भगवती आराधना : गुजराती गाथा 752, 761)।
श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने भी प्रवचनसार गाथा 80 में कहा है –
द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आत्मा दृगमोह उनका नाश हो॥
अरहन्त भगवन्त, द्रव्य से-गुण से-पर्याय से सर्व प्रकार से शुद्धचेतनामय है, राग का अंश भी उनमें नहीं है; मेरे आत्मा का शुद्धस्वरूप भी अरहन्त जैसा शुद्धचेतनामय और रागरहित है – ऐसा अन्तर्मुख अभ्यास करते ही अपनी चेतना, राग से भिन्न होकर, शुद्ध चैतन्यस्वरूप में ही लीन होकर निर्विकल्प अनुभूति होती है और उस चेतना में मोह नहीं रह सकता। इस प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त करके वह जीव, मिथ्यात्व का नाश करता है - यह सच्ची जिनभक्ति का फल है। इसे ही (समयसार गाथा 31 में) सर्वज्ञ की परमार्थ स्तुति कहा गया है।
देखो तो सही, जैन सन्तों की बात! चारों ओर से एक ही प्रयोजन बताकर शुद्धात्मा में ले जाते हैं और बन्धन से छुड़ाते हैं। 'जिन जैसे निज' स्वभाव में एकाग्रतारूप, अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो परमार्थ जिनभक्ति है, उससे मिथ्यात्व से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के सभी कर्मबन्धन की बेड़ी नष्ट हो जाती है और आत्मा स्वयं मुक्त-सर्वज्ञ परमात्मा बन जाता है।
आत्मा का स्वभाव बन्धनरहित, शुद्ध-बुद्ध-मुक्त है, उसकी उपासना करनेवाला जीव, बन्धन में क्यों रहेगा? जिनदेव के भक्त को, अर्थात् शुद्धात्मा के उपासक को ऐसा भय या शङ्का नहीं रहती कि 'मुझे अभी अनन्त भव तक बन्धन रहेगा!' स्वभावसन्मुख होकर मैं मोक्ष के मार्ग पर चल रहा हूँ तो अब अनन्त भव हैं ही नहीं; अल्प काल में ही मुक्ति होना है - वह धर्मी जीव ऐसा नि:शङ्क होता है। जिसके अन्तर में भवरहित भगवान बैठे हों, अब उसे भव कैसा? और बन्धन का भय कैसा? मुक्त परमात्मा मेरे अन्तर में... मेरी चेतना में विराजते हैं तो अब मेरी चेतना में मोह का या कर्म का बन्धन नहीं रह सकता – इस प्रकार धर्मी नि:शङ्क है।
श्री मानतुङ्गस्वामी प्रभावशाली दिगम्बर मुनि थे; प्रसिद्ध कथा के अनुसार उज्जैन के राजा भोज ने उनकी शक्ति की परीक्षा करने के लिए बेड़ी के बन्धन बाँधकर उन्हें जेल में डाल दिया था। उस समय भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति करते-करते, उनकी बेड़ी के बन्धन टूट गये और कर्म के बन्धन भी टूट गये। उस प्रसङ्ग में उन्होंने भगवान ऋषभदेव का चिन्तन करके जो स्तुति की थी, वही यह 'भक्तामर स्तोत्र' है।
धर्मात्मा साधक जीवों का (तथा यमपाल-चाण्डाल जैसे मिथ्यादृष्टि जीवों के भी) पुण्ययोग से बाहर में कई बार ऐसा अतिशय हो जाता है परन्तु उसमें महत्त्व धर्म की साधना का और भगवान के गुणों की महिमा का है, राग का या पुण्य का नहीं है। इस प्रकार भलीभांति समझकर भेदज्ञानपूर्वक भक्ति करनी चाहिए। जो इस बात को समझता है, उसे वीतराग भगवान के प्रति भक्ति-बहुमान का भाव उल्लसित होता ही है।
मानतुङ्ग मुनिराज ने भावभीनी जिनस्तुति की... और चमत्कार हुआ! उनके बन्धन की बेड़ियाँ स्वयमेव टूट गयी, जेल का दरवाजा खुल गया। विशुद्धपरिणाम के बल से अशुभकर्मों का उदय दूर हो गया और शुभकर्मों का उदय आया; उपसर्ग टल गया और जैनधर्म की महाप्रभावना हुई। बाहर के इस चमत्कार की अपेक्षा भी वास्तविक चमत्कार तो अन्तर में चैतन्य की आराधना का है। आराधना के साथ बाहर के ऐसे अतिशय तो धर्मात्मा को सहज ही बन जाते हैं। वास्तविक महिमा तो आराधना की है।
श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा है कि इस सृष्टि में ऐसा कोई प्रभावयोग – अतिशय या चमत्कार नहीं है, जो पूर्णपद के प्राप्त परमात्मा को प्राप्त न हो! – ऐसा कहकर उन्होंने, चैतन्य के परमात्मपद के समय बाहर के पुण्यजन्य अतिशय का तुच्छपना दिखाया है। अरे! आत्मा की पवित्रता के समक्ष तो पुण्य, पानी भरता है।
प्रभो, किसी पूर्व के पापकर्म के कारण बाहर से भले कोई जेल या बेड़ी का बन्धन हो परन्तु अन्तर में निर्दोष आराधना से हमारा आत्मा भव की जेल के बन्धन से छूट रहा है। हमारे हृदय में आप विराजते हो, आपकी आराधना से भव-बन्धन टूटते ही बाहर के बन्धन भी छूट जाएँगे – इस प्रकार जिनभक्त धर्मात्मा, मोक्ष की साधना में नि:शङ्क वर्तता है।
हे भव्यजीवो! इस संसार में बन्धन से छूटने के लिए तुम परम जिनभक्तिसहित शुद्धात्मा की उपासना करो।