श्री आदिनाथाय नमः
भक्तामरप्रणत मौलि-मणि-प्रभाणा- मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्। सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा- वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम्॥१॥
भक्त अमर नत मुकुट सुमणियों की सु-प्रभा का जो भासक। पापरूप अतिसघन तिमिर का ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥ भव-जल पतितजनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन। उनके चरण कमल को करते, सम्यक् बारम्बार नमन॥१॥
यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय-तत्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः । स्तोत्रै - जगत्रितयचित्त - हरैरुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥२॥
सकल वाङ्मय तत्त्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी। उसी इन्द्र की स्तुति से है, वन्दित जग-जन मन हारी॥ अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की। जगनामी-सुखधामी तद्भव - शिवगामी अभिरामी की॥२॥
काव्य : 1-2 पर प्रवचन
इस भक्तामर स्तोत्र के रचयिता स्तुतिकार श्री मानतुङ्ग मुनिराज कहते हैं कि मैं उन प्रथम जिनेन्द्र श्री ऋषभदेव का स्तवन करूँगा, जिनके चरणों में भक्त-अमर, अर्थात् भक्तिवन्त देव, नमन कर रहे हैं। उन देवों के मुकुट की मणि की प्रभा को उद्योत करनेवाले; पाप-तिमिर, अर्थात् पापरूपी अन्धकार के समूह को हरनेवाले और भवसागर में डूबते जनों को तारने के लिए धर्मयुग के प्रारम्भ में आलम्बनरूप – ऐसे प्रथम जिनेन्द्र के पादयुगल में 'सम्यक्भाव से' नमस्कार करके, मैं उनकी स्तुति करूँगा।
मैं जिनकी स्तुति करता हूँ – ऐसे जिनेन्द्रदेव की स्तुति बड़े-बड़े पुरुषों ने भी की है। समस्त शास्त्र के ज्ञान से जिनकी बुद्धि उद्भट-पारङ्गत है – ऐसे कुशल इन्द्रों ने, तीन लोक के चित्त को प्रसन्न करे – ऐसे सुन्दर-उत्तम स्तोत्र से जिनकी स्तुति की है, उन आदि जिनेन्द्र का मैं भी इस उत्तम स्तोत्र से स्तवन करूँगा। स्तुति करने योग्य – ऐसे इष्टदेव परमश्रेष्ठ वीतराग सर्वज्ञ हैं तो उनके गुण की स्तुति भी श्रेष्ठ ही होगी न!
इस भरतक्षेत्र में भूतकाल की चौबीसी के अन्तिम तीर्थङ्कर के मोक्ष जाने के बाद 18 कोड़ाकोड़ी सागरोपम के अन्तराल में इस चौबीसी में पहले तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव हुए, उन्होंने इस युग में धर्म की शुरुआत की; भवसागर से तिरने का उपाय बताकर उन्होंने इस भरतक्षेत्र में धर्मयुग का प्रारम्भ किया। दिव्यध्वनि से वीतरागता और सर्वज्ञता का मार्ग स्पष्ट करके, अनेक जीवों को मोक्षमार्ग में लगाया और भवसागर से पार किया; इस प्रकार धर्मयुग के प्रणेता श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के चरणों में नमस्कार करके स्तुति का आरम्भ करता हूँ – ऐसा कहकर मानतुङ्ग मुनिराज ने इस स्तुति में जिनेन्द्र-महिमा का अद्भुत प्रपात बहाया है।
हे प्रभो ! भक्ति से भरे हुए चित्त से इन्द्रादि-भक्तदेव जब आपके चरणों में झुकते हैं, तब आपके नख की प्रभा से उन देवों के मुकुट की मणि जगमगा उठती है। अहा! इन्द्र की मुकुटमणि के दिव्य तेज से भी आपके एक नख की प्रभा बढ़ जाती है। अहो! तीर्थङ्कर के रूप की दिव्यता की तो क्या बात ! इन्द्र का रूप भी जिनके सामने फीका पड़ जाता है - ऐसा तो जिनकी देह का रूप है, तब उनके आत्मा के अतीन्द्रियरूप की तो बात क्या करें! उन्हें केवलज्ञान खिल गया, उसकी महिमा की क्या बात ! देखो, सर्वज्ञ की स्तुति में जिनगुण चिन्तन के साथ-साथ आत्मा की महिमा का घोलन भी चल रहा है, यही सच्ची स्तुति है, इसका ही वास्तविक लाभ है।
प्रभो ! हमें देवेन्द्र के मुकुट की महिमा भासित नहीं होती, हमें तो आपके नख की प्रभा की महिमा भासित होती है। हे नाथ! आपके चरणों की दिव्यप्रभा के समक्ष इन्द्र का मुकुटमणि हमें फीका लगता है। आपका आत्मा चैतन्यप्रभा से झगमगा उठा है, मानों उसकी झाँई नख में से भी उठ रही हो – ऐसे दिव्य चमत्कार से आपके नख की प्रभा झलक रही है और वह नख का प्रकाश इन्द्र के मुकुट की मणि पर पड़ता है, जिससे वह मणि सुशोभित हो रही है।
देखो! इन्द्र की मुकुटमणि का प्रकाश भगवान के नख पर पड़ता है – ऐसा नहीं कहा, अपितु भगवान के नख का प्रकाश इन्द्र के मुकुट पर पड़ रहा है – ऐसा कहकर, इन्द्र के मुकुट की अपेक्षा भगवान के चरण की महत्ता बतलायी है। हे नाथ! इन्द्र का मुकुट भी आपके चरणों में झुकता है, उससे ही उसकी शोभा है।
सौधर्म इन्द्र के पास 32 लाख देव-विमान की ऋद्धि है परन्तु भगवान की स्तुति करते हुए वह कहता है कि हे प्रभो ! केवलज्ञानमय आपकी दिव्य चैतन्यऋद्धि के सामने हमारी इस पुण्य की ऋद्धि की कोई कीमत नहीं है। नाथ! धर्मी को पूज्य और आदरणीय तो यह चैतन्यऋद्धि है। इस प्रकार स्तुतिकार, पुण्य और धर्म के बीच अन्तर करके स्तुति करते हैं।
जिसके हृदय में पुण्य के वैभव का बहुमान होता है, उसे वीतरागी चैतन्यऋद्धि के प्रति सच्ची भक्ति उल्लसित नहीं होती और उसका सच्चा बहुमान जागृत नहीं होता। जिसे वीतरागी केवलज्ञान का बहुमान जागृत हुआ, उसे राग अथवा राग के फल का बहुमान नहीं आता। राग और वीतरागता, अर्थात् पुण्य और धर्म – ये दोनों चीजें ही पृथक् हैं; दोनों का बहुमान एकसाथ नहीं रह सकता।
हे भगवान! भक्तदेव आपके चरणों में नमन करते हैं। देवों के स्वामी – ऐसे इन्द्र भी आपके चरणों में भक्तिपूर्वक नमन करते हैं और आपकी सर्वज्ञता का बहुमान करते हैं, इससे हम यह समझते हैं कि राग के फलरूप इन्द्रपद की अपेक्षा वीतरागता से प्राप्त सर्वज्ञपद, जगत् में श्रेष्ठ और आदरणीय है। चैतन्य की उत्कृष्ट वीतराग पदवी के सामने जगत् के सभी पद तुच्छ भासित होते हैं।
अहा! सर्वज्ञता की अचिन्त्यऋद्धि के सामने इन्द्र की ऋद्धि भी तृणवत् तुच्छ है। जगत् में उत्तम पुण्यवन्त इन्द्र भी तीर्थङ्कर और वीतरागी सन्तों-मुनियों के चरणों में आदर से मस्तक झुकाते हैं और इस दशा की भावना भाते है, वह ऐसा प्रसिद्ध करता है कि पुण्य की अपेक्षा पवित्रता पूज्य है, आदरणीय है।
इन्द्र स्वयं समकिती है। उसे स्वयं राग की, पुण्य की या उसके फल की कोई रुचि नहीं है। जिन्हें पुण्य की रुचि होती है, उन्हें उच्च पुण्य नहीं बँधता और वे इन्द्रपद को प्राप्त नहीं करते हैं। राग का निषेध करके, चैतन्य की साधना करते -करते बीच में ऐसा उच्च पुण्य बँध गया और इन्द्रपद मिल गया, उस इन्द्र की पुण्यऋद्धि अपार है। वह कहता है – हे नाथ ! हमारी यह ऋद्धि उत्कृष्ट नहीं, अपितु आपकी चैतन्यऋद्धि उत्कृष्ट है। सुख तो चैतन्यऋद्धि में ही है, इस बाह्यऋद्धि में किञ्चित्मात्र भी सुख नहीं है। प्रभो! हमारे हृदय में आपकी चैतन्यऋद्धि बसती है, उसकी ही हम स्तुति करते हैं, उसे ही हम वन्दन करते हैं और उसी का हम ध्यान करते हैं।
प्रभो! हमारा मस्तक आपके चरणों झुका सो झुका; अब वह किसी काल में किसी दूसरे के सामने नहीं झुकेगा। आपकी भक्ति का अवलम्बन लेने से हम भवसागर से तिर जाएँगे; अर्थात्, वीतरागभावना का घोलन करने से राग को तोड़कर सर्वज्ञता को प्राप्त कर लेंगे। आपकी भक्ति करके, हम आपके जैसे हो जाएंगे।
भगवान जैसे भाव स्वयं में प्रगट करना ही भगवान की परमार्थस्तुति है। देहादि से भिन्न चिदानन्दस्वभाव को जानना; अर्थात्, सम्यग्दर्शन प्रगट करना ही अरहन्तदेव की पहली परमार्थ स्तुति है - यह बात श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने समयसार की 31 वीं गाथा में अलौकिक रीति से समझायी है। ऐसी निश्चयस्तुति के साथ जो व्यवहारस्तुति होती है, वह भी अलौकिक होती है।
अहा! जिसे चैतन्य की परमात्मदशा साधना है । प्राप्त करना है, उसे इस दशा को साध चुके तथा साध रहे जीवों के प्रति, अर्थात् देव-गुरु के प्रति अतिशय प्रमोद और भक्ति का बहुमान उल्लसित होता है। नियमसार में श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं –
भवभयभेदिनी भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न समस्ति। तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ॥ 12 ॥
अर्थात् अरे जीव! भव भय का भेदन करनेवाले भगवान के प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है ? यदि नहीं है तो तू भवसमुद्र के मध्य में रहे हुए मगर के मुँह में पड़ा है।
यहाँ तो कहते हैं कि हे नाथ! इस युग के आदि (आरम्भ) में, भव्यजीवों को भवसागर से तिरने के लिए आप, जहाज के समान हो। आपका अवलम्बन लेकर; अर्थात्, परमार्थ से सर्वज्ञस्वभाव का अवलम्बन लेकर, हम इस भवसागर से तिर जाएँगे।
मानतुङ्गस्वामी ने इस स्तुति में अलौकिकभाव भर दिये हैं। ऐसे तो यह स्तुति ऋषभदेव भगवान को सम्बोधित करके की गयी है परन्तु यह सभी तीर्थङ्कर भगवन्तों के लिए लागू होती है। गुण-अपेक्षा से एक तीर्थङ्कर की स्तुति में अनन्त तीर्थङ्कर की स्तुति समा जाती है। जिनगुणस्तवन द्वारा जिसने ज्ञान और राग के बीच भेदज्ञान करके सर्वज्ञस्वभाव का विश्वास किया, वह जीव, स्वभाव के घोलन से केवलज्ञान प्रगट करके सिद्धपद अवश्य प्राप्त करेगा।
'भक्तामर' – इसमें भक्त और अमर – ऐसे दो शब्दों की सन्धि है; अमर, अर्थात् देव; इन्द्रादि देवों की आयु बहुत लम्बी, अर्थात् असंख्य वर्षों की होती है; इसलिए उनको अमर कहते हैं; यद्यपि वहाँ भी फिर से मरण तो होता ही है। जहाँ मनुष्य और तिर्यञ्च रहते हैं, वह मध्यलोक है; ऊपर ऊर्ध्वलोक में सौधर्म आदि 16 स्वर्ग हैं, उसके ऊपर नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पाँच अनुत्तर विमान (सर्वार्थसिद्धि आदि) हैं; उसमें असंख्य देव रहते हैं, वे सब एक भवावतारी है; इसलिए वहाँ से सीधे मनुष्यभव प्राप्त कर, उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे। स्वर्ग की ऊँची पदवी, उसमें इन्द्रादि पद, जिनेन्द्रदेव के भक्त प्राप्त करते हैं; अन्य को इतनी ऊँची पदवी के योग्य पुण्य नहीं होता।
स्वर्ग के देव नजर आयें, वहाँ साधारण अज्ञानी तो विस्मित हो जाता है, उसे ऐसा लगता है कि भगवान ने दर्शन दिये, परन्तु भाई! स्वर्ग का देवपना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। स्वर्ग के ये पुण्य पुतले भी परमात्मा के चरणों में अत्यन्त भक्ति से झुकते हैं और भगवान के नख की प्रभा से उनकी मुकुट की मणि जगमगा उठती है।
यहाँ आचार्य कहते हैं कि हे जिनेन्द्र ! इन्द्र को मणिरत्नों से जगमगाता हुआ जो ऐसा मुकुट मिला है, वह आपके चरणों की भक्ति के प्रताप से ही मिला है। जिसने जिनेन्द्रदेव के चरणों की भक्ति नहीं की, उसे इन्द्रपद प्राप्त नहीं होता; वह तो भवसागर के बीच में मगर के मुख में पड़ा है। इसमें तीर्थङ्कर को उत्तम पवित्रता के साथ उत्तम पुण्य कैसा होता है ? उसकी भी सन्धि बतायी है। यहाँ तीर्थङ्कर को भी रोगादि होना कहनेवाले ने तो भगवान के बाह्यस्वरूप (पुण्य) को भी नहीं पहचाना है; अन्तरङ्ग पवित्रता की तो क्या बात करें?
यह तो वीतरागस्वभाव के विवेकपूर्वक की अलौकिक भक्ति है। प्रभो ! आपकी स्तुति करते-करते जहाँ हमने आपकी सर्वज्ञता को प्रतीति में लिया, वहाँ तो मिथ्यात्वादि के टुकड़े -टुकड़े हो जाते हैं; पाप का समूह छिन्न-भिन्न होकर दूर भागता है; हमारी चेतना आनन्दित होती है और उपद्रव शान्त हो जाते हैं - ऐसा इस स्तुति का फल है क्योंकि यह निश्चयसहित की गयी व्यवहारस्तुति है।
जहाँ वीतराग स्वभाव के घोलनपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की भक्ति उल्लसित होती है, वहाँ पवित्रता के साथ पुण्य के रस की भी वृद्धि होती है और उसके कारण कभी बेड़ी टूटने आदि का चमत्कार भी हो जाता है; इसलिए उसे स्तुति का फल कहने में आता है। वर्तमान में उस प्रकार के पुण्य का योग हो तो ऐसा हो जाता है और कभी वर्तमान में पुण्य का योग न हो तो ऐसा नहीं भी होता, परन्तु अन्दर में तो वीतरागस्वभाव के बहुमान से जिनभक्ति की पवित्रता बढ़ती जाती है और पुण्य का रस भी बढ़ जाता है - यह नियम है।
भगवान का भक्त कहता है - हे नाथ! पुण्य के फल में यह देवादि ऋद्धि मिली, उसका हमें मूल्य नहीं है। आपने जो सर्वज्ञता और वीतरागभाव प्रगट किया है, वह अजोड़ महिमावन्त है, जगत् में इसकी तुलना नहीं है, इसकी हमें महिमा है; इसलिए हम आपके चरणों में झुकते हैं और आपके ही गुणगान करते हैं। आपके गुणगान करते-करते बीच में पुण्य तो एक दास की भाँति आकर खड़ा हो जाता है परन्तु उसको हम झुकते नहीं हैं, उसकी ओर हमारा झुकाव नहीं है; हमारा झुकाव तो आपके समान वीतराग-सर्वज्ञस्वभाव की तरफ ही है।
देखो, यह भगवान का भक्त ! जो ऐसे भाव से भगवान की भक्ति करने के लिए खड़ा हुआ, उसकी भक्ति के रङ्ग में भङ्ग नहीं पड़ता। वह वीतरागस्वभाव को भूलकर, बीच में कभी राग का आदर नहीं करता; बाहर में लक्ष्य जाए तो वीतराग अरहन्तदेव का आदर और अन्दर में लक्ष्य जाए तो वीतराग आत्मस्वभाव का अनुभव; इसके विरुद्ध अन्य किसी का आदर नहीं करता; इसलिए अब वीतरागस्वभाव के आदर से राग को तोड़कर वीतराग होगा ही।
अहा! केवलज्ञान के अनन्त प्रकाश से खिली प्रभु की ज्ञानप्रभा की तो क्या बात ! परन्तु तीर्थङ्कर भगवान के समवसरण की शोभा भी, और उनकी देह की शोभा भी कोई दिव्य-अद्भुत होती है। इन्द्र के मुकुट की अपेक्षा जिनके नख की प्रभा विशेष है - उनके सर्वाङ्गरूप की क्या बात! अरे, यहाँ उन भगवान का नमूना नहीं है; किस प्रकार बतायें? विदेहक्षेत्र में तो अभी साक्षात् सीमन्धर भगवान आदि तीर्थकर विराजमान हैं। भगवान के दिव्य दर्शन तो नजरों से किये हों, उन्हें ख्याल आता है। अहा, प्रभो! आपके नख की प्रभा से इन्द्र का मुकुट जगमगाता है और आपकी ज्ञानप्रभा से तो समस्त लोकालोक चमकता है - आपकी महिमा की क्या बात करें?
भगवान के नख, बीच से गोलाकार जैसे थोड़े-से उभरे हुए दोनों तरफ से ढले हुए, बीच से सहज लालपने की झाँईवाले, जगमगाते हुए होते हैं और उनमें से रङ्ग-बिरङ्गी किरणें छूटती हैं, चारों ओर इसकी प्रभा फैलती है। जब इन्द्र नमस्कार करते हैं, तब उनके मुकुट का प्रतिबिम्ब भगवान के नख में पड़ता है और नख की किरणें मुकुट मणि पर पड़ती हैं, इसलिए इन्द्रधनुष जैसी रङ्ग-बिरङ्गी झाँई झलक उठती है। यहाँ स्तुतिकार कहते हैं कि हे प्रभो! हमें जगत् के मणि-मुकुट की महिमा भासित नहीं होती, आपके चरणों की भक्ति के सामने मणिमुकुट फीके लगते हैं। हमें जगत् का वैभव प्रिय नहीं, हमें तो आपके चरणों की भक्ति ही प्रिय है।
देखो, अन्तर में सर्वज्ञपद को साधते-साधते साधक सन्तों को भगवान के प्रति भक्ति का प्रेम उल्लसित हुआ है ! जैसे, संसार में पुत्र के विवाह के समय जिसे उस जाति प्रेम होता है, वह कैसे गीत गाता है? – 'मैंने तो मोतियों के थाल भरे हैं. आँगन में हाथी झलता है और मेरे सोने का सूरज उगा है।' – ऐसे प्रेम और उमङ्ग से गाते हैं, भले ही घर में इनमें से एक भी न हो; घर में एक भी सच्चा मोती न हो और हाथी बाँधने जितनी जगह भी न हो, फिर भी वहाँ तो झूठी महिमा करके गाते हैं, जबकि यहाँ तो भगवान में जो गुण विद्यमान है, उनकी सच्ची प्रशंसा करके गाते हैं।
भगवान में सर्वज्ञता, वीतरागता आदि जो गुण प्रगट हुए हैं, उसके प्रति लगन लगाकर, परम प्रेम से भक्त उसके गीत गाते हैं। स्वयं को वे रुचिकर हैं और स्वयं में ऐसे गण प्रगट करना चाहता है; इसलिए उनके गीत गाता है। ये गीत किसी दूसरे के लिए नहीं गाते परन्तु स्वयं में उन गुणों को प्रगट करने की भावना जागृत हुई है, उस भावना का ही स्वयं में घोलन करते हैं; इसलिए श्री उमास्वामी कहते हैं 'वन्दे तद्गुणलब्धये।'
आचार्य श्री समन्तभद्र' कहते हैं - हे देव! मुझे अन्य तो कोई भी व्यसन नहीं है, एकमात्र आपके गुणों की स्तुति करने का व्यसन है, इसके बिना मुझसे रहा नहीं जाता।
हे नाथ! मैंने आपके अचिन्त्य गुणों को पहचाना है; इसलिए मुझे आपके प्रति अपार प्रमोद और बहुमान जागृत हुआ है। गुणों की पहचानसहित भक्ति ही वास्तविक भक्ति है – ऐसी पहचानसहित कहते हैं कि हे जिनेन्द्र! केवलज्ञान प्राप्त कर आपका चैतन्यद्रव्य झलक उठा है, आपकी चैतन्य झलक की तो क्या बात करें! आपके केवलज्ञान प्रकाश की तो अचिन्त्य
१. समन्तभद्र स्वामी ने भगवान की अद्भुत और गम्भीर भावों से भरी हुई कितनी ही स्तुतियों की रचना की है।
महिमा है। यह केवलज्ञानरूपी प्रकाश होने से तीन लोक में उजियाला होता है और उसके साथ (अच्छे अनाज के साथ जैसे घास भी पकती है, वैसे) साधकदशा में आपके पुण्य और उसके फल में प्राप्त आपके दिव्य शरीर की क्या बात करें! आपका तो आत्मा भी लोकोत्तर है और देह भी लोकोत्तर है। - चक्रवर्ती और इन्द्र जैसे भी भगवान के समक्ष झुकते हैं - हे नाथ! आपके समक्ष हम नहीं झुकें तो जगत् में हमारे झुकने का अन्य कोई स्थान कहाँ है ? प्रभो ! हमारा हृदय आपके दर्शन से उल्लसित हो जाता है।
अहा, आपकी वीतरागता! जगत् में जिसकी तुलना नहीं है। वीतरागता के प्रति झुका हमारा हृदय कभी राग के प्रति नहीं झुकेगा। हे देव! जगत् में मोक्षार्थी जीवों के झुकने का कोई स्थान है तो एक आप ही हो; इसलिए परमार्थ से आपके जैसा वीतरागी ज्ञानस्वभाव ही मोक्षार्थी के लिए आदरणीय है। जो राग की तरफ झुकता है, वह आपका भक्त नहीं है। बाहर में कुदेवादि को शीश झुकाए, उसकी तो क्या बात करें! परन्तु ऐसा न करे और अन्दर में सूक्ष्म रागरूपी कालिमा से धर्म का लाभ होगा - ऐसा माने तो उसने स्वयं ही राग की तरफ शीश झुकाया है, वह वीतराग का सच्चा भक्त नहीं है । वीतरागी के भक्त का शीश कभी राग के सामने झुकता ही नहीं है।
यहाँ तो इन्द्र कहते हैं कि हे प्रभो! हम आपके समक्ष न झुकें तो जगत् में ऐसा कौन सा स्थान है, जहाँ हमें झुकना चाहिए? पवित्रता में और पुण्य में आप ही सर्वोत्कृष्ट हो...
इसलिए आपके समक्ष ही हम झुकते हैं। जगत् के सामान्य जीव, इन्द्र को पुण्यवन्त मानकर आदर करते हैं और इन्द्र, भगवान जिनेन्द्रदेव का महान भक्ति से आदर करते हैं – ऐसे भगवान की स्तुति मैं भक्तामर स्तोत्र द्वारा करता हूँ।
भगवान के चरणों में भक्ति से झुकनेवाले इन्द्र कहते हैं कि हे नाथ! हमारे सिर के मुकुट-मणि की अपेक्षा, आपके चरणों के नख की विशेष शोभा है: आपके चरणों की भक्ति तो अज्ञान-अन्धकार और पाप को नाश करनेवाली है, यह सामर्थ्य हमारे मुकुट-मणि के तेज में नहीं है; इसलिए हमारा मुकुटसहित मस्तक, आपके चरणों में झुक रहा हैं। हे प्रभो! आपके आत्मा की सर्वज्ञता का दिव्य तेज तो हमें ज्ञानप्रकाश देता है और आपके चरण की भक्ति, गहन पापरूपी अन्धकार का नाश करती है। आपकी भक्ति से पाप का वंश निर्वंश, अर्थात् निर्मूल हो जाता है।
हे आदिनाथ जिनेन्द्र! आप ही इस भरतक्षेत्र में आद्यगुरु हो। आपके अवतार से पहले 18 कोडाकोड़ी सागरोपम तक इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग नहीं था, जुगलिया की और भोगभूमि की रचना थी। 18 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, (अर्थात् बहुत असंख्यात वर्षों) के अन्तराल में इस भरतक्षेत्र में आप इस चौबीसी में आद्य तीर्थङ्कर हुए हैं और आपने ही मोक्षमार्ग प्रगट किया है, इस कारण आप धर्मयुग के आदि तीर्थङ्कर हो और आप ही आद्यगुरु हो। भवसागर में पड़े हुए जीवों को मोक्षमार्ग बताकर, आपने आलम्बन (सहारा) प्रदान किया है। आपने अनेक जीवों को भवसागर से तिराया है। अहा! आपने धर्मयुग की शुरुआत की है। हमारी आत्मा में अनादि काल से धर्म का अभाव था; अब, आपके प्रताप से हम में धर्म का प्रारम्भ हुआ है। हम आपके धर्म के साधक होकर, आपके चरण में झुके, वहाँ हमारे मिथ्यात्वादि पापों की अनादि की बेड़ी टूट गयी और भवजल से तिरने का आलम्बन (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान) प्राप्त हो गया।
देखो तो सही.... यह भगवान की भक्ति ! स्वयं के आत्मा को भगवान के मार्ग में मिलाकर भक्ति की है। भगवान ऋषभदेव तीर्थङ्कर, अवसर्पिणी के तीसरे काल में हुए हैं और स्तुतिकार आचार्य पञ्चम काल में हुए हैं, उनके मध्य असंख्य वर्षों का अन्तर है, फिर भी मानो भगवान अभी स्वयं के सामने प्रत्यक्ष साक्षात् विराजमान हों – ऐसी अद्भुत स्तुति की है।
हे प्रभो! आपके गुणों की, अर्थात् आपके चरणों की भक्ति, संसार सागर से तिरने के लिए आलम्बनरूप है। आपका वीतराग उपदेश, भवसमुद्र से तारनेवाला और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। प्रभो! मैं आपका ही आलम्बन लेता हूँ, अर्थात् आपके द्वारा उपदिष्ट वीतरागमार्ग का ही अवलम्बन लेता हूँ। यही भवसागर से तिरने के लिए सहारा है। अहा! आपकी भक्ति तो मुक्ति देनेवाली है। शुद्ध श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के ध्येयपूर्वक वीतरागभाव को भजते-भजते साधक, भव से तिरकर मोक्ष प्राप्त करते हैं; - इस प्रकार हे नाथ! भव से तिरने के लिए आप आलम्बनरूप हो।
देखो, राग के लिए आप आलम्बनरूप हो – ऐसा नहीं कहा, परन्तु वीतरागरूप धर्म के लिए आप ही आलम्बनरूप हो – ऐसा कहा है क्योंकि राग हो और पुण्य का बन्धन हो, इस पर भगवान के भक्त का लक्ष्य नहीं है। भगवान के सच्चे भक्त का लक्ष्य तो आत्मा की शुद्धि पर ही होता है। भगवान ने जैसा किया, वैसा ही करना है। भगवान ने तो वीतरागभाव को सेवन करके राग का परित्याग किया है; अत: उनका भक्त भी यही करना चाहता है। यदि भगवान ने किया, उससे विरुद्ध करे, अर्थात् राग का आदर करे तो भगवान का भक्त भी कैसे कहलाये? इसलिए भगवान के भक्त का उत्तरदायित्व है कि वीतरागभाव को आदरणीय माने और राग के किसी अंश को आदरणीय नहीं माने।
यह भक्तामर स्तोत्र बोलते तो बहुत लोग हैं, परन्तु इसमें वीतरागता के अद्भुत कैसे भाव भरे हुए हैं? उन्हें तो कोई विरला ही समझता है। अरे, चैतन्य की महिमा के समक्ष देवों की ऋद्धि भी जहाँ तुच्छ है, वहाँ बाहर की ऋद्धि (पैसा इत्यादि) की भावना से भक्तामर बोलनेवाले को तो सर्वज्ञ भगवान की भक्ति करना भी नहीं आता है। अरे भाई! वीतराग की भक्ति से तू संसार की इच्छा करता है ! – यह तेरी कैसी भक्ति है? इस वीतराग की स्तुति में तो मोक्ष के मन्त्र हैं, भवरोग मिटाने के मन्त्र इसमें भरे हुए हैं। भगवान की भक्ति भव-भय भेदनी है।
स्तुतिकार कहते हैं कि 'सम्यक् प्रणम्य', अर्थात् सम्यक् प्रकार से प्रणाम करके, मैं यह स्तुति करूँगा; अकेले शब्दों से, अकेले राग से नहीं परन्तु सम्यक् प्रकार से, अर्थात् ज्ञानपूर्वक वीतरागभाव का अंश प्रगट करके, हे जिनेन्द्र! मैं आपका स्तवन करूँगा। सम्यग्दर्शन ही भगवान का परमार्थ -स्तवन है। 'वस्तुस्तव', अर्थात् सर्वज्ञदेव के गुणों का जैसा स्वरूप है, वैसा लक्ष्य में लेना, वह सर्वज्ञदेव की स्तुति है। मैं इस स्तोत्र के द्वारा ऐसी सम्यक् स्तुति करूँगा।
हे ऋषभ जिनेन्द्र! युग की शुरूआत में आप भवसमुद्र में डूबते जीवों को आलम्बनरूप हुए हैं, आपने मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करके असंख्य जीवों को तिराया है। युग की शुरूआत में कहने से, धर्मयुग की शुरूआत में अथवा कर्मभूमि की शुरूआत में समझना। ऋषभदेव भगवान कोई चौथे काल में नहीं हुए हैं, वे तो तीसरे काल के अन्त में हुए हैं और मोक्ष भी तीसरे काल में प्राप्त किया है। उससे पहले इस भरतभूमि में असंख्य वर्षों से भोगभूमि की रचना थी; इसलिए मुनिपना या केवलज्ञान नहीं था; कल्पवृक्ष के फल से जीवन निर्वाह होता था; फिर कालक्रम से भोगभूमि का काल पूरा हुआ, कल्पवृक्ष के फल भी बन्द होने लगे और लोगों को कृषि आदि कार्यों से जीवन निर्वाह करने की आवश्यकता होने लगी। युग परिवर्तन के ऐसे काल के आरम्भ में भगवान ऋषभदेव हुए और उन्होंने जीवों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने ही मोक्ष का मार्ग भी दिखाया है। तब से ही असंख्य वर्षों के पश्चात् इस भरतक्षेत्र में मुनिदशा, केवलज्ञान और मोक्ष का प्रारम्भ हो गया।
भगवान ऋषभदेव, मुनि होने के पहले एक बार अयोध्या के राजदरबार में विराजमान थे। इन्द्र, देव-देवियों के नृत्यसहित भक्ति कर रहे थे, इतने में नीलाञ्जना नाम की एक अप्सरा त्य करते-करते ही आयु पूरी हो गयी और अचानक उसकी देह का विलय हो गया। संसार की ऐसी क्षणभङ्गरता को देखते ही भगवान, संसार से वैराग्य को प्राप्त हुए और स्वयं दीक्षित होकर केवलज्ञान साध्य किया, फिर समवसरण में उनकी दिव्यध्वनि से धर्म की 'आदि', अर्थात् प्रारम्भ हुआ, अनेक जीवों ने धर्म प्राप्त किया और मोक्षगति भी शुरू हो गयी।
ऋषभदेव के अवतार से पहले तो इस भरतक्षेत्र में असंख्य वर्षों तक जुगलिया जीव ही थे; वे यहाँ से मरकर एक देवगति में ही जाते थे परन्तु जब तीर्थङ्कर भगवान की दिव्यध्वनि का दिव्यबोध प्रारम्भ हुआ, तब से धर्म की प्राप्ति कर जीव, मोक्ष में जाना भी शुरू हो गये और तभी धर्म का विरोध करनेवाले जीव, नरक में भी जाने लगे। इस प्रकार मोक्षगति और नरकगति दोनों खुल गयी परन्तु भगवान तो धर्म के ही 'आदिनाथ' हैं, पाप के नहीं; भगवान का उपदेश तो भव से तिरने का ही निमित्त है, पाप का निमित्त नहीं; इसलिए भक्त कहते हैं कि हे भगवान! जैसे मुडेर पर चढ़नेवाले के लिए डोरी का सहारा है, वैसे ही मोक्षमहल की श्रेणी में चढ़ने के लिए आपके चरणों की भक्ति का सहारा है। आपकी वीतरागता और सर्वज्ञता का बहुमान हमें भवसागर में डूबने नहीं देता। आपके चरणों का सहारा लेनेवाले भव्यजीव, परभव में डूबने से बचकर मोक्ष को साधते हैं। आपने ही मोक्षमार्ग बतलाया है, इसलिए आप ही मोक्षमार्ग के नेता हो। आप ही हमें मोक्ष मार्ग बताने वाले हो।
देखो तो सही! कैसे सुन्दर भावों से स्तुति करते हैं !!
प्रभो ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ। आपकी स्तुति कौन नहीं करेगा? अत्यन्त प्रवीण ऐसे सुरलोकनाथ भी तीन लोक के चित्त को हरनेवाले ऐसे उदार स्तोत्र से आपकी भक्ति की मूसलाधार वर्षा करते हैं। जब तीर्थङ्कर भगवान का जन्म होता है, तब इन्द्र आकर भक्ति से उनको सुमेरुपर्वत पर ले जाते हैं और दैवीय ठाठ-बाट से उनका जन्माभिषेक करते हैं; आनन्दकारी ताण्डव नृत्य करके 1008 गुणवाचक मङ्गल नामों से ऐसी अलौकिक स्तुति करते हैं कि लोग स्तब्ध रह जाते हैं। जिनेन्द्रदेव की इस अचिन्त्य महिमा को देखकर बहुत से जीव समकित प्राप्त कर लेते हैं।
भगवान तो अभी एक दिवस के बालक हैं, परन्तु असंख्य देवों के स्वामी इन्द्र स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे प्रभो! आप तो तीन लोक के नाथ हो.... आप तारणहार हो ..... आप इस अवतार में मोक्ष को प्राप्त करेंगे और जगत् के बहुत जीवों को मोक्ष प्राप्त करवायेंगे। प्रभो! अभी केवलज्ञान होने से पहले आपके अवतार की (द्रव्य-तीर्थङ्कर की) ऐसी महिमा है तो जब केवलज्ञान प्रगट करके साक्षात् परमात्मा (भाव-तीर्थङ्कर) होंगे, उसकी महिमा की तो क्या बात! ।
लौकिकमत में अज्ञानियों के द्वारा माने हुए जगदीश (भगवान) तो स्वयं फिर से संसार में अवतार धारण करते हैं और जीवों को संसार में भेजते हैं परन्तु वे वास्तविक भगवान नहीं है। जो जीवों को संसार में भ्रमण कराये और स्वयं जन्म -मरण करे, उन्हें भगवान क्यों कहना? वास्तविक जगदीश तो आप हो। आप मुक्त होने के बाद फिर कभी संसार में अवतार धारण नहीं करते; इतना ही नहीं, अपितु आपके निमित्त से अनेक जीव, धर्म प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करते हैं; इस प्रकार आपका अवतार, धर्मोपदेश द्वारा संसार में से जीवों को छुड़ाकर मोक्ष में ले जाता है। इस कारण मोक्ष के अभिलाषी जीव आपकी स्तुति करते हैं और आपके ही मार्ग का आदर करते हैं।
अहा! जगत् में जितने उत्तम जीव हैं, वे सब आपकी स्तुति करते हैं। गणधर, चक्रवर्ती, वासुदेव-बलदेव इत्यादि सब आपकी स्तुति करते हैं; अन्य किसी की नहीं। हे जिनेन्द्र ! बारह अङ्ग को जाननेवाले द्वादशांग के पाठी महाबुद्धिमान भी आपका ही स्तवन करते हैं। कोई मूर्ख जीव भगवान को न पहिचाने तो उसकी क्या गणना? जगत् में जितने बुद्धिमान उत्तम पुरुष हैं, वे सब महान भक्ति से जिनचरण की सेवा करते हैं।
कोई भगवान की भक्ति-पूजा का निषेध करता हो तो उससे कहते हैं अरे भाई! बारह अङ्ग के ज्ञाता और देवों के स्वामी भी भगवान की भक्ति-पूजन करते हैं, उनकी अगाधबुद्धि के सामने तेरी क्या गिनती है? इन्द्र जैसे भी भगवान के समक्ष भक्ति करते हुए, बालक की भाँति नाच उठते है। धर्म के प्रेमी को इस जाति का प्रमोद उल्लसित हुए बिना नहीं रहता है। देखो न! बड़े-बड़े ज्ञानियों और मुनियों का हृदय, भगवान की भक्ति में कैसा उल्लसित होता है।
प्रश्न : भगवान तो परद्रव्य हैं, क्या समकिती, पर की स्तुति करता है?
उत्तर : भाई! तूने वीतराग परमात्मा के गुणों की महिमा को जाना ही नहीं है; इसलिए तुझे ऐसे प्रश्न उठते हैं। सर्वज्ञ परमात्मा के प्रति स्तुति का जैसा भाव ज्ञानी को उल्लसित होता है, वैसा अज्ञानी को उल्लसित ही नहीं होता। भले ही भगवान हैं तो परद्रव्य, परन्तु स्वयं को इष्ट, अर्थात् साध्य - ऐसी वीतरागता और सर्वज्ञता, जब भगवान में दिखती है, तब गुण के प्रति बहुमान से धर्मी का हृदय उल्लसित हो जाता है। जगत् में रागी जीव, स्त्री की प्रशंसा करते हैं तो क्या स्त्री के लिए करते हैं? – नहीं, स्वयं को उसका राग है; अत: उस राग | पाप का पोषण करने के लिए करते हैं। जिसे वीतरागता का प्रेम है, वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा को देखते ही भक्ति करता है तो वह कोई भगवान को प्रसन्न करने के लिए नहीं परन्तु स्वयं के भाव में वीतरागता का पोषण करने के लिए है। भक्ति करते समय भले ही शुभराग है, परन्तु उस समय ज्ञान में तो वीतरागस्वभाव का बहुमान निरन्तर चलता है और इसका नाम वीतराग की भक्ति है।
चैतन्य की अचिन्त्य शक्ति विकसित हुई, उसकी महिमा का शब्दों से पार पाया जा सके - ऐसा नहीं है। समवसरण में 1008 नामों से उत्तम स्तुति करके अन्त में इन्द्र कहते हैं - हे नाथ! इन शब्दों से, इन विकल्पों से आपके गुणों की स्तुति पूर्ण नहीं होती; जब यह विकल्प तोड़कर निर्विकल्परूप से स्वरूप में स्थिरता करके वीतराग होऊँगा, तब आपकी स्तुति पूर्ण होगी।
अहा! केवलज्ञान के दिव्यप्रकाशसहित तीर्थङ्करदेव, समवसरण में गणधरों और मुनिवरों की सभा में विराजमान हों और इन्द्र नम्रतापूर्वक 1008 नामों से भगवान की स्तुति करते हो.... तब तो यह दिव्य स्तुति सुनकर तीन लोक के जीव मुग्ध होकर स्तब्ध हो जाते हैं। देव या मनुष्य तो क्या, तिर्यञ्चों का समूह भी स्तब्ध रह जाता है। अरे, यह स्तुति करनेवाला कौन है ! और इन्द्र जैसे जिनकी ऐसी स्तुति करते हैं तो उन भगवान की महिमा कितनी?
ऐसी सर्वज्ञता की महिमा में गहरे उतर कर कोई -कोई जीव तो सम्यग्दर्शन भी प्राप्त कर लेते हैं।
अहा! सर्वज्ञ की स्तुति किसका मन मुग्ध नहीं करेगी? जिसे सुनने के लिए कान ही नहीं मिले हों – ऐसे बेचारे एकेन्द्रियादि जीवों की क्या गणना? यहाँ तो आत्मा का हित करने के लिए तैयार हआ है – ऐसे जीव की बात है। वह जीव, भगवान सर्वज्ञदेव की स्तुति का श्रवण करे और उसका चित्त भक्ति से डोल न उठे – ऐसा नहीं होता है।
शास्त्रकार तो अलङ्कार से कहते हैं कि अरे, इस मृत्युलोक का मुमुक्षुरूपी हिरण भी भगवान की स्तुति सुनने के लिए उड़कर चन्द्रलोक में गया तो मनुष्य को भक्ति का उल्लास न आये, यह कैसे हो सकता हैं ? ।
सूर्य-चन्द्रमा के / ज्योतिषी देवों के विमानों में शाश्वत रत्नमयी जिनबिम्ब है। (चक्रवर्ती अपने महल में से उन जिनबिम्बों के दर्शन करता है।) वहाँ के इन्द्र और देव उनकी स्तुति करते हैं। प्रभो! आपकी स्तुति किसे अच्छी नहीं लगती? देवलोक के देव, दिव्य सङ्गीतसहित आपकी जो स्तुति करते हैं, उसे सुनकर हिरण जैसे तिर्यञ्च जीव भी मुग्ध हो गये और सुनने के लिए चन्द्रलोक तक पहुँच गये तो अन्य की बात क्या करें? चन्द्रमा में हिरण जैसी आकृति दिखती है न! तो कितने ही लोग कहते है कि वह कलङ्क है, परन्तु नहीं; वह कलङ्क नहीं है, वह तो चन्द्रलोक में देव, भगवान की दिव्य स्तुति करते हैं, उस स्तुति का / गुणगान सुनने का लालायित हिरण यहाँ से चन्द्रलोक में गुणगान सुनने के लिए गया है, वह दिखता है।
वाह! भगवान के भक्त घूमते-फिरते सर्वत्र भगवान की महिमा को ही देखते हैं; उनके हृदय में वीतरागता की महिमा बसी हुई है; इसलिए बाहर में भी वही देखते हैं। इस प्रकार इन्द्रों के द्वारा की गयी स्तुति का स्मरण करके यहाँ स्तुतिकार कहते हैं कि हे जिनेन्द्र ! बड़े-बड़े इन्द्रों ने जैसे आपकी स्तुति की है, वैसे ही मैं आपकी मनोहर स्तुति करता हूँ।
श्री मानतुङ्ग मुनिराज ने इस स्तुति में सर्वज्ञदेव की भक्ति का प्रवाह बहाया है। यह धर्मतीर्थ का प्रारम्भ करनेवाले आदिनाथ तीर्थङ्कर की स्तुति है। अन्दर में श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र से सर्वज्ञस्वभावी आत्मा का सेवन करना ही परमार्थ भक्ति है और बाहर में सर्वज्ञ परमात्मा को पहचानकर उनके प्रति प्रमोद -भक्ति, बहुमान का भाव, वह व्यवहारभक्ति है।
यहाँ मानतुङ्ग स्वामी को प्रभु की भक्ति का अति आनन्द आया है। अहो ! सर्वज्ञ जैसा मेरा ज्ञानस्वभाव है – ऐसी अनुभूति तो हुई ही है, साथ ही यह भक्ति का भाव आया है। उपसर्ग के समय जेल में बैठे-बैठे यह स्तुति कर रहे हैं। प्रभो! आपके भक्त को बन्धन कैसा? आपकी भक्ति करने से तो भव के बन्धन भी टूट जाते हैं। प्रभो! आपने अपने भव का तो नाश किया है और हमारे भव का भी नाश करनेवाले हो।
आपका उपदेश, भवसागर में डूबते हुए जीवों को तिरने के लिए अवलम्बनरूप है। आप पापरूपी अन्धकार का नाश करनेवाले हो; पुण्यप्रकाश का उद्योत करनेवाले और धर्म की प्राप्ति कराके भवसमुद्र से तारनेवाले हो। द्वादशाङ्ग के ज्ञाता महाबुद्धिमान, इन्द और गणधर जैसे समर्थ पुरुषों ने भी आपकी स्तुति की है, उसी प्रकार मैं भी अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार आपकी स्तुति करता हूँ। बुद्धि और शक्ति भले कम हो, लेकिन भक्तिभाव तो पूरा है – ऐसा कहकर मानतुङ्गस्वामी ने इस भक्तामर स्तोत्र में भक्तिरस की धारा का प्रवाह बहाया है।
प्रभो! आपने तो मोक्ष का ही उपदेश दिया है। भगवान का सच्चा भक्त, मोक्ष के अतिरिक्त अन्य किसी वैभव का अभिलाषी नहीं होता। बाह्य वैभव की अभिलाषा से भगवान की सेवा करनेवाले को हम भगवान का सच्चा भक्त नहीं कहते हैं। जो राग का इच्छुक है, वह वीतराग का भक्त कैसे कहलायेगा? इन्द्र स्वयं को प्राप्त इन्द्रपद के दैवीय वैभव को भी भगवान के अचिन्त्य आत्मवैभव के सामने अत्यन्त तुच्छ मानकर, भक्तिभाव से भगवान के चरणकमलों की सेवा करता है और 1008 नामों द्वारा अद्भुत स्तुति करता है। आदिपुराण में उसका सरस वर्णन है। उन 1008 नामों में सर्व प्रथम श्रीमान्; अर्थात्, अनन्त चतुष्टयरूप, अन्तरङ्गलक्ष्मी तथा अष्ट प्रातिहार्यरूप बहिरङ्ग लक्ष्मीसहित तथा स्वयंभू, विभू इत्यादि और अन्तिम धर्मसाम्राज्यनायक नाम है; इस प्रकार भक्ति में अध्यात्म का रहस्य भी साथ ही समाहित है।
पण्डित बनारसीदासजी ने भी 1008 नामों से भगवान की स्तुति की रचना की है, उसमें प्रथम 'ॐकाररूप' नाम से शुरूआत की है; तथा ज्ञानगम्य, अध्यात्मगम्य, बहुगुणरत्नकरण्ड - इत्यादि अनेक विशेषणों द्वारा स्तुति की है। तदुपरान्त 1008 नामों से जिनेन्द्रदेव की महापूजन का विशेष मण्डलविधान है, वह मण्डलविधान पूजा सोनगढ़ में अनेकबार हो चुकी है, उसमें भी अत्यधिक भाव हुए हैं।
हे भगवान! ऐसा कौन बुद्धिमान है जो आपकी स्तुति नहीं करेगा? अहो! आपकी सर्वज्ञता को लक्ष्य में लेकर, जिसका चित्त आपकी भक्ति में लीन हुआ है, उसे जगत् का भय नहीं होता। अरे! क्रूर सिंह, हिरण को मारने के लिए छलाँग मारे; हिरण, सिंह के पञ्जों के बीच पड़ा हो, लेकिन आपकी भक्ति की शरण लेते ही उसे सिंह का भय नहीं रहता। हे नाथ! आपकी भक्ति करते हुए, मुझे मेरे सर्वज्ञस्वभाव का भान हुआ और स्वभाव की शरण लेते ही क्रूर कर्म के उदयरूप सिंह या प्रतिकूलता के संयोग की दौड़ से हम दबनेवाले नहीं हैं; कर्मरूपी सिंह के पजे हम पर चलनेवाले नहीं हैं। देखो ! बाहर में सिंह की बात की है, अन्दर में यह बात है।
हे नाथ! किसी कर्म में या संयोग में इतनी सामर्थ्य नहीं कि मेरी भक्ति को तोड़ सके। जो हृदय में सर्वज्ञता को स्थापित करके, आपकी भक्ति करते-करते सर्वज्ञपद की साधना के लिए निकला है, वहाँ आपके भक्त को शुभ का भी ऐसा रस / अनुभाग हो जाता है कि पाप का पुण्यरूप संक्रमण हो जाता है; इसलिए सिंह इत्यादि की कोई प्रतिकूलता उसे बाधक नहीं होती। यह बात इस स्तोत्र में आगे बतायेंगे।
हे प्रभो! मुझे आपकी सर्वज्ञता का परमप्रेम है, इसलिए आपकी स्तुति करता हूँ, उसमें मुझे जगत् के बन्धन रुकावट नहीं बनेंगे। सर्वज्ञस्वभाव के सन्मुख होकर आपकी भक्ति करते-करते मैं आपके जैसा बन जाऊँगा।
इस प्रकार प्रारम्भिक दो श्लोकों में स्तुति के लिए भूमिका बनाकर, अब तीसरे श्लोक में स्तुतिकार स्वयं को बालकवत् वर्णन करते हुए स्तुति करते हैं।
मिथ्याभ्रान्ति का नाश यद्यपि यहाँ भगवान की स्तुति करते हुए किसी भी प्रकार के वरदान की आकाँक्षा नहीं की गयी है, तथापि बिना आकाँक्षा के ही बालक का विष उतर जाता है। इसी तरह आत्मा के अन्तर ज्ञान एवं ध्यान के फलस्वरूप बिना याचना के ही मिथ्याभ्रान्ति एवं राग-द्वेष का अभाव, सहज स्वभाव की धुन में हो जाता है। -विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-6
मिथ्याभ्रान्ति का नाश यद्यपि यहाँ भगवान की स्तुति करते हुए किसी भी प्रकार के वरदान की आकाँक्षा नहीं की गयी है, तथापि बिना आकाँक्षा के ही बालक का विष उतर जाता है। इसी तरह आत्मा के अन्तर ज्ञान एवं ध्यान के फलस्वरूप बिना याचना के ही मिथ्याभ्रान्ति एवं राग-द्वेष का अभाव, सहज स्वभाव की धुन में हो जाता है।
-विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-6