भक्तामर स्तोत्र काव्य
।। भक्तामर स्तोत्र काव्य 15-16 ।।

काव्य : 15

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि,
नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्।
कल्पान्त कालमरुता चलिताचलेन,
किं मन्दरादिशिखरं चलितं कदाचित्॥१५॥

मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार।
कर न सकीं आश्चर्य कौन सा, रह जाती हैं मन को मार॥
गिरि-गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु शिखर।
हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावात प्रखर॥१५॥

काव्य : 15 पर प्रवचन

हे वीतराग प्रभो! स्वर्ग की देवाङ्गनाएँ आपके चित्त में रञ्चमात्र भी विकार उत्पन्न नहीं कर सकी – परन्तु इसमें क्या आश्चर्य है? शंकर, विष्णु आदि अन्य देव तो साधारण स्त्रियों में भी मोहित हो गये, जबकि आप तो इन्द्राणी को देखकर भी मोहित नहीं हुए, परन्तु आपकी सुमेरुपर्वत जैसी महानता देखकर यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आप तो सम्पूर्ण वीतराग हो। सामान्य पर्वत को उखाड़ देनेवाली प्रलयकाल की पवन, क्या सुमेरुपर्वत के शिखर को डगमगा सकती है? – कभी नहीं।

भगवान ऋषभदेव की राज्यसभा में स्वर्ग की देवियाँ भक्तिपूर्वक नृत्य करती थी, उन देवाङ्गनाओं के हाव-भाव में प्रभु मोहित तो नहीं हुए, अपितु निलांजनादेवी की मृत्यु द्वारा संयोग की क्षणभङ्गरता का चिन्तवन कर संसार से विरक्त हो गये। इस वैराग्य के प्रसङ्ग को याद करके कहते हैं –

हे प्रभो! देवलोक की अप्सराओं से आप मोहित नहीं हुए - इसमें हमें कोई आश्चर्य नहीं लगता, क्योंकि आपके मार्ग में अतीन्द्रिय सुख का आस्वादन करनेवाले हमारे जैसे साधक भी स्वर्ग के वैभव में सुख नहीं मानते, उसमें मूर्च्छित नहीं होते तो फिर आप तो पूर्व वीतराग हैं, आपकी निर्विकारता की तो क्या बात ! आपके चित्त में जरा-सा भी विकार नहीं हो – यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अन्य कदेव तो स्त्री आदि में मोहित हुए हैं अथवा शत्रु के प्रति क्रोध करके उसका हनन करते हैं, परन्तु आप तो सर्वज्ञ-वीतराग हो, आपको कभी रञ्चमात्र भी राग-द्वेष नहीं होता। आप न तो भक्त के प्रति राग करते हो, न दुश्मन के प्रति द्वेष करते हो। - ऐसी वीतरागता जगत् में एकमात्र आपको ही शोभायमान है।

पञ्चम काल के अन्त में प्रलयकाल आयेगा, तब ऐसा घनघोर तूफान आयेगा कि हिमालय आदि बड़े-बड़े पर्वत बिखरकर उड़ जाएँगे, परन्तु सुमेरुपर्वत रञ्चमात्र भी नहीं डगमगायेगा, वह तो शाश्वत् ऐसा का ऐसा ही स्थिर रहेगा। इसी प्रकार जगत् के तुच्छ देव जहाँ राग-द्वेष से डगमगा जाते हैं, वहाँ हे जिनदेव! आप वीतरागभाव में सुमेरुपर्वत के समान निश्चल (अचल) रहते हो। समवसरण की दिव्यविभूति भी आपको राग उत्पन्न नहीं करा सकती। ऐसी वीतरागता, जगत् में एकमात्र आप में ही है, अन्य किसी में नहीं।

हम रहते हैं, वह भरतक्षेत्र, जम्बूद्वीप में है; सीमन्धर परमात्मा विराजमान है, वह विदेहक्षेत्र भी इस जम्बद्वीप में ही है। जम्बूद्वीप एक लाख महायोजन का गोलाकार है; उसके बीच में शाश्वत् सुमेरुपर्वत है और उसके ऊपर शाश्वत् जिनालय विराजमान है। प्रलयकाल की पवन के बीच भी वह सुमेरुपर्वत ऐसा का ऐसा अचल रहता है। इसी प्रकार भरतक्षेत्र का सम्मेदशिखर निर्वाणस्थान भी शाश्वत् है। अभी उस पर पृथ्वी पर नवीन परत चढ़ गयी है, वह प्रलयकाल में उड़ जाएगी और स्फटिक जैसी असली चित्रापृथ्वी प्रगट हो जाएगी। उस चित्रापृथ्वी के उभरे हुए भागरूप सम्मेदशिखर पर्वत और उस पर स्वस्तिक (साथिया) है, वह शाश्वत् है।

यहाँ तो सुमेरु की उपमा देकर कहते हैं कि हे नाथ! आपका चित्त भी सुमेरुपर्वत के समान स्थिर है; देवलोक की अप्सराएँ या जगत के किसी पदार्थ से उसमें रञ्चमात्र भी विकार-राग -द्वेष नहीं होते। अहा! ऐसी वीतरागता आपके अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं है और आपके वीतरागमार्ग में लगे हुए हमारे चित्त को भी मार्ग से कोई विचलित नहीं कर सकता, अर्थात् वह अब विषयों में लीन नहीं होता। इसमें यह भी आ गया है कि जिनका चित्त विषयों में लीन होता है, वे जीव, वीतराग परमात्मा की सच्ची भक्ति नहीं कर सकते हैं।

खो, इस भक्तामर स्तोत्र के भावों का रहस्य उद्घाटित होता है। भक्त-अमर, अर्थात् भक्तिवन्त देव; वे भी देवलोक के वैभव को तुच्छ जानकर सर्वज्ञ परमात्मा की स्तुति करते हैं और उसमें वीतरागता की ही भावना भाते हैं। स्तोत्र के ऐसे भावों को न समझनेवाले जीव, दीन होकर पैसा, निरोगता आदि लौकिक आशा से भक्तामर स्तोत्र बोलते हैं, उन्हें भगवान की वास्तविक स्तुति का भाव नहीं है।

अहा! यह तो वीतराग परमात्मा के गुणों की स्तुति है ! इसमें वीतरागी गुणों के अतिरिक्त अन्य भावना कैसे होगी? ऐसी भावनासहित भगवान की भक्ति करनेवाले के बाद में जो दो-चार भव होते हैं, वे दीनतावाले नहीं होते; आराधनासहित उत्तम पुण्यफलवाले होते हैं और वहाँ स्वर्गादि में अप्सरा आदि दिव्य-वैभव के बीच भी आत्मा की आराधना को विस्मृत किये बिना, सम्यक्त्वपूर्वक सुमेरु के समान अकम्पायमान रहकर अनुक्रम से मोक्षपद को साधते हैं, प्राप्त करते हैं।

- यह है परमात्मा की परमार्थ भक्ति का फल!


काव्य : 16

निर्धूम-वर्तिरपवर्जित-तैलपूरः
कृत्स्नं जागत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः॥१६॥

धूप न बत्ती तेल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक।
गिरी के शिखर उड़ानेवाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥
तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात।
ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्व-पर प्रकाशक जग विख्यात॥१६॥

काव्य : 16 पर प्रवचन

हे नाथ! केवलज्ञान के कारण आप ऐसे अद्वितीय जगत्प्रकाशी दीपक हो कि जिसे धुआँ या बात्ती नहीं है, जिसमें तेल नहीं भरना पड़ता। पर्वतों को हिला देनेवाली झंझावात पवन से भी यह दीपक नहीं बुझता और एक साथ तीनों लोक को प्रकाशित करता है।

तह सो लद्धसहावो सव्वण्ह सव्वलोगपदिमहिदो।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिहिट्ठो॥

(- प्रवचनसार, गाथा 16)

इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने भी सर्वज्ञपद की महिमारूप स्तुति की है।

देखो, यह सर्वज्ञ भगवान के केवलज्ञानरूपी दीपक की स्तुति! जगत् में तेल-घी के दीपक को तो रूई की बत्ती का अवलम्बन चाहिए और उसमें से धुआँ निकलता है। इसी प्रकार इन्द्रियज्ञानवाले जीवों में तो मोहरूपी धुआँ होता है और पाँच इन्द्रियोंरूपी बत्ती का अवलम्बन चाहिए, परन्तु हे देव! स्वयंभू - ऐसे आपके केवलज्ञानरूपी दीपक को किसी इन्द्रियोंरूप बत्ती का अवलम्बन नहीं है और उसमें राग-द्वेषरूपी कालिमा नहीं है।

  • लौकिक दीपक में तो तेल भरना पड़ता है, परन्तु आपका केवलज्ञानरूपी दीपक तो आत्मा में से प्रगट हुआ 'स्वयंभू' है, उसमें तेल नहीं भरना पड़ता।
  • लौकिक दीपक तो पवन के झोंके से बुझ जाता है, परन्तु आपका केवलज्ञानरूपी दीपक तो कैसे भी उपसर्ग-परीषह की पवन के मध्य भी कभी नहीं बुझता।
  • लौकिक दीपक तो अपनी मर्यादापूर्वक थोड़े से रूपी पदार्थों को ही प्रकाशित करता है, जबकि आपका केवलज्ञानरूपी दीपक तो एक साथ तीन लोक के रूपी-अरूपी समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है।

प्रभो! आपके ऐसे केवलज्ञान को प्रतीति में लेते ही; अर्थात्, राग से भिन्न अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभाव को वेदन में लेते ही हमारे अन्तर में स्वानुभूति का जो अतीन्द्रिय श्रुतज्ञानरूपी दीपक प्रगट हुआ है, वह भी परीषहों के पवन से कभी नहीं बुझेगा और कषायों की कालिमा से भिन्न ही रहकर वृद्धिगत होते-होते केवलज्ञान तक पहुँचेगा। इस प्रकार साधक को सर्वज्ञ के साथ अपने ज्ञान-दीपक में भी नि:शंकता है। अकेले इन्द्रियज्ञान से या राग-द्वेष से मलिन ज्ञान द्वारा केवलज्ञानरूपी दीपक की श्रद्धा या स्तुति नहीं हो सकती है।

अहो देव! आपके आत्मा में असंख्य प्रदेशों से अनन्त चैतन्यदीपक प्रगट हुए हैं, वे आनन्द-प्रकाश से भरपूर हैं और उनमें कषायों का धुआँ नहीं है। 'दीपक से दीपक प्रगट होता है', वैसे ही आपके केवलज्ञान की प्रतीति से प्रगट हुआ हमारा सम्यग्ज्ञानरूपी दीपक भले ही छोटा है, परन्तु उसकी जाति तो आपके केवलज्ञान जैसी है, उसमें भी अतीन्द्रिय आनन्द है और कषाय नहीं है; इन्द्रियज्ञान का दीपक तो बुझ जाएगा, अतीन्द्रियज्ञान का दीपक कभी नहीं बुझेगा।

कितने ही लोग कहते हैं कि विकाररूप धुएँ का नाश करने के लिए ज्ञानदीपक को बुझा डालो! – वस्तुतः ऐसा कहनेवाले मूर्ख जीवों को विकार से भिन्न ज्ञानस्वभाव का पता नहीं है। कितने ही नास्तिकमति ऐसा भी मानते हैं कि मोक्ष में ज्ञान का अस्तित्त्व नहीं रहता। - अरे मूढ़ ! तो क्या मोक्ष प्राप्त करनेवाला आत्मा जड़ । अचेतन हो गया? – नहीं; यदि ज्ञान का नाश हो जाता हो तो आत्मा का भी नाश हो जाएगा - फिर तो ऐसे मोक्ष की इच्छा कौन करेगा?

हे नाथ! मोक्ष में भी आपका अद्भुत केवलज्ञानरूपी दीपक, इन्द्रियरहित और राग-द्वेषरहित जगमगा रहा है। इन्द्रियाँ छूट जाएँ तो भी वह बुझता नहीं है; उसमें रागरूपी तेल की चिकनाहट नहीं है। साधारण लोग तो बिजली के हजारों-लाखों दीपक की जगमगाहट देखते हैं, तब आश्चर्य करते हैं, परन्तु तेल के बिना जलनेवाले अद्भुत केवलज्ञानरूपी दीपक को तो ज्ञानीजन ही पहचानते हैं। इस अतीन्द्रिय दीपक की तो जाति ही अलग है! जगत् के अन्य सभी दीपक; अरे! सूर्य-चन्द्रमा भी उसके सामने तुच्छ लगते हैं।

किसी भी बाह्य साधन के बिना प्रभु को स्वयंभूपने केवलज्ञानरूपी दीपक प्रगट हुआ है। लोहे की दीवार भी इस दीपक के तेज / प्रकाश को नहीं रोक सकती; कोई पदार्थ उससे गुप्त नहीं रहता। अहा! जगत् में जिसकी अन्य कोई तुलना नहीं है - ऐसा बेजोड़ केवलज्ञानरूपी दीपक शाश्वतरूप से प्रभु के आत्मा में जगमगा रहा है। ऐसा कहकर, इन्द्रियों और कषायों से भिन्न ज्ञानस्वभाव की प्रतीतिपूर्वक, सर्वज्ञ भगवान की स्तुति की गयी है।

अहा प्रभो! आपकी ऐसी स्तुति करते हुए हमें भी मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश होकर सम्यग्ज्ञान का अलौकिक दीपक प्रगट हुआ है, जो कभी बुझनेवाला नहीं है।

स्वभाव की निरपेक्षता हे प्रभु ! अन्य देव पापसहित हों, अथवा पापरहित; उनके दोष-वर्णन से आपकी गुणयुक्तता नहीं है। आप तो स्वभाव से ही महिमायोग्य हैं । सागर की विशालता -अगाधता स्वभाव से ही है, न कि तालाब एवं कुआँ की लघुता वर्णन के कारण। सागर तो स्वभाव से ही विशाल एवं अगाध है।

हे भगवान ! हम दूसरों के दोष बतलाकर, आपके गुण सिद्ध नहीं करना चाहते; क्योंकि आप तो सभी से निरपेक्ष हैं। जब विकारी पर्याय का होना भी निरपेक्ष है, तब स्वभाव की निरपेक्षता का तो कहना ही क्या?

- विषापहार प्रवचन, पृष्ठ-40