अशुद्धियां का न होना एवं विशेष शुद्धि से युक्त अवस्था ही शुद्धि की अवस्था है। वे शुद्धियां इस प्रकार हैं:
1 कुल शुद्धि - दाता विजातीय विवाह (स्वयं जैन होते हुए अन्य जाति वाले ब्राहमण, शूद्र, मुस्लिम, सिंधी इत्यादि से विवाह करने वाला या उनसे उत्पन्न संतान हो) अन्तर्जातीय विवाह जैन होते है हुए अनय जैनों से शादी करने वाला जैसे स्वयं परवार है तो परवार में, गोलापूर्व है तो गोलापर्वू, में ही विवाह करे, यदि वह परवार होते हुए जैसवाल या खण्डेवाल से शादी करता है तो वह विवाह अन्तर्जातीय विवाह कहलाता है। उसे सजातीय विवाह ी करना चाहिए। ऐसी सामाजिक व्यवस्था है एवं कुछ आचार्य मनीषीओं का उपदेश है। विधवा विवाह (विधवा से विवाह करन ेवाला या उनसे उत्पन्न संता) अवैध विवाह (जिसे समाज दोषी मानता है, जो लोक-व्यवहार के प्रतिकूल चोरी से किसी को अपनी पत्नी बना लेना या उनसे उत्पन्न संतान भी दोषी है।) परांगना से व्यवहार रखने वाला या उनसे उत्पन्न संतान न हो जिसे लौहरी सेन, दशा विनेकाचार कहा जाता है एवं उस कुल में कुल को कंलकित करने वाला कोई कार्य नहीं हुआ हो, वही दाता उत्तम दाता कहलाने के योग्य है। सामाजिक व्यवस्था, लोक व्यवहार, आगम परम्परा व आचार्य मनीषओं की आज्ञा - उल्लंघन करना भी श्रावक के लिए उचित नहीं है।
2 काय शुद्धि - दाता हीनाधिक आंगोपांग से रहित हो। कुष्ठ रोग, बवासीर, भगंदर, टी.वी. (क्षय रोग), तीव्र जुकाम, खांसी, ज्वर, मृगी अथवा अन्य असाध्य रोगों से रहित हो। अंध, बहरा, काना, लंगड़ा, लूला आदि न हो। उसे चर्बी युक्त साबुन से स्नान भी नहीं करना चाहिए। चर्बी युक्त क्रीम, पिस्टिक, न,ापाॅलिस, सेन्ट आदिभी लगा कर न आया हो। नाखनू आदि भी बड़े-बड़े न हो। उत्तम हो कि आहारदान के समय गंदगी से परिपूर्ण मुद्रिा भी न पहले इत्यादि बातों को उत्तम श्रावक/दाता को ध्यान में रखना चाहिए।
3 वसन - (वस्) शुद्धि - आहार के समय बहु हिंसा जन्य रेशम आदि के वस्त्र एवं टेरीकाॅट, टेरालीन, बूली, सिलकन, मखमल, ऊनी, चर्म युक्त्, पत्तों या बल्कल आदि के वस्त्र न पहनें। वस्त्र कोरे, फटे, गंदे, काले, अति लम्बे, चैड़े, अति चुस्त, अनफिट, जालीदार, चटक्-मटक वाले न हो। जो वस्त्र विशुद्धि का ह्रास करने वाले हैं, जिसमें आंगोपांग दुष्टिगोचर हो ं ऐसी लोक-विरूद्ध पाश्चात्य वेशभूषा न हो। पुरूषों के लिए धोती-दुपट्टा (अधेवस्तत्र-उत्तरीय परिधन) एवं अन्दर के वस्त्र भी अनिवार्य हैं तथा महिला वर्ग के लिए भारतीय संस्कृति के अनुसार साड़ी एवं अन्दर के वस्त्र भी अनिवार्य हैं। वस्त्र शुद्धि के समय सभी वस्त्रों की शुद्धि अनिवार्य है। यदि एक वस़्त्र भी अशुद्ध है तो सभी वस्त्र अशुद्ध कहलायेंगे, अतः वस्त्रों की पूर्ण शुद्धि होना चाहिए। हाथ से न छुएं, अशु व्यक्ति या वस्तु से भूल से भी स्पर्श न हो इसलिए अशुद्धि के कारणों से दूर/सावधान हरें।
4 असन (आहार) शद्धि- आहार शुद्ध, मर्यादित, प्रासुक, साधना में वृद्धि करने वाला सात्विक हो। जो आहार तामसिक या राजसिक है, वह भी साधुओं के लिए सर्वथा योग्य नहीं हे, कथांचित ग्राह्य हो सकता है। जो आहार प्रमाद पैदा करने वाला हो, गरिष्ठ हो, वासना को जाग्रत करने वाला, इन्द्रियों को उद्दीप्त करने वाला, लोक मर्यादा के विरूद्ध, ब्रह्मचर्य का बाधक, स्वाध्याय, तप, ध्यान व संयम-साधन में ह्रास करने वाला हो तो वह आहार भी साधुओं को नहीं देना चाहिए। अति पक्व, कच्चा, जला हुआ, अधकच्च, बदबूदार, ग्लानि युक्त, काले-ाकले धब्बों से युक्त, रक्त या अतिकृष्ण वर्ण का, जिसे देखकर अन्य संदेह पैदा हो रहा हो, जिसका शोधन करना कठिन है ऐसा आहार देना भी योग्य नहीं है। द्विदल युक्त, प्रासुक का प्रासुक मिश्र आहार, मौसम व प्रकृति के प्रतिकूल आहार भी नहीं देना चाहिए। घी, दूध तेल, दही, छांछ, जल, बूरा, गुड़, मसाले, दाल, आटा, पकवालन आगे कही मर्यादानुसार शुद्ध होना चाहिए किन्तु कभी अशुद्ध देने का प्रयास न करें, इससे पुण्य के स्थान पर पाप का ही पंध होता है। (पदार्थों की मर्यादा का कथन आगे दिया है, वहां देखें) ।
5 वचन श्ुद्धि- 5 वचन श्ुद्धि-दाता को आहारादि दान देते समय हितकर, सीमित, मिष्ट एवं आगमनुसार ही वचन बोलना चाहिए। लोकव्यवहार के विरूद्ध शब्द न बोलें। कर्कश भाषा (संताप उत्पन्न करने वाली भाषा जैसे - तू मूर्ख है, पागल है, क्रोध है, घमंडी है, इत्यादि शब्द) कटुक भाषा (दूसरों को उद्वेग पैदा करने वाली कड़वी भाषा जैसे - तू जाति हीन है, पापी है, अधर्मी है, नीच है, दुष्ट है, पाखण्डी है, ढोंगी है इत्यादि शब्द) कठोर वाणी (जो मर्म-भेदी है, जिससे प्राणी का हृदय छलनी हो जाता है जैसे-तू दोषी है, व्यसनी है, तू नरक जाएगा, तेरे कीड़े पड़़ेगे इत्यादि) निष्ठुर भाषा (जो निर्दयता से युक्त हो वह निष्ठुर भाषा है जैसे-मैं तुझे जान से मार दूंगा, मैं तेरा सिर काट दूंगा, तेरी बोटी-बोटी कर दूंगा, तेरा मार-मार कर हलुवा बनाऊंगा इत्यादि) दूसरों के क्रोध को पैदा करने वाली भाषा (जिससे स्वयं को व दूसरों को क्रोध पैदा हो जैसा-तेरा दान देना व्यर्थ है, तू कब से त्यागी-भक्त बन गया, नौ-नौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली इत्यादि) मध्यकृश भाष (जो हड्डियों के मध्य भाग को भी देद दे अर्थात् जो जीवन भर याद रहे, ऐसे अति निंद्य शब्द जिनको वह कभी भुला न सके) अतिमाननी भाषा अपने अहंकार, घमण्ड व मान का पोषण करने वाली व दूसरों का तिरस्कार करने वाली भाषा जैसे-मेरा चैका कभी खाली नहीं जाता, मुझ जैसा दानी पूरे नगर में नहीं है, मेरे यहां जैसा आहार कहीं नहीं बनता, मेरे यहां सभी साधुओं का आहार हो गया, तुम जैसों के थोड़े ही हो सकता है इत्यादि अनयकारी भाषा (जो परस्पर में विद्वेष पैदा करने वली ममता, प्रेम, वात्सल्य को तोड़ने वाली हो, छलकपट, धोखाधड़ी से युक्त भाषा जैसे- अरे! उसके बारे में मत पूछो, उसके कुकर्म कह नहीं सकता इसने उसका विशस कर लिया, उस जैसा ठगिया तो कोई है ही नहीं इत्यादि) छेदनकारी भाषा (जो भाषा गुणों का छेदन करने वाली है, कांटे की तरह हृदय में चुभ जाती है वह छेदनकारी भाषा है जैसे-निर्दोष पर दोषारोपंण करना, जैसे महाराज श्री, यह शराब पीता है, यह व्यभिचारी है, इसने होटल पर अभक्ष्य पदार्थ का सेवन किया था इत्यषदि) जीवों का वध करने वाली भाषा (जीवों का वध करने वाली भाषा ीाी प्रयोग नहीं करनाी चाहिए, जैसे-मारो, मर गया, मर जाने दो, इस काट दो, एक थप्पड़ मारूंगा, तुम जानते हो मुझे। अभी तुम्हें देख लूंगा, मर जा यहां से, मर गये। बदमाश कहीं का इत्यादि) उक्त भाषा विवेकी जानों से भूलकर भी प्रयोग नहीं करनी चाहिए। ऐसी भाषा प्रयोग करने से वचन की शुद्धि नहीं कहीं जा सकती तथा मुनिाज ऐसे वचनों को सुनकर अन्तराय भी कर सकेते हैं। अतः विवेक आदर्शवाद दाता को कम से कम बोलना चाहिए वह भक्ति, वात्सल्य, प्रेम, श्रद्धा, समर्पण से सने हुए/मिश्रित मधुर, हितकर आगमानुसार शब्द ही हों अथवा दूसरों को धर्म के प्रति श्रद्धा जाग्रत करने में सक्षम हो ऐसे शब्द ही प्रयोग करना चाहिए।
6 मन शुद्धि - मन में अत्यंत विशुद्ध परिणाम हो, परम आह्लाद की अनुभूति हो, प्रमुदित मन हो एवं धर्म ध्यान से संयुक्त हो, श्रद्धा, समर्पण, भक्ति से मन इतना परिपूर्ण हो कि वह वचन व तन में भी प्रकट दिखायी देवे। मन में आर्तध्यान (इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, वेदना भोगों की आकांक्षा) रौद्र ध्यान (हिंसा में आनन्द मानना, असत्य में आनन्द मानना, चोरी में आनन्द मानना परिगग्रह के संचय में आनन्द मानना) व कषाया-वेश के परिणाम न हो आहार, भय, मैथुल परिग्रह आदि संज्ञाएं जाग्रत न हों मन पंचन्द्रियों के विषयों, वासनाओं से परे रहे, सावद्य युक्त आरम्भ-परिग्रह में भी मन की गति न हो। इस प्रकार की मन शुद्धि युक्त दाता ही उत्तम दाता कहलाता है।
7 धन (द्रव्य) शुद्धि - जिस द्रव्य का उपयोग आहारदि दान में किया जा रहा हो वह धन अन्यायोपार्जित न हो। यदि वह धन अन्याय, अनीति, अत्याचार, जीव वध, करके अण्डे, मांस, शराब, चमड़ा, चर्बी युक्त वस्तुओं के क्रय-विक्रय से कमाया है तो आहारादि दान के योग्य नहीं है। क्योंकि ऐसा धन मात्र (साध्कों) के लिए विशुद्धि कारक नहीं बन सकेगा तथा जो धन बहु हिंसा के व्यापारों से (अतिशबाजी का काम, बन्दूक, तलवार, चाकू, फरसा, जीव-वध के उपकरणों से आटा चक्की, तेल-मिल, हलवाई, रंगरेज, मछुआरे आदिजैसा निकृष्ट काम करने से कमाया है तो वह भी आहारादि दान में देना उचित नहीं है। विवेकी एवं आदर्शवान दाता रिश्वत/घूंस, इन्कमटैक्स, सेलटैक्स, वैक्थटैक्स इत्यादि टैक्सों की चोरी का, दबाव के कारण अधि ब्याज (जो लोक-व्यवहार के भी सर्वथा विरूद्ध है उस) के द्रव्य का भी प्रयोग नहीं करता है।
8 स्वजन परिजन (सूतक पातक) शुद्धि - यदि अपने परिवार में, कुटुम्ब-खानदान में या घर में सूतक-पातक आदि हैं जो वह दाता भी आहाराआदि दान के योग्य नहीं होता तथा उसके परिवार के लोग भी दान देने के योग्य नहीं है। यदि अपने घर की लड़की, जिसकी शादी हो चुकी है तो वह ससुराल के द्रव्य का उपयोग आहारादि दान में कर सकती है, घर का नहीं। जो कुंवारी कन्या है, जिसकी शादी नहीं हुई है उसे भी सूतक-पातक का पूरा ही दोष लगता है अर्थात् उतना ही दोष लगता है जितना उसके भाई को अथवा सहोदर को। रोधर्म की अशुद्धि अवस्था में 6 दिन तक (नियमित है तो, अन्यथा ज्यादा कम भी हो सकता है) आत्म-हत्या आदि के 6 माह तक तथा प्रसूति वाली माँ 50 दिन तक, गर्भवती माँ (जिसके 5 माह से अधिक हो चुके हैं) एवं व्यभिचारिणी स्त्री व व्यभिचारी पुरूष आहारादि दान देने के योग्य नहीं है। सूतक-पातक आदि का विशेष कथन करेगें।