।। अतिचार ।।
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अतिचार किसे कहते हैं?:-

व्रतो मे लगे हुए एक दोष अचिार कहलाते हैं। व्रतो मे दोष लगने की चार अवस्थाए होती हैं-

1 - अतिक्रम

2 - व्यतिवम

3 - अतिचार

4 - अनाचार

अति क्रमादिचारों की परिभाषाएं दृष्टांत-व्रत के पालन से उत्पन्न हुई। उस विशुद्धि का अभाव अतिक्रम है। एक देश व्रतका खण्डन अतिचार है। तीव्र आसक्ति के साथ व्रत का सकल देष्ज्ञ खण्डल (मन-वचन-काय तीनों खण्डन) करना अनाचार है।

उदाहरण -

1 - किसी निकट भव्य मंदकषायी भद्र परिणामी श्रावक ने अतिथि संविभाग व्रत लिया। उस व्रत के पालन से उसके परिणाम उत्यन्त विशुद्ध चाहिए, किन्त ुपरिणाम विशुद्ध न हो कर लगभग उसीप्रकार के परिणाम हुए जैसे सामान्य दशा मे होते हैं। इस प्रकार विशुद्ध का ह्रास हो जाना अतिक्रम हुआ।

2 - अतिथि संविभाग व्रत को धारण किये होने पर भी तद् विषय परिणामो का अशुद्ध हो जाना। संक्लेशित बनाना व्यतिवम है।

3 - अतिथि संविभाग व्रत का यथोचित रीति से पालन न कर पाना बार-बार व्रतो मे दोष लगना जिसे व्रत का एक देश खण्डित होना जैसे - मात्सर्य करना, अतिथि संविभाग व्रत को भंग करने का विचार कर लेना, स्वयं न करके दूसरो को व्रतपालन कराना इत्यादि अतिचार है।

4 - अतिथि संविभाग ब्रत को श्रद्धा व आचरण दोनो से छोड ़कर असद् प्रवत्ति मे संलग्न हो जाना व्रत का अनाचार है अर्थात व्रत सम्पूर्ण रूप् से ही खण्डित कर दिया।

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अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार-दान (अतिथि संविभाव व्रत) के 5 अतिचार है आचार्य उमास्वामी आदि आचार्यों ने कहे है जो इस प्रकार हैंः

1 - सचित्त निक्षेप-हरे पत्तो (सचित पत्तो जैसे केले या कमल के पत्तों पर) आहारादि सामग्री को रखना भी अतिचार है। वर्तमान मे पत्तो का प्रयोग बर्तनों के रूप् मे नही होता। संभव है; आज से 2000 वर्ष पहले होता हो। वर्तमान पेक्षा कच्चे/सचित पानी से धोए हुए बर्तनो में शुद्ध प्रासुक, मर्यादित पानी या भोजन का उसमें रख देना ‘सचित्त निक्षेप’ नामक अतिचार है।

2 - सचित्ता पिधन-हरित पत्तो से भोजन सामग्री ढक देना सचित्तापिधन नामका दोष है। वर्तमाना पेक्ष कच्चे पानी/अप्रासुक पानी से बर्तनो को धोकर उसे भोजन पर ढक देना ‘‘सचित्तापिधन’ नामक अतिचार है।

3 - परव्यप् देश-दूसरे दाता की वस्तु स्वय देना अथवा अपनी वस्तु दूसरो से दिलवाना परव्यपदेश नामका अतिचार है। परव्यपदेश अतिचार से दूषित दान देने वाला दाता कालान्तर मे उसका फल प्राप्त तो करता है किन्तु भोक्ता नहीं होना। अतः दानआदि स्वयं ही अपने न्यायोपार्जित द्रव्य से करना चाहिए।

4 - मात्सर्य-दानादि उत्तम कार्य हुए भी पात्रादि के गुणो मे अनुराग या आदर का अभाव होना अथवा दूसरे दाता के गुणों की वृद्धि, यश, आदि को देखकर सहन नही कर पाना मात्सर्य नामक रअचिार है। मात्सर्य भाव होने से मन की शुद्धि नही रह पाती, कालान्तर मे वचन, काय, व अहार जल की आगमोक्त पूर्ण शुद्धि नही रह पाती, अतः दाता को मात्सर्य भाव से रहित होना चाहिए।

5 - कालाति क्रम-सूर्योदय की तीन घड़ी (72 मिनट) बाद से, सूर्यास्त के तीन घड़ी पर्वू तक ही साधुओ का आहारचर्या काल है। इस काल का उल्लंघन करके आहार देना अथवा देरी से धीरे-धीरे आहार देना जैसे-एक ग्रास दे दिया पुनः कुछ समय नही दिया अंजुलि खाली है तो मुनिराज अधिक से अधिक एक कार्योंत्सर्ग प्रमाणकाल तक खड़े रह सकते हैं, अधिक विलम्ब होने पर अंतराय कर सकते है। अतः विलम्बता से या अति शीघ्रता से आहार न दें।