।। दोष ।।

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उद्गम दोष - आहार के बनाने में श्रावक के माध्यम से जो दोष लगते हैं वे उद्गम दोष हैं जो आहार के उद्गम स्थान पर उद्गम के समय में होते हैं। इन उद्गम दोषों के 16 भेद हैं जो इस प्रकार हैं:

1 औद्देशिक दोष - साधु को उद्देश्य करके भोजन बनाना औद्देशिक दोष है। मैं अमुक साधु को ही आहार दूंगा। इत्यादि संकल्प पूर्वक बनाया गया भोजन औद्देशिक दोष से दूषित है अतः सुधी श्रावक को चाहिए कि वह अपने निमित्त भोजन बनाये, पात्र दान की भावना रखे। सभी श्रावकों को इस दोष से बचना चाहिए।

2 अध्यधि दोष - संयमी साधु को आता देख उनको आहार देने के लिए अपने निमित्त चूल्हे पर रख ेजल और चावलों में और जल-चावल मिलाकर पुनः पकाना अथवा जब तक आहार तैयार न हो जाए तब तक धर्म प्रश्न के बहाने उन्हें चर्चाओं में लगाये रहना यह अधयधि नामक दोष है। ऐसा करके श्रावक को मायाचारी नहीं करना चाहिए। उसे अपनी वृत्ति निश्छल रखनी चाहिए।

3 पूति दोष - प्रासुक आहारादि वस्तु सचित्त आदि वस्तु से मिश्रित हो तो वह पूति दोष कहलाता है। प्रासुक द्रव्य भी पूति कर्म से मिलाा हुआ पूति कर्म दोष कहलाता है। पूति कर्म दोष का नाम आरम्भ दोष भी है। इसके 5 भेद है -

1 - चूल्हा

2 - ओखली

3 - कड़छी

4 - आहार बनाने के बर्तन

5 - गंध युक्त आहारादि की द्रव्रू

इन पांचों में संकल्प करना कि इन चूल्हे आदि से बना भोजन जब तक साधु को नहीं दे देंगे, तब तक न किसी को आहार देंगे, न स्वयं उपयोग करेंगे। ये दोष भी पूति दोष में ही गर्भित हैं।

4 दृमिश्र दोष - प्रासुक शुद्ध, मर्यादित तैयार किया गया भोजन (आहार) अन्य भेषधरियों के साथ तथा गृहस्थों के साथ यंयमी साधुओं को देने का उद्देय करे तो मिश्र दोष जानना चहिए। इस दोष से भी दाता को बचना चाहिए।

5 स्थापित दोष - जिस बर्तन में (कढ़ाही, भगौना, भगौनी, डगची, तवेला आदि) में भोजन (दाल, चावल, कडी, खिचड़ी, हलवा आदि) पकाया हो,उससे दूसरे बर्तन में पके हुए भोजन को रखकर अपने घर में अन्यत्र या दूसरे के घर में ले जाकर उस अन्न से बनी वस्तुओं को वहां स्थापित कर दें, (रख दे), तो वह स्थापित नामक दोष होता है। श्रावक को ऐसा नहीं करना चाहिए।

6 बलि दोष - यक्ष, नागादि या अन्य देवी-देवताओं के लिए जो (बलि -पूजा) पूजन से बचा हुआ नैवेद्य है, वह बलि दोष से दूषित है अथवा संयमी साधकों के आगमन के लिए जो बलि कर्म (सावद्य पूजन आदि) करें तो वहां भी बलि दोष जानना। बलि का अर्थ है नैवेद्य अर्थात् पूजा का बचा हुआ नैवेद्य (पूड़ी, पकवान, लड्डू, पेड़ा, बर्फी, खाजा, पपड़ी इत्यादि भोज्य पदार्थ) साधु को आहार में दे देना बलि दोष है यद्यपि यह दोष वर्तमान काल में देखने में कम आता है। सम्भवतः पहले ये दोष रहा हो।

7 प्रभृत दोष - प्राभृत दोष का अर्थ है - काल का परिवर्तन अर्थात् आहार देने से पहले सोचा था कि आहारदान अमुक वर्ष, महीना, वार, तिथि में देंगे। ऐसा संकल्प करके पनुः उसमें परिवर्तन कर लेना प्राभृतनाम दोष है। इस दोष के 2 भेद हैं-

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1. बादर प्राभृत दोष , 2. सूक्ष्म प्राभृत दोष

1. उपकर्षण , 1. अपकर्षण

2. उत्कर्षण , 2. उत्कर्षण

अपकर्षण - काल की हानि का नाम अपकर्षण है।

उत्कर्षण - काल की वृद्धि का नाम उत्कर्षण है।

1. अपकर्षण बादन प्राभृ दोष - वर्ष, महीना, पक्षादि में कमी कर देना अपकर्षण बादर प्राभृत दोष है।

2. उत्कर्षण बादन प्रभृत दोष - विवक्षित वर्ष, महीन, पक्ष, तिथि में वृद्धि कर देना उत्कर्षण बादर प्राभृत नामक दोष है।

1. अपकर्षण सूक्ष्म प्राभृत दोष - उपरान्ह व मध्यान्ह से समय घटाकर प्रातःकाल आहार देना अपकर्षण सूक्ष्म प्राभृत दोष है।

2. उत्कर्षण सूक्ष्म प्राभृत दोष - पूर्वान्ह काल का विचार कर मध्यान्ह या उपरान्ह में आहार देना उत्कर्षण सूक्ष्म प्राभृत दोष है।

इन दोषों में से उत्तम दाता को बचना चाहिए।

8 प्रादुष्कर दोष - इस दोष के भी 2 भेद हैं -

1. संक्रमण - आहार चर्या करते हुए साधु के चैके में आ जाने पर बर्तन या भोजन सामग्री को यहां से वहां, वहां से यहां निष्प्रयोजन परिवर्तित करना संक्रमण प्रादुष्कर दोष है।

2. प्रकाशन - साधु के चैके या गृह में आ जाने पर दीपक जलाना, बर्तन मांजना, चैके की सफाई करना, पोंछा लगाना, किवाड़ खोलना, खिड़की खोलना, मण्डप हटाकर प्रकाश करना इत्यादि प्रकाशन प्रादुष्कर दोष है। इस प्रकार के दोष कभी आदर्शमय दाता से नहीं लग पाते है।

9 क्रीत दोष - क्रीत दोष का अर्थ है - क्रय करना या खरीदना। इस क्रीत दोष के 2 भेद हैं-

1. द्रव्य क्रीत दोष , 2. भाव क्रीत दोष

1. स्वद्रव्य क्रीत दोष , 2 स्व भा क्रीत दोष

1. परद्रव्य क्रीत दोष , 2 पर भाव क्रीत दोष

साधु के आहारार्थ आ जानेपर किसी वस्तु का क्रय करके आहार देना क्रीत दोष है।

स्वकीय द्रव्य क्रीत दोष का अर्थ है, अपनी गाय, भौंस, बकरी, बैल, धन-धन्य बेचकर आहार सामग्री खरीद कर लाना।

परकीय द्रव्य क्रीत दोष का अर्थ है दूसरे के रखे हुए (अपने पास दूसरे की गिरवी आदि रखे हुए) घोड़ा, बैल, गाय, भैंस आदि को बेचकर आहार देना।

स्वकीय प्रज्ञप्ति आदि विद्या एवं चेटकादि मंत्रों को किसी दूसरे को देकर, प्राप्त हुए द्रव्य से आहार का सामान खरीद कर पुनः आहार देना स्वभाव क्रीत दोष है।

दूसरे की प्रज्ञप्ति आदि विद्या एवं चेटकादि मंत्रों को किसी अन्य व्यक्ति को देकर उससे प्राप्त द्रव्य से आहार का सामान खरीद कर पुनः साधु को आहार देना परभाव क्रीत नामक दोष है। वर्तमान में ये दोष प्रायः देखने में नहीं आता, फिरभी यदि कोई व्यक्ति इन दोषों को लगाते हों तो वे दाता ध्यान रखें उन्हें ऐसे दोष भी नहीं लगाना चाहिए। यथालब्ध आहार दे देना चाहिए। इस प्रकार के दोष लगाकर दिया गया आहार संक्लेशता का कारण भी बन सकता है।

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