।। दोष ।।

10 प्रमृष्य दोष - साधुओं को आहार कराने के लिए दूसरे दाताओं से (चैके वालों से) भात, दाल रोटी आदि भोज्य पदार्थ/खाद्य सामग्री उधर लाकर देना प्रामृष्य नाम दोष है। इसके भी 2 भेद हैं -

1. संवृद्धिक - जितना कर्ज लिया था। उससे अधिक बाद में वापिस करना पड़े, यह संवृद्धिक दोष है।

2. अवृद्धिक - जितना कर्ज लिया था, उतना ही वापिस करना अवृद्धिक प्रामृष्य दोष है। उत्तम दाता को इन दोषों से अवश्य ही बचना चाहिए।

jain temple210

11 परिवर्तन दोष - साधुओं को आहार देने के लिए अपनी घटिया साठी के चावल, घटिया गेहूं, दाल, बूरा, गुड़, दूध, सब्जियां आदि देकर अच्छे बासमती चावल, अच्छे गेहूं, ज्वार, चना, बाजार, दाल, दूध, बूरा, तेल घी, दही, फल-सब्जियां आदि लेना परिवर्तन नाम का दोष है। उत्तम दाता को ऐसे दोषों से बचने का पुरूषार्थ करना चाहिए।

12 अभिघट दोष - अभिघट दोष के 2 भेद हैं -

1. एक देशाभिघट , 1. सर्वदेशाभिघट

2. आचिन्न देशाभिघट , 2. अनचिन्न देशाभिघट

योग्य वस्तु को आच्चिन एवं अयोग्य वस्तु को अनाचिन्न कहते हैं।

आचिन्न - सरल पंक्ति से तीन या सात घरों से आई हुई आहार-सामग्री (दाल, भात, रोटी आदि आहार) है तो वह आचिन्न है ग्रहण करने के योग्य है, उसमें कोई दोष नहीं है। किन्तु अनाचिन्न-उन घरों के विपरीत क्रम या तीन या सात घरों के अतिरिक्त से आई हुई आहार-सामग्री (दाल, भात, रोटी, दलिया, कढ़ी, खिचड़ी आदि) अनाचिन्न है अर्थात् ग्रहण करने के अयोग्य है, क्योंकि यत्र-तत्र स्थित घरोंसे आये हुए भोजन में दोष देखा जाता है, क्षेत्र शुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि आदि नहीं बन पाती।

2. सर्वदेशाभिघट - स्व ग्राम पर ग्राम, स्वदेश, परदेश की अपेक्षा से सर्वदेशाभिघट 4 प्रकार का है-

पूर्व व उपर मोहल्ले से वस्तु का लाना प्रथम अभिघट है। पूर्व अर्थात् एक गली या मोहल्ले से दूसरे गली या मोहल्ले में भात आदि को ले जाकर मुनि को देना या दूसरे किसी अन्य मोहल्ले से लाकर स्वग्राम में देना, स्वदेश से स्वग्रम में लाकर देना परदेश से स्वग्राम या स्वदेश में लाकर देना, इस प्रकारसर्वाभघट - दोष के ये 4 प्रकार होते हैं। इसमें प्रचुर मात्रा में ईर्यापथ शुद्धि का पालन नहीं कर सकेंगे। अतः स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश, परदेश्ज्ञ से लाया हुआ आहार (दाल, भात, रोटी, कढ़ी, खिचड़ी दलिया इत्यादि) साधु जनों के लिए अग्राहय है। यद्यपि दूध, फल, सूखे मेवा, आदि पदार्थों को लाकर देने में कोई दोष नहीं है, फिर भी श्रावक को स्व विवेक से कार्य करना चाहिए एवं बचना चाहिए।

13 उद्भिन्न दोष - जो ढ़क्कर आदि से ढ़की हुई है अथवा जिस पर लाख या चपड़ी लगी हुई है, जो नाम या विम्व आदिसे मुद्रित है अर्थात् जिसपर सील-मुहर लगी हुई है, ईर्यापथ दोष देखा जाता है। दूसर से आने पर श्रावक जण ऐसे बर्तयन में रखी हुई कोई भी वस्तु, औषधि, घी, बूरा, गुड़, खांड, लड्डु, नमकीन, मिष्ठान, पकवान मावा, दाल, सब्जी, हलुआ, इत्यादि उसी समय बर्तन खोलकर देना उद्भिन्न दोष है। क्योंकि उसमें चींटी आदि का प्रवेश हो सकता है, उन्हें बाध पहुंच सकती है, जीव वध की संीाावना रहती है। अतः कार्य साधु के आने के पूर्व ही कर लेना चाहिए।

14 मालारोहण दोष- नसैनी, काठ की सीढ़ी, पत्थर आदिपर पैर रखकर या उंगली के बल खड़े होकर, उचक कर घर के ऊपरी भाग में रखे हुए पदार्थ (घ्ज्ञी, दूा, पुआ, लड्डू आदि मिष्ठान्न, मेवादि) उसी समय निकालना जब (साधु चैके में प्रवेश कर चुके हों) मालारोहण नामक दोष है। इसमें दाता के गिरने का भय दिखाई देता है। अतः उक्त कार्य उसे पूर्व में ही कर लेना चाहिए।

15 आच्छेद्य दोष - संयतों को आहार चर्या हेतु आते देखकर राजा, चोर या मुखिया (घर का प्रमुख सदस्य) के द्वारा कुटुम्बियों को ऐसा कहे जाने पर कि यदि तुम संयतों को आहार नहीं दोगे तो तुम्हारे धन को लूट लिया जाएगा, द्रव्य का अपहरण कर लिया जाएगा अथवा ग्राम/घर से बाहर निकाल दिया जाएगा, इस प्रकार राजा, चोर, मुखिया के भय से दिय गया आहारादि दान आच्छेद्य दोष वाला होता है। अतः आहारादि दान किसी के भय से नहीं स्वयं की इच्छा से देना चाहिए। जिससे कोई दोष न लगे। सातिशय पुण्य का आश्रय, पाप कर्मों का संवर व निर्जरा हो।

16 अनीशार्थ दोष - अनीश बराबर अप्रधन, अर्थ बराबर कारण अर्थात जिस ओदनादि भोज्य का अप्रधन कारण है, वह अनीशार्थ दोष है। अथवा जिस भोजनादि द्रव्य का दाता स्वयं उसका स्वामी नहीं है वह भी अनीश कहलाता है। अनीशार्थ दोष के 2 भेद हैं -

1 ईश्वर - ईश्वर अनीशार्थ दोष को सारक्ष दोष भी कहते हैं जो आरक्षों के साथ रहे वह सारक्ष है। वह (दाता) यद्यपि दान देना चाहता है किन्तु नहीं दे पाता है। अन्य लोग विघाात कर देते हैं। जैसे-राजा देनाचाहे, किन्तु मंत्री, पुरोहित आदि विघ्न पैदा करें। ऐसा आहारादि दान ईश्वर अनीशार्थ दोष से दूषित कहलाता है।

2 अनीश्वर - जिस दान का अप्रधन पुरूष हेतु होता है वह दान अनीश्वर अनीशार्थ है। यहां कारण के कार्य का उपचार किया जाता है। यह अनीश्वर अनीशार्थ तीन प्रकार का है-

1. व्यक्त

2. अव्यक्त

3. 3. संघाटक

1 व्यक्त अनीश्वर - दानादि द्रव्य का स्वामी नहीं होता है, किन्तु बुद्धि पूर्वक आहारादि का दाता व्यक्त अनीश्वर कहलाता है।

2 अव्यक्त - बालक, अज्ञानी आहारादि का दाता अव्यक्त कहलाता है। मुनिराज इस प्रकार के दाता के आहार लें तो वह अनीश्वर अव्यक्त दोष कहलाता है।

3 संघाटक - संघाटक अर्थात् व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर द्वारा दिया गया आहार यदि मुनिराज लेते हैं तो उनके व्यक्ताव्यक्त संघाटक अनीश्व रनाम अनीशार्थ दोष होता है क्योंकि इसमें अपाय देखा जाता है अथवा ईश्वर (स्वामी) व्यक्त हो अव्यक्त उसके द्वारा निषेध कर दिया गया है फिर भी साधु को दाता ने दान दिया है वह दान व्यक्ताव्यक्त ईष्वर नाम अनीशार्थ दोष से दूषित कहलाता है।

ईश्वर के $ 1. निसृष्ट 2. अनिसृष्टि तथा

अनीश्वर $ 1. निसृष्ट 2. अनिसृष्ट

इस प्रकार चार भेद होते हैं।

अन्य प्रकार से ईश्वर के 1. सारक्ष , 2. व्यक्त , 3. अव्यक्त , 4. संघाटक चार भेद हैं

अनीश्वर के भी 1. सारक्ष 2. व्यक्त 3. अव्यक्त 4. संघाटक के भेद से चार प्रकार के भेद माने गये हैं।

मंत्रदि युक्त स्वामी को - सारक्ष

बालक - अज्ञानी स्वामी को - अव्यक्त

बुद्धिमान स्वामी को - व्यक्त

अव्यक्त रूप पुरूष को - व्यक्त

2
1