दाता के 21 गुण (जो कि विशेष गुण हैं) वे इस प्रकार हैं -
1 धर्मानुरागी , 1 लज्जावंत
2 पाप भीरू , 2 दयावंत
3 धैर्यवान , 3 प्रसन्नता
4 शीलवान , 4 प्रतीतिवंत
5 लज्जावान , 5 परदोषाच्छादन
6 संकल्प का धनी , 6 परोपकारी
7 लोक प्रिय , 7 सौम्यदृष्टि
8 कृतज्ञ , 8 गुणग्राही
9 त्याग शील , 9 दीर्घ विचारी
10 सत्यवादी , 10 दानवंत
11 संवेगी , 11 शीलवंत
12 वैरागी , 12 कृतज्ञता
13 वात्सल्य से परिपूर्ण हृदय , 13 तत्वज्ञ
14 धर्म प्रभावनेच्छुक , 14 धर्मंज्ञ
15 स्वपर कल्याणर्थी , 15 मिथ्यात्वरहित
16 सद्बोध धरक , 16 संतोषवंत
17 संयमोन्मुख , 17 स्याद्वाद भाषी
18 संतोषी , 18 मिष्ठभाषी
19 उदार हृदय , 19 अभक्ष्य त्यागी
20 सहीशील सरल हृदय , 20 षट्कर्म प्रवीण
21 दयालु , 21 दूरदर्शित
इन गुणों की संक्षेप में वर्णन
1 धर्मानुरागी-अहिंसा प्रधान, प्राणी मात्र का कल्याण करने में समर्थ, विश्व में श्रेष्ठ, जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित, जैन धर्म (सनातन धर्म) में श्रद्धा के साथ अनुराग/प्रीति करना धर्मांनुरागी नाम का गुण है।
2 पाप भीरू-संसार वर्धक दुखों के हेतु, पापों से भयभीत रहने वाला दाता उत्तम दाता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इत्यादि पापों से भयभीत अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, रत्नत्रय आदि में दृढ़ प्रतिवान/आसक्तवान दाता उत्तम गुणों से संयुक्त होता है।
3 धैर्यवान-उत्कृष्ट दाता वही है जो आकस्मिक उत्पन्न हुुई किन्हीं भी प्रतिकूलताओें अथवा अनुकूलताओं को प्राप्त करके अधरी न हो। सत्य की रक्षा के लिए या किये गये कार्य का परिणाम देखने हेतु धैर्य धारण करे, क्यों कि अच्छे कार्य का फल अच्छा एवं बुरे कार्य का फल बुरा ही मिलता है, ऐसा विश्वास सदैव हृदय में धरण करें।
4 शीलवान-दाता की शीलवान होना चाहिए। स्वकीय पत्नी को छोड़कर शेष स्त्रियों को माता, बहित या पुत्रीवत् माने। (समवय वाली स्त्रियों को भगिनीवत्, अपनी उम्र से अधिक उम्र वाली स्त्रियों को माँ के समान एवं कम उम्र वाली स्त्रियों को दुहिता के समान मानने वाला हो।) अथवा गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत का अभ्यासी हो। स्त्रियों के लिए भी समान वय वालों को सहोदर के समान, अधिक वय वालों को जनक/पिता के समान, एवं कम वय वालों को सुपुत्र समान ही मानना चाहिए।
5 लज्जावान-दाता को शम्र नहीं लज्जावान/मान मर्यादा की रक्षा करने वाला होना चाहिए। अपनी प्रशंसा सुनने में संकोची तथा दूसरों के ारा निजार्थ उपकार से कृतज्ञ लज्जाशील होना चाहिए।
6 संकल्प का धनी-उत्तम दाता के संकल्प का धनी होना चाहिए। संकल्प की दृढत्रता से सफलता की अवश्य ही प्राप्त होती है। जिसके संकल्प क्षण-क्षण मं बदलते रहते हैं ऐसे दाता जीवन में प्रायः असफल ही रहते हैं। धर्म कार्य में लिया गया कोई भी संकल्प, व्रत, पूजा, दान, शीघ्र पूर्ण कर लें। नियम तोड़े नहीं भलें प्राण चले जाएं। दान बोलकर उसे शीघ्र चुका देना चाहिए। उसे अपने घर में न रखें, अन्यथा निर्माल्य सेवन के समान दोष लगता है। यद्यपि आगम में बोली लगाने की परम्परा नहीं तुरंत दान देने का ही विधान है, फिर भी कहीं आपने दान बोला है तो उसे तुरंत ही दे दें अन्यथा निर्माल्य सेवन का पाप लगेगा जो नकर गति का कारण भी हो सकता है।
7 लोकप्रिय-उत्तम दाता सभी का प्रेम पात्र होता है। सभी का प्रेम पात्रा वही होता है जो उचित व्यवहारावान, स्वच्छ हृदय वात्सल्य, परोपकारी, निरभिमानी, धर्मार्थी, साधर्मी के प्रति वात्सल्य से युक्त हो। जो दाता लोक निंद्य होता है उसे उत्तम दाता नहीं कहा जा सकता है।
8 कृतश्र-उपकारी के उपकार को न भूलने वाले व्यक्ति कृतज्ञ कहलाते हैं, जो उपकारी के उपकार को भूल जाते हैं वे कृतघन होते हैं। उत्तम दाता वही है जो दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये गये लघु उपकार को भी सदैव याद रखे एवं स्वयं के द्वारा दूसरों के लिए किये गये बड़े से बड़े उपकार को भी भूल जाए। दूसरों े द्वारा अपने लिए किये गये उपकार का बदला भी सदैव उपकार रूप में चुकाने के लिए तत्पर रहे। यदि सक्षम न हो तो भी उपकार की ही भावना भानी चाहिए।
9 त्यागशील-उत्तम दाता का त्याग सामािियक गुण होना चाहिए। सदैव त्याग के कार्यों में अग्रसर रहे, गुणों के प्रति आसक्त, दोषें के प्रति त्यागशील, धर्म कार्यों के लिए अपना न्यायोपार्जित धन, तन, मन सब कुछ त्याग करने में अग्रणी रहें।
10 सत्यवादी-उत्तम दाता वही है जो सत्य का पोषक, असत्य का खण्डन करने वाला हो, उसे सत्य के लिए कितना भी संघर्षों का सामना करना पड़े किन्तु वह सत्य का ही पक्ष ले। क्योंकि सत्य, शाश्वत एवं नित्य है और शाश्वत अवस्था को प्रदान करने वाला है। असत्य क्षण भर के लिए सुखाभास का कारण हो सकता है किन्तु कालान्तर में चिरकाल तक दुर्दान्त दुःख देने वाला है। सत्यवादी दाता ही सबका विश्वासपात्र हो सकता है।
11 संवेदवान-धम्र, धर्मात्मा, धर्म के फलों को देखकर हर्षित होना संवेग भावना है, उत्तम दाता वही है जो धर्म को पाकर या दूसरों को धर्म करते देखकर प्रसन्न हो जाए, धर्म के फल को प्राप्त करता हुआ देखकर आनन्द को प्राप्त हो, धार्मिक कार्यों में भाग लेने पर उसे हार्दिक आह्लाद की प्राप्ति हो, आज कुछके लोग धर्म, धर्मात्मा या धर्म के प्रति मात्सर्य, घृणा, द्वेष आदिभावों से भर जाते हैं, यह उत्तम दाता े लिए सर्वथा अनुचित है।
12 वैरागी (वैराग्यवान) - संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होना ही वैराग्य है। संसार के स्वभाव को यथार्थ जानने वलाकि ‘‘संसार दुःखमय है, असार है, स्वार्थों से परिपूर्ण है। शरीर रोगों की खन है, क्षणध्वंसी है, पोषण करने पर भी दुःखों को देने वाला है, अपवित्र है। भोग पाप बन्ध के हेतु हैं, संसार कूप में डूबाने वाले है मन मोहक इन्द्रायण फल के समान हैं जो दूर से ही अच्छे लगते हैं किंतु विपाक के समय हलाहल जहर के सामन दुःखद हैं’’ ऐसा सोच कर उत्तम दाता संसार, शरीर, भोगों से परम विरक्त होकर ही रहता है।