सप्तव्यसन- व्यसन का अर्थ है - आदत। किन्तु वर्तमान मे व्यसन शब्द बुरी आदतों के लिए प्रसिद्ध हो चुका है। व्यसन शब्दवि$असन से निर्मित हुआ है। ‘‘वि’’ का अर्थ है-विकृत, विकृति पैदा करने वाला, विपरीतता का जनक। ‘‘असन’’ शब्द का अर्थ है आहार। अथवा महा पापों की कारण भूत, लोक व्यवहार के प्रतिकूल, धर्माचरण व सुसंस्कारों की विध्वंसक, आगम,, लोक-व्यवहार व धर्म के विरूद्ध निंदनीय बुरी आदतो को ही व्यसन कहते हैं। ये सप्त व्यसन मानो नरक के जाने से सात द्वार ही है जो इन व्यसनो मे आसक्त हुआ वह नरको मे पहुंच गया। जिसने इन व्यसनो का त्याग कर दिया है। वे पुरूष ही वास्तव मे पुरूष कहलाने के योग्य हैं। वे ही आत्महित एवं परहित करने मे समर्थ हो पाते हैं। वे सप्तव्यसन निम्नांकित है-
1 जुआ खेलना - पैसों की बाजी लगाकर जितने भी हार-जीत के खेल खेले जाते हैं, वे सब जुआ कहलाते हैं। सामान्यता यह नोरंजन के लिए ताश पत्तो से खेलना जुआ नही है किन्तु पैसो की बाजी लगा कर खेलना जुआ है। शर्त लगाना भी जुआ कहलाता है।
इस व्यसन मे कुख्यात ‘युधिष्ठर’ नामक पाण्डुपुत्र पुरूष होते हुए भी तत्काल मे निंदा व दुखो को प्राप्त हुए।
2 मांस खाना - दो इन्द्रिय से लेकर संज्ञी पचेंन्द्रिय व जितने भी औदारिक शरीर धरी जीव हैं उनके शरीर/मृतक लेवर को मांस कहां जाता है। अंडा भी मांस का ही एक भेद है। मांस खाने वाला निःसन्देह दयाहीन, निर्दयी, अधम एव पापी कहलाता है। उसके मन मे कभी पवित्र विचारो का जन्म नही होता। मांसाहारी दुर्गति का ही पात्र होता है। इस व्यसन में-
‘‘बल नामक राजा कुख्यात हुआ।’’
मांसाहरियों के दुःखद जीवन व दुर्गतियो का वर्णन ‘प्रथमानुयोग’ के अनेकों शास्त्रो मे दिया गया है।
3 मद्यपान - मद्य शराब को कहते हैं। यह सड़े-गले फलो से, अनाज से, महुवा, गुड़ आदि से बनायी जाती है। इसमे असंख्यात जीव राशि का निचोड़ा हुआ रस है। यह बुद्धि को नष्ट कर के मदोन्मत कर देती है। मद्यपायी व्यक्ति विवेक शून्य हो कर पापो मे और अधिक प्रवृत्ति करता है। उसका तन, धन नष्ट हो जाता है। मन भी अपावन हो जाता है। अतः चेतना को पुनः अधेगति की यात्रा करनी पड़ती है। मद्यपायी के हृदय दया शून्रू, धर्म शून्य विवेक शून्य, सुख शांति से रहित नारकीयों के समान ही होते हैं।
‘‘इस व्यसन में यदुवंशी कुमार’, जिन्होंने द्वीप यनमुनि पर घोर उपसर्ग किया था, प्रसिद्ध हुए।’’
4 वेश्या सेवन - बाजारू स्त्रिया जो धन के लोभ मे आकर अपने शील को बेच देती हैं, ऐसी दैहिक व्यापार करने वाली व्यभिचारिणी स्त्रियां वेश्याएं कहलाती हैं। इनके साथ सम्बंध रखना ‘वेश्या सेवन व्यसन’ है। वे पुरूष महापापी है जो अपने कुल मे दाग लगाकर, धन गंवाकर धर्म भ्रष्ट हो, दुःखो को आमंत्रित करने हेतु इनसे सम्पर्क रखते हैं। उनका इस लोक मे तो अपयश होता ही है, परलोक मे भी उन्हें नरको के दारूण दुःखो को सहन करना पड़ता है।
5 शिकार - मनोरंजन करने में, खेल-खेल में, शौक की पूर्ति मे निःसहाय मूक पशुओं की जान ले लेना ‘शिकार’ नामक व्यसन है। दूसरो को दुःख देकर उनके प्राणो का हरण कर कोई सुखी नही हो सकता। शिकार बुद्धि पूर्वक/संकल्प पूर्वक की गई महाहिंसा है। हिंसा दुःखों की जननी है, महापाप है। सभी धर्मों मे इसका निषेध बताया है। जो शिकार करता है, कराता है, या करने वाले की अनुमोदना करता है, निःसन्देह वह महापापी है। दुर्गति का पात्र है। (मूक व असहाय) पशुओं की संतान पर जुल्म ढाहना मानव का कार्य नहीं, दानवो का ही कु कर्म हो सकता है। वर्तमान मे भी अपने शौक की पूर्ति एव सौन्दर्य के लिए अनेक मूक पशुओ का वध हो रहा है। यह सामूहिक शिकार है। पहले एक व्यक्ति किसी एक पशुका वध करता था किन्तु आज कत्लखानों के माध्यम से सामूहिक शिकार हो रहा है। जो व्यक्ति पशुवध से निर्मित वस्तुओं के उपयोग मे संलग्न हैं, वे भी निःसन्देह शिकारी वत् ही हैं। जैसे-चमड़े की वस्तुओ का प्रयोग, चर्बी युक्त क्रीम, रक्त मिश्रित नख पाॅलिस व लिपिस्टिक का प्रयोग, रेशम की साड़ी आदि का प्रयोग, हाथी दांत के आभूषण, सेन्ट इत्यादि।
‘‘इस व्यसन में ‘ब्रहम दत्त चक्रवर्ती-कुख्यात हुआ।’’
6 चोरी - वस्तु के मालिक की अनुमति के बिना किसी की पड़ी हुई, भूली हुई, रखी हुई, दी हुई या छिपकर के वस्तु को ग्रहण करलेना चोरी है। अपनी वस्तु का ही सदुपयोग करें। दूसरे की वस्तु की आवश्यकता यदि है तो मांग करके लें, चोरी से नहीं। चोरी करने वाले व्यक्ति पर भवमें नारकी, ऊंट, गध, बैल, खच्चर, भैंसा आदि बनते है जो कि उसकी सवारी के काम आकर उसका (जिसकी चोरी की थी) धन चुकाते हैं। चोरो का कोई विश्वास नही करता सभी उनसे दूर रहना चाहते हैं। चोरो की प्रतिष्ठा, मान-सम्मान सभी नष्ट हो जाते हैं। बड़े-बड़े महापुरूषों के भी इस पाप से अधेनेत्र हो जाते हैं। उनकी चोरी का भेद खुलने पर उन्हे बहत दुःख होता है। पुनः वे दीर्घ काल तक पश्चाताप व खेद के साथआर्त-रौद्र ध्यान के साथ मर कर दुर्गति के पात्र होते हैं।
‘‘इस व्यसन मे जटा-जूटधरी तपस्वी एवं अंजन चोर कुख्यात हुआ था।’’
7 परस्त्री सेनव - धर्मनीति, लोक नीति सामाजिक नियामनुसार, आगमोक्त विधि सेपरणायी गई विवाह की हुई स्वकीय परिणीता स्त्री को (स्त्रियों के लिए पुरूषों को) छोड़ कर शेष स्त्रियो से सम्बंध रखना, उनके प्रति बुरे विचार रखना, उनके साथ गलत चेष्टाएं करना पर स्त्री नाम का व्यसन है। इस व्यसन को करने वाला व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, जनसामान्रू की दृष्टि मे भी निंदा का पात्र बन जाता है। जीवन भर की इज्जत, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान क्षणभर मे धुल जाते है चेहरे पर अमित कलंक का टीका लग जाता है। पुनः ऐसा व्यक्ति जीवन को अतिसंक्लेशता व दुःखों के साथ व्यतीत करता है। पर भव मे नरकों के दारूण दुःखो को दीर्घ काल पर्यन्त सहन करता है। क्षणभर के असद् विचर, असद् चेष्टा, क्रिया का परिणाम अनेको भवो को कलंकित व दुखो से पूर्ण बना देना है। विज्ञ पुरूष इनसे बचने का एवं ऐसे पुरूषो का संगति का भी त्याग करदेते हैं। अतः पुरूषो को कितना भी समझाओ बार-बार ऐसी ही गलतियां करते रहते है जो कि उनके लिए दीर्घ काल तक दुःख व पश्चाताप का ही कारण होती हैं।
‘‘इस व्यसन में ‘रावण’ आदिपुरूष कुख्यात हुए। इन सप्तव्यसनो का त्याग करने वाला श्रावक ही आहारादि दान देने के योग्य है। सप्त-व्यसनी नहीं।
(इन सप्त-व्यसनो का विस्तार से कथन, तर्क युक्त एव आगामिक कथाओ, लौकि दृष्टान्त सहित लेखक की ‘‘सप्तअभिशाप’’ कृति मे देखें।)