।। दाता के गुन ।।

दाताः. न्यायोपार्जित धन के माध्यम से सतृपात्रों को स्वपर कल्याण की दृष्टि से दाता के योग्य भी गुणाों से युक्त 7 ;सातद्ध गुण जमा 5 भूषण जमा 21 विशेष गुण जमा विशेष अर्हताओंध्योग्यताओं से युक्त एवं दूषणादि से रहित होकर श्रद्धा भक्ति पूर्वक देय वस्तु को धर्म वृद्धि हेतु देने वाला योग्य पुरूष ही दाता होता है।

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दाता के सामान्यतया तीन भेद हैं

1 उत्तम दाता . दाता के सम्पूर्ण गुणों से युक्त्ए अणुव्रत एवं शील.व्रतों से सुशोभितए दूषणों वे अतिचारों से रहितए दान देने के समय याद रखनेयोग्य बातों का ज्ञाताए स्थिर चित्त वाला अत्यंत भद्र परिणामों से युक्तए प्रसन्न हृदय एवं उदारमना श्रावक उत्त्म दाता होता है।

2 मध्यम दाता . दाता के सम्पूर्ण गुणों से युक्तए सर्व दोषाों व अतिचारों से रहितए विवेकी श्रावक मध्यम दाता होता है। यह अणु.व्रतों का अभ्यासी होता है।

3 जघन्य दाता . अविरत सम्यक् दृष्टिए यथाशक्य दाता के गुणों आदि से युक्तए दोषातिचार से रहित दाता जघन्य या सामान्य दाता कहलाता है।

देय वस्तु . सावद्य रहितए संयम की वृद्धि करए संक्लेशता के कारणों से रहितए विशुद्ध परिणामों की जनकए प्रमाद विनाशकए उत्साह वर्धकए धर्म.ध्यान के अनुकूल जो दाता एवं पात्र आदि दोनों के लिए परम्परा से मोक्ष का हेतु बनेए वही आहारादि द्रव्य दान.देय ;दान के देने के योग्यद्ध वस्तु कहलाती है।

दाता के सात गुण . दाता के सात अनिवार्य गुण इस प्रकार हैंरू

श्रद्धा

भक्तिए

तुष्टि

अलुब्धता

विवेकध्विज्ञानए

क्षमा

सत्व।

दाता के उक्त सात अनिवार्य गुणों का स्वरूपरू.

1 श्रद्धा . सच्चे देवए सच्चे शास्त्रए सच्चे धर्मए सच्चे गुरू एवं सत्पात्रों के प्रतिए दान तथा दान के फल के प्रति अंतरंग में दृढ़ विश्वास होना ही दाता का श्रद्धा नाम का गुण है। वह श्रद्धावान दाता किसी के बहकाने में आकर सच्चे देवए सच्चे शास्त्रए सच्चे गुरूए सच्चे धर्म के प्रति अश्रद्धा का भाव नहीं करता और न ही वह कुदेवए कुशास्त्रए कुगुरूए कुधर्म कुपात्रए कुदान या कुतत्व आदि के प्रति श्रद्धा ही करता है। परमार्थ के प्रति अठल श्रद्धा नही दाता का श्रद्धा नामक गुण है।

2 भक्ति . पूज्य पुरूषों के गुणों में आंतरिक अनुराग के साथ गुणोत्कीर्तन करना ही भक्ति है। भक्ति वह मार्ग हैए जिसके माध्यम से सच्चा भक्तए भगवान भी बना जाता है। बिना भक्ति के दिया गया दानए दान के सम्पूर्ण फल को देने में असमर्थ है। दाता सत्पात्रों को दान देते समय नवधा भक्ति का विशेष ध्यान रखता है। भक्ति रहित दिये हुए आहारादि दान को सत्पात्र स्वीकार भी नहीं करते। तथा नवद्य भक्ति . रहित दान की पूर्ण सार्थकता भी नहीं हैं। अतएव नवधा भक्ति का कथन विस्तार से आगे करेंगे।

3 तुष्टि . तुष्टि दाता का तीसरा प्रमुख गुण है। तुष्टि का अर्थ है . तोषए संतोषए संतुष्अि इत्यादि दाता को यथालब्ध पात्रों को पाकर संतुष्ट हो जाना चाहिए। अपने परिणामों को संक्लेश्ज्ञित नहीं करना चाहिए। जैसे कि किसी श्रावक के यहां उत्तम पात्रों का आहार नहीं हुआए मध्यम व जधन्य पात्र ही आये तो उन्हें प्राप्त करके भी हर्षित हो परम विशुद्धि के साथ आहारादि दें। यह न सोचे कि मेरे घर बड़े महाराज क्यों नहीं आयेघ् तीर्थंकर क्यों नहीं आयेघ् ऋद्धिधारी मुनि क्यों नहीं आयेघ् अथावा आचार्यए उपाध्यायए साधु परमेष्ठी क्यों नहीं आयेघ् उनके यहां क्यों चले गयेघ् मेरे यहां तो जधन्य पात्र ही आये हैं। ऐसा सोच कर अशुभध्अप्रशस्त्र परिणाम न करें अपितु संतोष धरण करें तथा यह विचार करें कि मेरा हीन पुण्य है अतः उत्तमोत्त्मए उत्तम.मध्यमए उत्तम.जाधन्य आदि पात्रों को लाभ नहीं हुआए अब मुझे अपनेपरिणाम विशुद्ध कर सातिशय पुण्य का अर्जन करना चाहिएए जिससे कालान्तर में मुझे उत्तम पात्रों का लाभ मिल सके।

4 अलुब्धता . प्रमुख गुणों में दाता का चैथा गुण है . अलुब्धतादा। इसका अर्थ हैए लुब्धता के अभाव। अर्थात् कंजूसीए कृपणता या तीव्र लोभ.लालच के परिणामों का परित्याग करना। सत्पात्रों को प्रप्त करके कभी दान देने में लोभ नहीं करना चाहिए लोभ के परिणामों के साथ दान देने से भी दान के समुचित फल की प्राप्ति नहीं हो पातीए अपितु अति लोभ परिणामें े कारण सत्पात्रों को भोजन कराने से या दुर्भाव के साथ भोजन कराने से पुण्य की क्षीणता व पापों की वृद्धि होती हैं। दाता को चाहिए कि वह शक्ति के अनुसार अवश्य आहारादि दान में प्रवृत्त हो। यदि ऐ रोटी ही हो तो भी ऐसे भाव रखें कि आधी रोटी का सत्पात्रों को दान देकर व आधी रोटी से अपनी क्षुध शमन कर लूं। अलुब्धता का अर्थ यह भी नहीं कि शक्ति से अधिक खर्च कर दिया जाए क्योंकि शक्ति से अधिक खर्च कर देने से भी दाता के परिणामों में संक्लेशता पैदा हो जाती है। अतः शक्ति के अनुसार ही दान दें।

5 विवेकध्विज्ञान . समीचीन दाता का प्रमुख पांचवा गुण हैए विवेकध्विज्ञान। विवेक का अर्थ है . आहारादि दान देते समय दाता विवेक पूर्वक कार्य करेंए क्यों कि बिना विवेक के की गईं समीचीन किया भी पापबन्ध में हेतु बन जाती है। विवेक पूर्वक किया गया लघु कार्य भी प्रशंसनीयए महत्वपूर्णए आशातीत सफलता प्रदान करने वाला होता है। आहारादि दान देते समय द्रव्यए क्षेत्रए कालए भाव को देखना व उसके बारे में समीचीन विचार करना कि इस वस्तु का दान उचित है अथवा अनुचित। दान किस वस्तु का करना चाहिएघ् विवक्षित पात्रध्साधक की अवस्थाए प्रकृतिए स्वास्थ्य आदि की अपेक्षाए मौसम की अपेक्षाए तप.त्यागए संयम साधना की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए विवेक पूर्वक आहारादि दें। उस समय अविवेक के साथ आहारादि देकर अपनी मूर्खता प्रकट न करें तथा साधक की साधन में बाधक न बनें विवेकी दाता शीत ेकाल में उष्ण पदार्थ व ग्रीष्म काल में शीतल पदार्थों को अधिक प्रयोग करते हैं।

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दूध के ऊपर से खट्टी ;नींबूए आम की खट्टाई आदिद्ध न दें।

रस या फलों के तुरन्त बाद पानी ने दें।

ग्रीष्म काल में पेय पदार्थ अधिक दें।

वर्षाकाल में गरिष्ठ भोजन न दे। इत्यादि बहुत सी बातें यह विवेकी दाता ध्यान में रखता हैं।

कहां.कहां किस प्रकार विवेक रखेंए इसके बारे में आगे विस्तार से बतायेंगे अतः वहां भी देखें।द्ध

6 क्षमा . क्षमा दाता के प्रमुख गुणों में ठंछवा गुण है। इसका अर्थ हैए क्रोधदि परिणामों का परित्याग कर देना। आहारादि दान देते समय दाता कोपरम क्षमा भाव धारण करना चाहिए। कदाचित् प्रतिकूलताएं भी सामने उपस्थित हो जाएवेंए यदि क्रोधेत्पत्ति के निमित्त भी मिल जाऐं फिर भी क्षमा भाव धारण करना चाहिए। यदि कोई तुम्हें दुर्वचन कह रहा है तब भी आप ख्ज्ञमाशील ही बन कर रहें। क्रोध रूपी अग्नि गुण रूपी रत्नों को जला कर ध्वस्त कर देती हैए मनए वचनए काय की शुद्धि भी नहीं रह पाती और किसी भी प्रकार की अशुद्धि में दिया गया आहारादि दान पुण्यबन्ध के स्थान पर प्रायः पाप बन्ध का हेतु बन कर रह जाता है। अतः दाता का क्षमा गुण से युक्त होना अनिवार्य है।

7 सत्व . दाता के प्रमुख गुणों में सातवें व अन्तिम गुण का नाम सत्व है। सत्वका अर्थ होता है . कोमल परिणामए करूणााए दयाए अहिंसाए मृदुताए ऋजता सहितए अहंकारादि से रहित परम विशुद्ध परिणामों का होना। आहारादि दान के समय अहंकार करने सेए मायाचारी करने सेए क्रोध करनेसेए लोभ करने से निःसन्देह दुर्गति आदि की प्राप्ति सम्भव है। अतः आहारादि दान के समय दिखावा या छलकपट आदि के परिणाम नहीं होने चाहिए।

8 भूषण . जिन्हें अंगीकार करने से व्यक्ति सुशोभित होए भव्य जनों के मध्य शोभायमान होए ऐसे गुणों को ही भूषण कहा गय है। भूषण व आभूषण दोनों एकार्थवाची हैं। जिस प्रकार पुरूष या स्घ्ी स्वर्णाभरण आभूषण धारण करने से सुशोभित होते हैंए उनके बिना उनका सौन्दर्य फीका ही दिखता है उसी प्रकार दाता 5 भूषणों से रहित होकर दानादि के समय सुशोभित नहीं होताए अपितु सज्जनों के मध्य हास्य का ही पात्र होता है। अतः भूशण धारण करना प्रत्येक दाता के लिए अनिवार्य है।