।। मुक्ति - पथ की ओर ।।

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मंगलाचरण     ई. पूव 600-700 में भारत में ही नहीं विदेशों में भी जनक्रांति और धर्मक्रांति हुई थी। इस युग में राजनीति, समाज और धर्मसम्बंधी मान्यताएं परिवर्तित हो रही थीं। समस्त संसार के मानव का मस्तिष्क उदविग्न था। प्रसिद्ध इतिहासकार एच.जी.वेल्स का अभिमत है कि ई. पूर्व छठी शताब्दी संसार के इतिहास में महत्वपूर्ण काल है। इस शताब्दी में मनुष्य की चेतना सर्वत्र रूढि़वादी परम्पराओं को बदलने के लिए क्रियाशील थी। महावीर युग में धार्मिक जीवन की जटिलता, अंधविश्वास, एकाधिकार आदि अतियों से जन सामान्य में पर्याप्त असंतोष था। आस्तिकवाद अपनी चरम सीमा पर पहुंच रहा था। हर बात प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर उचित सिद्ध की जाने लगी थी। विचारों में रूकावट आ गयी थी। अतः यह उस धार्मिक एवं दार्शनिक वातावरण की मांग थी कि कोई ऐसा व्यक्ति उपस्थित हो जो इन परम्परागत रूढि़यों को चुनौति दे सके। तर्क एवं विचार के प्रभाव को गति दे सके। महावीर ने इस मांग की पूर्ति की।

नैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकि तं,
साक्षाद्येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं साड् गुलिः।
रागद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयो,
नालं यत्पदलड् घनाय स महादेवो मया वन्द्यते।।
श्री सन्मति को नमन कर लिखता हूं कुछ सा।
भव्यजीव इसके पढ़ें, भवदधि उतरें।।।।

शुभाशुभ

मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होने के इच्छुक

कुछ लोगों के हृदय में इसका संशय बना है कि इस आत्मा को अपनी करनी का फल मिलता है या नहीं? पर देखा जाये तो आत्मा को अपने किसे हुए शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल अवश्य प्राप्त होता है। इस बात को सभी धर्मानुरागी और विचारक मानते हैं कि बुरी करनी का फल बुरा और भली करनी का फल भला मिलता है। इसके लिए हमारे समक्ष कई दृष्टान्त भी हैं।

एक पुण्यशाली मनुष्य रथ में बैठा हुआ जा रहा है, उसके लिए अनेक प्रकार की व्यवस्था की जारी है, मखमली गद्दे बिछे हुए हैं, चंवर ढुलते जा रहे हैं, जगह-जगह अनेक प्रकार के स्वागत होते जा रहे हैं, लेकिन साथ में चलने वाले सेवकों को, उनकी भूख-प्यास के बारे में कोई नहीं पूछता। इसलिये मानना होगा कि इन सबकी पूर्व जन्म की करनी का ही फल है।

हमारे पूर्व में किये हुए शुभ कर्मों के फलस्वरूप अनेक सुविधायें प्रापत हो जाती हैं, रहने को बंगला, घूमने को गाड़ी, खाने के लिए अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ। लेकिन एक वह भी जीवन है, जिनके पास पूर्व में किये हुए पापकर्मों के कारण रहने के लिए झोपड़ी भीनहीं, चलने के लिए पैर भी नहीं खाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं। किसी की आंख नहीं है, किसी के कान नहीं हैं, किसी के हाथ नहीं हैं, किसी को कोढ़ आदि अनेक प्रकार की व्याधियां हो रही हैं।

जैन धर्म की जीवन्त मूर्ति की पूजा वर्तमान युग में ही नहीं अनादिकाल से ही होती आ रही है पंरतु वृहद् शास्त्रों के गूढ रहस्यों को समझने में बाल एवं युवा तथा अल्पज्ञ वर्ग सक्षम नहीं है यही कारण है कि पंथ आम्नाय, चरित्रहीनता, सांप्रदायिक जातिवाद एवं अनेक लोक कुरीतियों को बढावा मिलता जा रहा है।

परम पूज्य गुरूवर्य आचार्य श्री विद्याभूषण सन्मतिसागर जी महाराज ने आज से सत्ताई वर्ष पूर्व क्षुल्लक अवस्था में ‘मुक्ति पथ की ओर‘ कृति की रचना कर भूले भटके पथिक जनों की सद् राह प्रदर्शित की। प्रस्तुत कृत वैज्ञानिक तर्कप्रधान बुद्धिजीवी मानवों के लिए अमूल्य उपहार सिद्ध हुई।

कृति की पृष्ठभूमि कब कहाॅ क्यों और कैसे इन चार प्रश्नों पर आधारित है। इसके शुभारंभ में ही संसार की विविधता का दर्शन कराके क्या फल कर्म देते हैं, क्या कर्मबंध होता है, होता है तो कैसे होता है? इत्यादि प्रश्नों का सटीक, वैज्ञानिक तर्कप्रधान समाधान है।

संपूर्ण कृति का मूल विषय तीन अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रथम अध्याय में शुभाशुभ कर्मबंध, कर्मफल का तर्कयुक्त समाधान प्रस्तुत कर अष्ट मूलगुण पालन तथा सप्त व्यसन त्याग की प्रेरणा प्रदान की। श्रावक दिनचर्या का अत्यंत रोचक वैज्ञानिक उद्धरणों सहित वर्णन करने के अनंतर श्रावक के परमाराध्य पंचपरमेष्ठी मूलगुण प्रतिपादित कर सम्यक् बोध प्रदान किया गया है।

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द्वितीय अध्याय में श्रावक ष्डावश्यक, देवपूजा, गुरू उपासना, स्वाध्याय, संयम तप और दान की सम्यक् विवेचना विषयार्चिषा पीडित, तृष्णार्चिषा ज्वलित, मिथ्यात्व भ्रमित व कुतर्क जाल में उलझे मानव मस्तिष्क को मुक्तिपूर्ण राह पर आरूढ कर सत्य तथ्य से परिचित किया है।

तृतीय अध्याय में मोहाभिभूत , कषायान्ध प्राणी को चतुर्गतियों में प्राप्त असहनीय वेदना से परिचित करा के मिथ्यात्व व कषाय से परे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय, भेद-प्रभेद, गुण-दोष आदि की चिंतनात्मक विवेचना के उपरांत सम्यग्दर्शन की महिमातीत महिमा का वर्णन किया है।

अत्यल्य काल में दशम् संस्करण प्रकाशित होना कृति की उपादेता को स्वयं सिद्ध करता है। प्रस्तुत कृति तर्कशील युवाओं को कथ्य तथ्य तर्क की कसौटी पर कस कर समाधान करती है, द्वादशांग वारिधि को मंथित कर सिद्धांत विदों के लिए नवनीत प्रदान करती है और जन मानस को झंझकोर कर अपने कत्र्तव्य पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है।

प्रत्येक विषय की चिन्तनात्मक, वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण शैली में विवेचित करना पूज्याचार्य की अगाध ज्ञान गरिमा की उद्योतक है। आपके द्वारा इसके अनंतर शताधिक पंचविशांति पुस्तकें समाज के बीच अविराम गति से प्रस्तुत की जा चुकी है जिनसे आवाल-वृद्ध सभी लाभान्वित हुए है। आपकी लेखनी में आपका बहुमुखी व्यक्तित्व दर्पणवत प्रतिबिंबित होता है। लेखन शैली का प्रवाह मात्र तत्वविदों तथा अबोध बालकों तक ही संकीर्ण नहीं रहा किंतु गद्य-पथ शैली रूप दो तटों के मध्य सतत प्रवाहित होता हुआ सम्यग्ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक, तत्व-जिज्ञासु आवाल-वृद्ध सभी की तृष्णा का शामक बना हुआ है। आपकी कृतियों में जहां एक ओर आत्म विश्रांति की प्रेरणा है वहां लोक व्यवहार में समाज-सेवा, ज्ञान प्रसार व धर्मप्रभावना के लिए कुछ कर गुजरने का सफल निर्देश भी है।

‘कण भर लें और मन भर दें‘ की उक्ति आप पर पूर्णतः चरितार्थ होती है। समाज से दो रोटी लेकर अहर्निश स्व-पर कल्याण में तत्पर रहना आपकी दिनचर्या है।

सम्यग्ज्ञान की दिव्याभा जगतीतल पर बिखराने की भावना से सज्जित प्रथम कृति रूप प्रथम रश्मि इस जगतीतल पर विद्यमान प्रत्येक प्राणी के हृदय से अज्ञानान्धकार को तिरोहित कर दें, कषाय मल को शुष्क कर दे और अनंत सागर की दीर्घता हृश्वता में परिवर्तित कर दें इस भावना के साथ देवाधिदेव श्री पाश्रर्वप्रभु के चरणार्विन्दों में आत्म समपर्ण पूर्वक एक ही प्रार्थना करती हूं कि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त अल्प बुद्धि का उपयोग अभीक्ष्ण ज्ञानाराधना में लीन रह कर करते हुए ज्ञानानुभुति में निमग्न रहूं। तथा स्व-पर कल्याण में इस पर्याय का सदुपयोग करके अन्त में विशुद्ध समाधि को प्राप्त होकर स्त्री पर्याय का उच्छेद करूॅं।

इसी कामना से कोटि-कोटि नमन-नमन-नमन।