।। मिथ्यात्व ।।

संशय मिथ्यात्व - अब यहां समझना है हमें संशय मिथ्यात्व के स्वरूप को। किसी भी पदार्थ के विषय में यह ऐसा है या वैसा, इस तरह है या नहीं; इस प्रकार की मान्यता को ही संशय मिथ्यात्व कहते हैं, जैसे रत्नत्रय ही मोक्ष का मार्ग है या एक-एक भी। मुनि बनने में ही सुख प्राप्त होता है या अन्य वेशों में भी, वर्तमान में भी साथ पाये जा सकते हैं या नहीं, कुतप से भी थोड़ा बहुत तो धर्म होता ही रहेगा, धर्म को धारण करने पर सुख मिलेगा या नहीं, पंचपरमेष्ठी की शरण में आने पर पापों का नाश होगा या नहीं इत्यादि अनेक प्रकार की बातें संशय अर्थात उन सभी बातों का पूर्ण निर्णय नहीं कर मन में सन्देह बनाये रखना; यही कहा जात है संशय मिथ्यात्व। इस मिथ्यात्व से बचने के लिए हमं वस्तु-स्वभाव का यथार्थ निर्णय कर संशय का त्याग करना होगा।

वैनयिक मिथ्यात्व - अभी हमने संशय मिथ्यात्व के स्वरूप को समझ कर त्याग किया, अब है चर्चा वैनयिक मिथ्यात्व की। बिना किसी अपेक्षा के सभी धर्मों, सभी देवताओं और सभी आम्नाओं को समान मानकर उनकी विनय करना वैनयिक मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व से बचने के लिए हमें देव,धर्म, गुरू आदि सभी की सत्य, असत्य की परीक्षा करके ही विनय करनी होगी।

अज्ञान मिथ्यात्व - मिथ्यात्व के अंतिम भेद अर्थात अज्ञान-मिथ्यात्व का स्वरूप समझाया जाता है। हिताहित के विवेक का न होना ही अज्ञान मिथ्यात्व है। जैसे - धन को पाकर दान न देना, ज्ञान प्राप्त कर धर्म प्रभावना न करना, निरोगी शरीर पाकर महाव्रत धारण कर तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा के लिए पुरूषार्थ न करना, मनुष्य योनि पाकर शरीर केा भोगों में ही सुखा देना इत्यादि अज्ञानमिथ्यात्व ही है। अज्ञान मिथ्यात्व से बचने के लिए हमें बुद्धिपूर्वक हितमार्ग पर चलना होगा। मिथ्यात्व से बढ़कर अहितकारक कौन? - तीन लोकों और तीन कालेां में मिथ्यात्व से बढ़कर हमारा शत्रु कोई नहीं हैं। इसके रहते हुए अगर हमें परम गुरू उपदेश दे ंतो उस पर भी हमाारी श्रद्धा नहीं जमती। वस्तु - स्वभाव की बात नहीं सुहाती, कल्याण का मार्ग कष्टदायक प्रतिभासित होता है। अनेक उपाय करने पर भी तत्व की जो अश्रद्धा है वह नहीं निकलती। अहंकार ममकार नहीं छूटता, दुःखसागर की ही गहारई में उतरते जाते हैं। इसके कारण सर्वथा ही अहित हो रहा है।

‘अमितगति श्रावकाचार’ अध्याय दो में इस महामिथ्यात्व के सम्बंध में इस प्रकार कहा है -

न मिथ्यात्वसमः शत्रुर्नमिथ्यात्वसमं विषम्।
न मिथ्यात्वसमो रोगो न मिथ्यात्वसमं तमः ।।28।।

मिथ्यात्व से बढ़कर हमारा कोई शत्रु नहीं, शत्रु तो एक बार चढ़ाई करता है और यह बार-बार हर समय कमर कसे ही खड़ा रहता है। मिथ्यात्व से बड़कर कोई विष नहीं है, विष के खाने से तो एक बार ही मरण होता है, परंतु इसका सेवन करने पर तो बार-बार मरना पड़ता है। मिथ्यात्व से बढ़कर कोई रोग नहीं! रोग से कष्ट एक ही भव में पैदा होता है, परंतु इसके कारण तो जन्म-जन्म में दुख उठाने पड़ते हैं। मिथ्यात्व से बढ़कर कोई तिमिर (अन्धकार) नहीं, अन्धकार में तो कुछ ही समय भटकना पड़ता है, परंतु इस मिथ्यात्व रूपी अंधकार के कारण तो अनादिकाल से संसार में भटक रहे हैं और सम्यक्त्वरूपी दीप नहीं लिया तो भटकते ही रहेंगे रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है -

नसम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयाःश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं, नान्यत्तनूभृताम् ।।34।।

तीनों लोकों और तीनों कालों में सम्यक्त्व से बढ़कर अनय कोई पदार्थ उपकारी - कल्याणकारी नहीं है तथा मिथ्यात्व से बढ़कर कोई अन्य अपकारी अर्थात दुःखदायक नहीं है।

और भी बारीकी से मिथ्यात्व के रूप को आगम से समझकर सर्वथा त्याग ही कर देना है। त्याग क्यों करना है हमें, इसके त्यागे बिना सम्यक्त्व नहीं होता और सम्यक्त्व हुए बिना संसार का दुःख नहीं मिटता। संसार दुःख मिटे बिना सच्चा सुख नहीं मिलता, अतः घोर मिथ्यात्व का इसी क्षण से त्याग आवश्यक है।

मिथ्यासम नहिं जगत में, दुख का कारण और
ज्ञान तत्व ले त्याग दे, निज में करके गौर।।100।।
आज मन में ऐसा भाव हो रहा है,
भविष्य का कुछ ज्ञान हो रहा है।
जिन कन्धों पर था ज्ञान का प्रसार,
उनका कुछ समय में पयान हो रहा है।।
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