गुणवना व्यक्तियों पर आए हुए दुखों को निर्दोष विधि से हटा देना वैयावृत्य है4।
कर्म रूपी शत्रुओं का जिन्होंने विनाश कर दिया है, वे जीवन्मुक्त पुरूष अरिहंत कहलाते हैं। इनके प्रति भक्ति रखना अर्हदृभक्ति है यह अकेली
1. तत्वाथंवार्तिक 6/24/6 2. अनिगूंहित वीर्यस्य सम्यग्मार्गविरोधतः। कायक्लेशः समख्यातं विशुद्ध शक्तितस्तपः ।। तत्वार्थश्लोकवार्तिक 6/24/6 3. भाण्डागारिग्नि संशांतिसमं मुनिगणस्य यत्।। तपः संरक्षणं साधुसमाधिः स उदीरितः ।। वही 6/24/10 4. गुणिदः खनिपाते तु निरवद्य विधानतः तस्यापहरणं प्रोक्तं वैयावृत्यमनिन्दितं ।। वही 6/24/11
जिनभक्ति ही प्राणियों की दुर्गति का निवारण करने वाली, पुण्य का संचय करने वाली और मोक्षलक्ष्मी को देने वाली है।
11. जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक चारित्र की अधिकता से प्रधान पद को प्राप्त होकर संघ के नायक हुए है। पुनः मुख्यरूप से जो निविकल्प स्वरूप के आचारण में ही मग्न रहते हैं किंतु कदाचित धर्म के लोभी अन्य जीवादि को देखकर राग के अंश के उदय से करूणा बुद्धि होकर उन्हें उपदेश देते हैं, जो दीक्षा ग्राहक हैं उन्हें उपदेश देते हैं, जो अपने दोष प्रकट करते हैं उनको प्रायश्चित देकर शुद्ध करते है;1 ऐसे साधु आचार्य कहलाते हैं। ‘प्रशमरतिप्रकरण टीका’ के अनुसार जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार, इन पांच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरों को उनका उपदेश देते है हैं वे आचार्य हैं। ये परम आर्ष के प्रवचनों का अर्थ करने में निपुण होते हैं2। अर्थत जिनागम के ज्ञाता और कुशल व्याख्याता होते हैं। इन आचार्यों के प्रति भक्ति रखना आचार्य भक्ति है। यद्यपित इस कलिकाल में त्रैलोक्य के चूडामणि केवली भगवान नहीं हैं, तो भी इस भरत क्षेत्र में समस्त जगत को प्रकाशित करने वाली उनकी वाणी विद्यमान है तथा श्रेष्ठ रत्नत्रय को धारण करने वाले मुनिराज है, उनका आश्रय लेना चाहिए। उनकी पूजा जिनवाणी की ही पूजा है और जिनवाणी की पूजा से साक्षत जिन की, ऐसा ही पूजा की, ऐसा समझना चाहिए3।
अत्यधिक ज्ञान के धारक साधुओं के प्रति भक्ति रखना बहुश्रुत भक्ति है। ज्ञानी पुरूष अपने ज्ञान के बल से कर्मों का क्षय करता है। अज्ञानी कोटि
1. पं. टोडरमल जी: मोक्षमार्गप्रकाशक 2. पंचविधाचारस्तथास्तदुपदेशदानादीचार्यः परमार्षवचनार्थनिनरूपणे निपुणाः ।। प्रशमरतिप्रकरण टीका, 3. सम्प्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्य चूडामणिः। तद्वाक् परमासतेत्र भरतक्षेत्रे जगद्द्योतिका।। सद्रत्नत्रयाधरिणों मुनिवरास्तेषां समालम्बनम्। तत्पूजा जिनवाचिपूजनमतः साक्षजिंनः पूजिः।। पद्मनन्दिपंचविंशतिका
सहस्त्र भवों में जिने कर्मों की निर्जरा करता है, उतनी निर्जरा ज्ञानी त्रिगुप्ति द्वारा एक स्वांस मात्र काल में कर लेता है। इस प्रकार ज्ञानी की अत्यधिक महत्ता है। ज्ञान अर्थात विवेक पूर्वक किया गया आचरण सफल होता है। ज्ञानी आत्मा बंधन के स्वभाव को जानता है अैर अपने स्वभाव को भी जानता है। ऐसा जानता हुआ जो बंधन से विरक्त होता है, वह कर्मों का क्षय करता है।
जिनवाणी की भक्ति करना प्रवचन भक्ति है। सर्वज्ञ जिनेश्वर की दिव्यवाणी औषधिरूप है, वह विषय सुखों का परित्याग कराती है। वह अमृतमय- मरणरहित अवस्था को प्रदान कराती है। अमृत सदृश मधुर भी है। वह जन्म, मरण तथा व्याधि का विनाश करती है। जिनवाणी के द्वारा सर्वदुकों का क्षय होता है1। अतः तीर्थकर के द्वारा अर्थरूप से प्रतिपादति, गणधर देव द्वारा ग्रन्थरूप में निर्मित अनुपम श्रुतज्ञान की निर्मल भावपूर्वक प्रतिदिन भावना करना चाहिए कि वह श्रुतज्ञान हमें प्राप्त हो2।
सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल अविच्छिन्न रूप से करते रहना आवश्यकापरिहाणि है। समस्त पापों का त्याग करना तथा चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है। तीर्थकरों की शुद्धिपूर्वक खडगासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बाहर आवर्त पूर्वक वंदना होती है। कृत दोषाों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है। भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है निश्चित समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है3।
ज्ञान, तप तथा अर्हतपूजानादि कार्यों से शुद्ध, बुद्ध परमात्माओं के धर्म
1. जिणवयण मोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमियभूयं। जरमरण वाहिहरणं खयकरण सव्वदुक्खाणं।। कुन्दकुन्द, पर्शनपाहुड - 17 2. तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गथियं सम्मं। भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणणं ।।भावपाहुड - 90 3. अकलंकदेव- तत्वार्थवार्तिक 6/24/11 का परमार्थतः (यथार्थ रूप से)प्रकाशन करना मार्ग प्रभावना है1।
जिस प्रकार गाय अपने बछडे पर स्नेह रखती है, उसी प्रकार देव शास्त्र, गुरू पर असीम श्रद्धा और स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है।
षोडश कारण व्रत कथा जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के मगण देश में राजगृह नगर था। उस नगर में राजा हेमप्रभ और रानी विजयावती राज्य करते थे। उनके यहां महाशर्मा नामक ब्राह्मण सेवक था। उस सेवक की स्त्री का नाम प्रियवंदा था। इस प्रियवंदा की कुक्षि से कालभैरवी नामक एक अत्यंत कुरूपा कन्या उत्पन्न हुई इस कन्या से सभी घृणा करते थे। एक बार मतिसागर नामक मुनि आकाश मर्ग से गमन करते हुए उस नगर में आए। महाशर्मा ने उन्हें विधिपूर्वक आहार दिया। आहारदान के पश्चात उन्होंने अपनी पुत्री की कुरूपता का कारण मुनिराज से पूछा - मुनिााज ने कहा कि पूर्वजन्म में यह उज्जयिनी नगरी के राजा महीपाल और रानी वेगवती की रूपवती और अभिमानी विशालाक्षी नामक कन्या थी। इसने रूप के मद में गर्वित हो एक बार एक दिगम्बर मुनिराज के ऊपर थूक दिया। जिससे इस जन्म में यह इतनी कुरूपा हुई है। महाशर्मा ने उनकी कुरूपता और दुख के निवारण का उपाय पूछा। मुनिराज ने कहा कि संसार में कोई ऐसा पाप नहीं, जिसका प्रायश्चित न हो। यदि यह षोडशकारण भावना भावे तो उस इस दुख से छुटकारा मिल सकता है।मुनिराज द्वारा निर्दिष्ट विधि से कन्या ने सोलह वर्ष तक षोडशकारण भावनाओं का चिन्तन करते हुए व्रत किया। अनन्तर विधिपूर्वक व्रत का उद्यापन किया। आयु के अंत में समाधिमरण क रवह सोलहवें स्वर्ग में देव हुई और उसने उस व्रत के प्रभाव से विदेहक्षेत्र में सीमन्धर तीर्थकर का पद प्राप्त किया। इस प्रकार यह व्रत स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का देनो वाला है, इसका पालन अवश्य करना चाहिए।