कल्याणक शब्द का अर्थ है - कल्याण करने वाला। वे क्रियायें जो किसी भी रूप में साक्षत य परम्परा से जीव का ऐहलौकिक या पारलौकिक कल्याण करती हैं, कल्याणक शब्द से व्यवह्यत होती हैं। मोक्ष के कारणों में प्रधान सम्पग्दर्शन के आठ अंग माने गए हैं। उनमें प्रभावना नामक अंतिम अंग है जो जैनों में समय पर होने वाले अनेक धार्मिक समारोहों के रूप में प्रकट होता है। जिसके द्वारा जैनाजैन सभी वर्गों में धर्म के प्रतिरूचि, आकर्षण और श्रद्धा जागृत होती है। यही रूचि और श्रद्धान क्रमशः उत्कर्ष को प्राप्त होती हुई संवेग, वैराग्य के रूप में परिणत होकर मोक्ष में बदल जाती है। जीव का चरम लक्ष्य उसे प्राप्त हो जाता है और ऐसे समारोहों का कल्याणक नाम सार्थक होता है।
पंचकल्याणक तीर्थकर भगवान के गर्भ में आने से लेकर मोक्ष जाने पर्यन्त विशिष्ट समारोहों के रूप में मनुष्य व देवताओं द्वारा यथासमय मनाये जाते हैं। ये कल्याणक इनके तीर्थकर नामक सर्वातिशायी पुण्य प्रकृति के उदय से ही होते हैं, क्योंकि सामान्य केवलियों के वह नहीं होते। पंचकल्याणक तीर्थकरों के ही होते हैं2। ये पांच निम्न हैं - 1. गर्भ कल्याणक 2. जन्म कल्याणक 3. तपक ल्याणक 4. ज्ञान कल्याणक 5. मोक्ष कल्याणक। इनक ल्याणकों के ही अनुकरण पर प्रतिवर्ष जैन समाज में अनेक स्थानों पर पंचकल्याणक महोत्सव मानाने की परम्परा है। इन महोत्सवों में हजारों, लाखों जैनाजैन जनम उपस्थित होती है और विविध धाार्मिक आयोजनों के साथ पंचकल्याणक की ही क्रिया के साथ नई मूर्तियां प्रतिष्ठित होती हैं और पूजनीय मानी जाती है। इस कल्याणकों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-
तीर्थकर भगवान के गर्भ में आने से पूर्व इंद्र की आज्ञा से कुबेर माता
1. वैद्य पृ. जैन शास्त्रीः पंचकल्याणंक का महत्व (श्री सुदर्शनमेरू बिम्ब प्रतिष्ठा स्मारिका पृ. 70)
2. वैद्य पं. धर्मचन्द्र शास्त्रीः पंचकल्याणक का महत्व (श्री सुदर्शनमेरू बिम्ब प्रतिष्ठा स्मारिका पृ. 70)
पिता के गृहागंण में दिव्य रत्नों की वर्षा करता है। श्री, ह्यी, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह कुमारी आदि देवियां माता की सेवा के लिए उपस्थित होती हैं। पुण्योदय से माता सोलह स्वप्न देखती हैं। वे प्रातः उठकर अपने पति से स्वप्नों का फल पूछती हैं। पति बतलाते हैं कि तुम्हारे गर्भ से तीनों लोकों के नाथ तीर्थकर भगवान का जन्म होने वाला है। माता यह बात सुनकर अत्यधिक हर्षित होती है। तीनों लोकों में आनन्द छा जाता है।
जन्म कल्याणक में जन्म के पूर्व ही कुबेर नगरी की रचना और सजावट करता है। भगवान जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि नामक तीन ज्ञान के धारक होते हैं। उनके जन्म के समय कल्पवासी देवों के महलों में अनाहत घण्टों की आवाज होती हैं, ज्योतिषी देवों के घर सिंहनाद होता है? भवनवासी देवों के भवनों में बिना बजाए शंख बजते हैं, व्यंतरों के भवनों में अपने आप भेरियों का शब्द होता है। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठकर समस्त देव सेना के साथ भगवान के जन्माभिषेक के लिए आता है। नगर की तीन प्रदशिक्षाा देकर वह इन्द्राणी को प्रसूतिगृह से श्री जिनेन्द्र को लाने की आज्ञा देता है। इन्द्राणी भगवान को प्रसूतिगृह से लाती है। इन्द्र उनके रूप को देखकर तृत्प नहीं होता है, वह हजार आंखें बनाता है। देव अनेक प्रकार से आनन्द मनाते है। जैसे-
1- नृत्य करना।
2-तालियां बजाना।
3-सेना को उन्नत बनाना।
4-सिंहनाद करना।
5-विक्रिया से अनेक वेष बनाना।
6-उत्कृष्ट गाना गाना।
सौधर्मेंन्द्र भगवान को गोदी में बिठाते हैं। अन्य देव चमर आदि ग्रहण करते हैं। सर्वप्रथम इन्द्रादि देवता सुदर्शन मेरू की प्रदक्षिणा देते है तथा सुमेरू पर्वत के शिखर पर स्थित पाण्डुक शिला पर सिंहासन पर विराज करके सौधर्मेन्द्र और ईशान इन्द्र शिशु का एक हजार आठ स्वर्णकलशों से अभिषेक करते हैं।
सन्तकुमार और महेन्द्र इन्द्र चंवर ढोरते हैं। बाकी स्वर्गों के इन्द्र जय जयकार कर अपना हर्ष प्रकट कर स्वयं को धन्य व कृतकृत्य मानते हैं। भगवान को इन्द्रादि देव वस्त्राभूषण पहनाते हैं। इस अवसर पर देवों द्वारा की गई क्रियाओं के कुछ रूप निम्नलिखित हैं-
1. तुम्बरू नारद और विश्वासु का उत्कृष्ट मूच्र्छनायें करते हुए अपनी पत्नियों के साथ मन और कानों को हरण करने वाले गीत गाना।
2. लक्ष्मी का वीणा बजाना।
3. उत्तमोत्तम देवों का गायन, वादन और नृत्य करना।
4. देवियों का गंध से युक्त अनुलेपन से भगवान को उदवर्तन करना।
5. भगवान के शरीर को उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों तथा विलेपनों से सज्जित करना।
उपस्थित जनसमुदाय रंगमंच पर इस जन्म महोत्सव को देख कर महान पुण्य संचक करते हैं। इस दिन भगवान को पालने में बैठाकर झूला झुलाया जाता है। इसी के प्रतीक स्वरूप प्रतिदिन पूजन के पहले भगवान का अभिषेक किया जाता है। भक्त लोग इस समय यह कल्पना करते हैं कि जिस अमल पाण्डुक शिला पर ऋषभदेव इत्यादि तीर्थकरों को इन्द्रादि देवताओं ने विराजमान कर स्नान कराया, उसी पर मैं भी सिंहासन पर जिनप्रतिमा को अधिष्ठित कर अक्षत, जल और पुष्पों से अर्चित करता हूं। इसका कारण यह है कि भगवान ने जिस कल्याण को प्राप्त किया उस कल्याण की प्राप्ति का मैं भी इच्छुक हूं। दूर से झुकते हुए सुरनाथों के मुकुटों के अग्रभाग पर स्थित रत्नों की किरणों से जिनके चरणों की छबि धूसरित हो गई है। ऐसे भगवान जिनेन्द्र यद्यपि स्वेद, ताप और मन से रहित हैं तथापि मैं प्रकृष्ट भक्ति से जिनपति का जलों से अनेक प्रकार से अभिषेक कर रहा हूं। हे भगवान! आपके स्नान का यह गंधोदक मुक्तिलक्ष्मी रूपी स्त्री के हाथ का उदक है, पुण्य रूपी अंकुर का उत्पन्न करने वाला है। यह नागेद्र, देवेन्द्र, चक्रवर्ती इत्यादि पदों पर अभिषिक्त कराने वाला है। यह सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र और सम्यक दर्शन रूपी लता की वृद्धि करने वाला हैं तथा कीर्ति, लक्ष्मी और विजय का साधक है।
जन्मोत्सव के पश्चात कुछ तीर्थकरों को छोडकर सभी तीर्थकर सामान्य गृहस्थ जीवन बिताते हुए सुदीर्घकाल तक साम्राज्य इत्यादि के सुख को भोगते है। यहां कोई तर्क कर सकता है कि जन्म तो जगत की जन्म-मरण परम्पराका एक अंग है, फिर यह कल्याणक केसे हो सकता है? प्राणियों के जन्मपूर्वक मरण और मरणपूर्वक जन्म अनादि काल से होता आया है। इसका समाधान यह हैं कि तीर्थकरों ने अपने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप आत्म पुरूषार्थ से जन्ममरण की परम्परा के विच्छेद का प्रयास किया हैं। उसके फलस्वरूप यह अंतिम जन्म हैं, इसके बाद पुनः जन्म नहीं होना है। अन्य प्राणियों का जन्म पुनर्जन्म तथा संसार की दुख परम्परा का कारण है, अतः वह जन्म कल्याणक नहीं है। विवेकी मनुष्य प्रार्थना करते हैं-
पुनरपिजननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्। इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे याहि कृपालो।