सुगन्ध दशमी पर्व जैनों का विख्यात पर्व है। इस पर्व का वर्तमान में महिला वर्ग में विशेष रूप से प्रचलन है, किंतु इसे सभी मना सकते है, और इसमें होने वाले लाभ के अधिकारी हो सकते है।
विधि- सुगन्धदशमी व्रत कापालन करने वाले की विधि यह है- भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन इसमें उपवास किया जाता है। इस दिन से प्रारम्भ कर पांच दिन अर्थात भाद्रपद शुक्ल नवमी तक कुसुमांजलि चढाना चाहिए। कुसुमांजलि में फनस, बीजपूर, फोफल कूष्माण्ड, नारियल आदि नाना फलों तथा पंचरंग वाले और सुगंधित फूलों तथा महकते हुए उत्तर द्वीप और धूप आदि से बडे महोत्सव के साथ भगवान का पूजन किया जाता है। इस प्रकार पांच दिन अर्थात नवमी तक पुष्पांजली देकर फिर दशमी के दिन जिनमंदिर में सुगंधित द्रव्यों द्वारा सुगंध करना चाहिए और उस दिन आहार का भी नियम करना चाहिए। उस दिन या तो प्रोषध करे औूर यदि सर्वप्रकार के आहार का परित्याग रूप पूर्ण उपवास किया जा सके तो एक मात्र भोजन का नियम तो अवश्य पाले। चैबीसी जिन भगवान का अभिषेक करके दश बार दश पूजन करना चाहिए। इस दिन केशर, अगर, कपूर और चंदन आदि को घिसकर शरीर में लेप करना चाहिए और अक्षतादि द्रव्य से पूजन करना चाहिए। एक दशमुख कलश की स्थापना कर उसमें दशंगी धूप खेना चाहिए पुनः अक्षतों क्ष्द्वारा दश भागों में नाना रंगों से विचित्र सूर्य मण्डल बनाना चाहिए। उस मण्डल के दश भागों में दश दीप स्थापित करके उनमें दश मनोहर फल और दश प्रकार नैवेद्य चढाते हुए दश बार जिन भगवान की स्तुति, वंदना करना चाहिए। सात प्रकार काधान्य लेकर स्वास्तिक लिखना चाहिए और उसमें दश दीपक रखकर जलाना चाहिए। इस प्रकार की विधि हर्षपूर्वक मन, वचन, काय से पांचों इंद्रियों की एकाग्रता सहित प्रतिवर्ष करते हुए दश वर्ष तक करना चाहिए।
उद्यापन- प्रतिवर्ष भद्रपद शुक्ल पंचमी लेकर दशमी तक उक्त प्रकार का व्रत पालन करते हुए जब दश वर्ष पूर्ण हो जाये तब उस व्रत का उद्यापन करना चाहिए। उस, अवसर पर शांति विधान या महाभिषेक या इसी प्रकार की कोई महान विधि प्रारम्भ करना चाहिए। समस्त जिनमंदिर को पहले मनोहर पुष्पों से खूब सजाना चाहिए। आंगन में दस रंग का चंदोवा तानना चाहिए। दश ध्वजायें फहराना चाहिए। दश पताका, दश बनजे वाली तारिकाएं (घण्डियां), दश जोडी चमकर और दश धूपघट, ये सब सजाना चाहिए। दश पुस्तकें मंदिर अथवा शास्त्र भण्डार को देना चाहिए तथा देश व्यक्तियों को औषधिदान देना चाहिए। जो व्रतधारी ब्रह्मचारी आदि श्रावक हो उन्हें दश धोतियां देना चाहिए। आर्यिकाओं को वस्त्रादिक प्रदान करना चाहिए। मुनियों को शौच के साधन मकण्डलु, संयम के साधन पिच्दिका, ज्ञान के साधन शास्त्र तथा इसी प्रकार के अन्य धर्म व ज्ञान की साधना में उपयोगी वस्तुओं का यथायोग्य दान करना चाहिए।
उपर्युक्त व्रतोद्यान की विधि यदि अल्प रूप में भी भक्ति सहित की जाय तो बहुत फलदायक होती है। ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि सजावट व दान आदि की विधि यदि थोडी की जायेगी तो उसका फल भी थोडा होगा। साग मात्र का थोडा सा भोजन सुपात्र को कराने से भी रत्नों की वृष्टि रूप महान फल प्राप्त होता है। यह सब मुख्यता से भक्ति का ही प्रभाव है। उस भक्ति के प्रदर्शन का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव के अनुसार बतलाया जाता है। जो कोई नर या नारी इस व्रत का पालन करता है, वह इस जन्म में सुख पाता है, मरकर स्वर्ग में देव होता है और फिर अनुक्रम से सुख भोगता हुआ मोक्षसुख को भी पा लेता है।
सुगन्ध दशमी व्रत की कथा-सुगन्धदशमी व्रत की प्रसिद्धि का कारण उसके सम्बंध में प्रचलित एक कथा है, जो इस प्रकार है-
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के काशी देश में वाराणसी नगर थी। वहां पर राजा भसूपाल राज्य करता था। उसके श्रीमती नामक स्त्री थी। एक समय वह वनक्रीडा को गया तभी राजा ने अपनी समीप से एक मासोपवासी मुनिराज को नगर में आहार ग्रहरण करने हेतु जाते देखा। राजा ने रानी से कहा कि तुम जाकर अपार भक्ति से मुनि को आहार दो। रानी को मन में बडा क्रोध आया। उसने सोचा विघ्न करने वाले ये मुनि ही हैं, इन्होंने मेरा सुख गंवा दिया। मन में दुःखी होते हुए भी वह पति को आज्ञा मानकर चली गई। उसने घर जाकर कडवी तूंबडी का आहार बनाया और उसे मुनिराज को दे दिया। मुनिराज आहार कर चले तो मार्ग में ही उनहें पीडा होने लगी। वे भूमि पर गिर पडे। यह देखकर श्रावकों में कोलाहल हो गया। वहीं पर एक जिनालय था, उपचार हेतु वे उन्हें वहां ले गये। सभी ने रानी के इस प्रकार खोटे आहार देने की निंदा की। जब राजा ने यह बात सुनी तो उसे भी बहुत देख हुआ। उसने रानी को खोटे वचन कहे और उसके वस्त्राभूषण छीनकर बाहर निकाल दिया। दुष्टकर्मोें के प्रभाव से रानी के शरीर में कोढ हो गया। प्राण छोडकर उसने भैंसे के रूप में जन्म लिया। बचपन में ही उसकी मां मर गयी तब यह अत्यंत दुर्बल हो गई। एक बार कीचड में फंस गई। वहीं से उसने किसी मुनि को देखा, तब वह क्रोधित होकर सींग हिलाने लगी, तभी वह और अधिक कीचड में डूब गई और मृत्यु को प्राप्त हो गोकर गर्दभी हुई। वह पिछले पैर से पंगु थी। उसने एक मुनिराज को देख। उन्हें देखकर उसे मन में कलुष परिणाम हुए। उसने उनके ऊपर पिछले पैर का प्रहार किया। प्राण छोडकर वह अपने पाप कर्म के प्रभाव से शूकरी हुई। श्वानादिक के दुःख से युक्त हो वह मरकर चाण्डाल के पुत्री हुई। गर्भ में ज बवह आई तो उसके पिता का देहांत हो गया और जन्म के समय उसकी मां मर गई। जो कोई स्वजन उसका पालन करता था, उसकी मृत्यु हो जाती थी। उस कन्या के शरीर से अत्यधिक दुर्गंध आती थी तब उसे लोगो ने जंगल में छोड दिया।
दुर्गंधा जंगल में कंद मूल फल खाती हुई घमा करती थी वहां एक मुनि महाराज शिष्य सहित एक बार आए। शिष्य ने गुरू से प्रश्न किया कि इतनी भीषण दुर्गंध किसी वस्तु की आ रही है। मुनि महाराज ने कहा- कि जो प्राणी मुनि को दुख देता है वह नाना प्रकार के दुख पाता है। इस कन्या ने पूर्व में मुनि को अधिक दुख दिया था, इसी कारण नाना तिर्यंच योनि में परिभ्रमण कर यह चाण्डाल के घर कन्या हुई है। शिष्य ने गुरू से पूछा- इस कन्या का यह पाप कैसे नष्ट हो सकता है? गुरू महाराज ने कहा कि जिनधर्म को धारण करने से पाप दूर हो जाता है।
गुरू, शिष्य के उपर्युक्त संवाद को उस कन्या ने सुना और उपशम भावों से युक्त हो, उसने पंच अभक्ष्य फलों का त्याग कर दिया। शुद्ध भोजन किया तथा शुद्ध भाव से प्राण छोडे अनन्तर वह उज्जयिनी में एक दरिद्र ब्राह्मण के पुनी हुई। उसके उत्पन्न होते ही माता-पिता मर गये। यह अत्यंत दुखी वृद्धावस्था में एक दिन वन में गई। वहां अश्वसेन नामक राजा जाकर सुदर्शन नामक मुनिराज से धर्म श्रवण कर रहे थे। उसी समय वह कन्या वहां से निकली। मुनिराज ने कन्या की और इंगितकर कहा कि पाप के उदय से ऐूसी हालत होती है। कन्या घास का गट्ठर उतार कर मुनि के वचन जब सुन रही थी, तभी उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। वह मूच्र्छित हो गई। राजा ने उपचार कराकर उसे सचेत किया तथा उसेसे मूच्र्छा का कारण पूछा- कन्या ने अपनी पूर्व जन्म का वृतान्त बतला दिया। यह सुनकर राजन ने मुनिवर से कहा यह कन्या अब कैसे सुख पाएगी? मुनि महाराज ने कहा कि यदि यह कन्या सुगन्धदशमी व्रत का पालन करेगी तो सुख पायेगी।सुगन्धदशमी व्रत की विधि के विषय में प्रश्न पूछने पर मुनि महाराज ने सारी विधि बतला दी।
राजा ने कन्या को बुलाकर धूपदशमी व्रत बतलाया। कन्या ने उसका भक्ति पूवर्क पालन किया। तब उसका पूर्व पाप कर्म नष्ट हुआ। राजा तथा नगरवासियों ने भीउस व्रत को धारण किया।
एक कनकपुर नगर था। उसके राजा का नाम कनकप्रभ था। उस राजा की रानी कनकमाला थी। राजा के एक राज श्रीष्ठी था, जिसका नाम जिनदत्त था। जिनदत्त की स्त्री जिनदत्ता थी। इन दोनो के उपर्युक्त पुत्री ने जन्म लिया। उसका नाम तिलकमती था। वह अत्यधिक रूपवती और सुगंधवती थी। पुनः उसके कुछ पापकर्म का उदय आया, जिससे उसकी मां की मृत्यु हो गई। माता के बिना वह दुख पाने लगी। जिनदत्त ने दूसरा विवाह कर लिया। उसकी नवविवाहिता पत्नी गोधनपुर नगर के वृषभदत्त वणिज की सुता बंधुमती से सेठ की तेजोमती नामक कन्या हुई। बंधुमती तिलकमती से द्वेष करने लगी। तब सेन ने दासियों से तिलकमंती की सेवा करने को कहा।
एक बार राजा कंचनप्रभ ने जिनदत्त को दूसरे द्वीप भेज दिया। जाते समय वह बंधुमती सेठानी से कह गया कि मैं राजा के कार्य से दूसरे देश को जा रहा हूं, तुम तिलकमती तथा तेजमती का विवाह श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त वर के साथ कर देना। सेठ जिनदत्त चले गए। कन्या की सगाई वाले जो भी आते वे तेजोमती की अपेक्षा तिलकवती को अधिक पसंद करते थे। बंधुमती तिलकवती की निंदा करती थी, किंतु कोई भी उसकी बात नहीं मानता था।एक बार उसने तिलकवती को वरपक्ष को दिखलाकर तेजामती के विवाह का निश्चय किया। जब ब्याह के साथ सब लोग आए त बवह तिलकवती का श्रृंगार करके उसे अपने साथरात्रि में श्मसान ले गई। वहां पर उसने चारों और चार दीपक जलाकर रख दिए और बीच में तिलकवती को बैठाकर कहा कि यहां पर तुम्हारा पति आएगा। उसके साथ विवाहकर तुम घल चली आना। ऐसा कहकर वह वहां से चली गई। आधी रात्रि के समय राजा ने अपने महल से श्मशान की तरफ दीपकों की जलती हुई ज्योति देखी और बीच में कन्या को देखा।