1.आत्म शुद्धि-     आत्म शुद्धि जैन पर्वो की प्रमुख विशेषता है। इसके लिए क्रोध, मान माया तथा लोभ रूपकषायो को हटाकर सम्यक श्रद्धा ज्ञान और आचरण को पूर्ण उतारा जाता है। सत्य, अहिंसा, असत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के द्वारा अपनी शुद्धि की जाती है। वाणी मेंस्याद्वाद, विचारो मे अनेकांत वाद और आचार मे अहिंसा की प्रतिष्ठापना की जाती है। आत्मसाधना करते समय उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि सदगुणों के विकास तथा क्रोधादि विकारो के शमन हेतु व्रत, उपवास, एकासन, भक्ति, स्वाध्याय, उपदेश श्रवण आदि प्रधान कृत्य किये जाते है। इन्हीं के द्वारा आत्मा के अन्दर राग-द्वेषादिक विकारो को शांत कर आत्मा मे उत्तरोत्त रसमता की अभिवृद्धि की जाती है। आत्मा को शोधन कर इसे पवित्र और निर्मल बनाया जाता है।
2. नैतिकता के प्रतीक-     आज चतुर्दिक् अनैतिकताओ का कडुआ विषव्याप्त है। ईमानदार बनने की बात हास्यास्पद प्रतीत होती है। जो लोग एक विशुद्ध जीवन जीना चाहते हैं, निष्काम-निर्लिप्त रहना चाहते है, उनके लिए कहीं कोई गुंजाइश नही है। मूल्यो पर भयावह संकट है, पुराने लगभग समाप्त है, नयों के लिए कोई राह नही है। हिंसा झूठ तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला है। यन्त्रो और विकारी पूंजी ने लोभ, लालच और मिथ्याकर्षणो को भरपूर पनपा दिया है। ऐसी स्थिति मे आशा की कोई किरण है तो वह धर्म है। जब संसार के सारे द्वार बंद हो जाते है तब एक दरवाजा फिर भी खुला रहता है और वह है धर्म का। धर्म के विषय में धार्मिक पर्व अधिक जागरूक बनाते है। ये नास्तिकता को हर लेते है और डांवाडोल मनुष्य मे उज्जवल प्रकाश भर देते हैं।
3. आचरण की शिक्षा-     धार्मिक पर्व संसार के प्राणियो को आचरण की शिक्षा प्रदान करते हैं। जैनों की आचरण परम्परायें अत्यंत वैभवशाली हैं। चाहे गृहस्थ हो या साधु हो, प्रत्येक के आचरण के मापदण्ड और नियम जैन धर्म मे निर्धारित हैं। चरित्रहीन ज्ञान निरर्थक है। अंकुशरहित क्रियाये मन को भटकाने वाली है। जो व्यक्ति भ्रष्टाचारी है उसे अत्मिक शांति की उपलब्धि ही नही हो सकती है। जिस व्यक्ति ने अपने तन और मन को संयम की डोरी से बाधा है, उस व्यक्ति का जीवन सफल है।
4. स्वभाव की ओर प्रस्थान-     मनुष्य इस संसार मे भ्रमण करता हुआ दुःख उठारहा है, इसका मूल कारण स्वभाव की ओर उन्मुख नही होना है। जिस प्रकार हिरण जंगल में खुशबू के लिए इधर-उधर दौडता फिरता है, उसे यह भान नही है कि सुगंध उसकी नाभि मे ही है, उसी प्रकार सांसारिक प्राणी पर पदार्थोमे सुख मानता हुआ उनही ही चाहता है। आत्मा के अनन्त सुख की उसे चाह नहीं है। जैन पर्व मनुष्य को परपरिणति से विमुख कर स्वभाव की ओर प्रस्थान करने की प्रेरणा देते है।
विरक्ति की राह पर चलाना-     जैन पर्व खाने, पीने, मौज उडाने और मनोरंजन का साधन नही है। ये सांसारिक विषय भोगो से मनुष्य के मन को हटा कर विराग की ओर ले जाते है। तीतराग इनका आदर्श है। वीतरागी सन्तो से सम्बंध तिथियो मे ही प्रायः ये पर्व आया करते है जिस प्रकार राग द्वेष को त्याग कर तीर्थकरादि मोक्ष पधारे, उसी प्रकार हमे भी सांसारिकता से विरक्त होकर विभक्ति का मार्ग अपना कर मोक्ष प्राप्ति की सतत चेष्टा करना चाहिए, यही इन पर्वो का संदेश है।
6. भेद विज्ञान का उपदेश-     टाज तक जितने भी सिद्ध हुए है वे भेद विज्ञान से ही हुए है। संसार मे जो बद्ध प्राणी है, वे भेद विज्ञान के अभाव से ही बंधे हुए है। जिनके हृदय मे भेद विज्ञान जाग्रत होता है, उनका चित्तचंदन के समान शाीतल हो जाता है। वे मानो जिनेश्वर के ही लघुनन्दन हो कर मोक्ष मार्ग मे क्रीडा करते हैं। उनका सत्यस्वरूप प्रकट होता है, मिथ्यात्वनष्ट हो जाता है तथा शांत दशा हो जाती है। पर्व के दिनो मे बाह्य आडम्बर को दूरकर आत्मा और पर पदार्थों के यथार्ता स्वरूप का चिन्तन करने से हमारा भेद विज्ञान पुष्ट होता है।
7. समस्त जीवो को सुख देना-     स्ंसार मे अन्य वस्तुये तो याचना करने पर, अनुभव करने पर सुख देती भी है और नही भी देती है। धर्म मे ही वह विलक्षणता है कि वह अपना आश्रय करने वाले प्रत्येक प्राणी को सुख देता है। जैन पर्व धार्मिकता से ओतप्रोत हैं, अतः इनसे सभी जीवो को सुख और शांति की उपलब्धि हो सकती है।
8. आत्मा पर विजय-     भगवान महावीर ने कहा था कि संग्राम मे लाखो दुर्जेय व्यक्त्यिो को जीतने की अपेक्षा अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करना परम जय है। जैन पर्व हमे आत्मजयी बनने की प्रेरणा देते हैं। आत्मजयी जीव समभाव का आचरण कर, पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर, नय कर्मों के आगमन द्वार को बंद कर मोक्ष की प्राप्ति मे सफल होते हैं। मोह और मोक्ष से रहित आत्मा का परिणाम ही समता है। यह आत्मजयी को ही प्राप्त हो सकती है।
9. आध्यात्मिकता-     ळमारे देश में धार्मिक पर्वों की कमी नही है। इन दिनो मंदिरो वगैर हमें यज्ञ, हवन, पूजा, गंगा स्नान, तीर्थ यात्रा आदि की बहुतायत रहती है, किंतु ये सब धर्म के कलेवर हैं, धर्म की आत्मा नहीं है। कलेवर की सार्थकता तब है, जब वह आत्मा के धर्माचरण मे सहायक हो। अंतरंग की धार्मिक भावना के बिना कलेवर की सुरक्षा भोगासक्ति ही है। जैन पर्व धार्मिक पर्व आने के साथ-साथ आध्यात्मिक भी हैं। इन दिनो पूजन, एकाशन और उपवास आदि धार्मिक कृत्यों के साथ-साथ आत्मा के गुणों की अगणना की जाती है। इस प्रकार ये पर्व आध्यात्मिकता को पुष्ट करते है।