प्रतिवर्ष भाद्वपद शुक्ल पंचमी से लगातार 5 दिन तक पुष्पांजली पर्व मनाया जाता है। इस व्रत में केतकी आदि विकसित और सुगंधित पुष्पों से चैबीस तीर्थकरों की पूजा करना चाहिए। यदि ये पुष्प न मिलें (अथवा वास्तविक पुष्प से पूजन करना उपयुक्त न समझें) तो पीले चावलों से भगवान की पूजा करना चाहिए। पांच वर्ष के पश्चात व्रत का उद्यापन करना चाहिए। इस व्रत का परमफल केवल ज्ञान की प्राप्ति है। तिथिक्षय में यह व्रत एक दिन पहले से और तिथिवृद्धि में एक दिन अधिक व्रत किया जाता है। पुष्पांजली व्रत में पंचमी और षष्ठी इन दोनों दिनों का उपवास, सप्तमी को पारणा, अष्टमी और नवमी का उपवास तथा दशमी को पारणा की जाती है। एकान्तर उपवास करने वाले को (अर्थात एक दिन उपवास, दूसरे दिन पारणा, पुनः उपवास तत्पश्चात पारणा इस क्रम से उपवास करने वाले को) तिथिक्षय होने पर एक दिन पहले से व्रत करने के कारण मध्य में दो-पराणायें करना चाहिए। पंचमी और अष्टमी की पारणा अथवा षष्ठी और अष्टमी की पारणा की जाती है। एकांतर उपवास और पारणा का क्रम चल सके, ऐसा करना चाहिए। यह पुष्पांजली व्रत कर्मरूपी रोक को हरने वाला तथा परम्परा से मुक्ति को प्रदान करने वाला होता है1।
उपवास के समय जलादि अष्ट द्रव्य, भंडार, घण्टा, तोरणमालिका चंदोवा, दीपमाला, धूपदहनपात्र तथा भमण्डल आदि पृथकपृथक रूप से पांच-पांच वस्तुयें लाकर तथा खाजा, मोदक इत्यादि 25 स्वाद्य और खाद्य वस्तुयें इस दिन जिनमंदिर में लाना चाहिए। पंचरत्न के चूर्ण से सुंदर पच्चीस मण्डल बनाये तथा उसके मध्य में कर्णिका से युक्त मेरू बनायें। अनन्तर गन्धकुटी में स्थित जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके शास्त्र और गुरू की भी क्रम से पूजा करें। अनन्तर गुरू की आज्ञा से उस मण्डल की पूजा के लिए जाकर सर्वप्रथम आह्वाहन, स्थापन तथा सन्निधापन करे अनन्तर जाप और स्तुति कर पुष्पांजली का क्षेपण करे। पुष्पांजली क्षपण कर
1. आचार्य सिंहनन्दीः व्रततिथिनिर्णय पृ. 244-245 पंचमेरू की कर्णिका के विषय में अष्टक पढे। अनन्तर इसके समीप वर्ती पद्मों में से प्रत्येक की पूजाकर पूर्णाध्र्य दे तथा मन में जाप्य करे1।
इस प्रकार उपर्युक्त व्रत का संबंध पंचमेरू संबंधी जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं की अर्चना से है। भद्रपद शुक्ली की पंचमी से लेकर नवमी तक के दिन बडे सुखदायक हैं, क्योंकि पंचमेरू सम्बंधी जिन चैत्यालयों से आकर देवलोग वहां पर स्थित जिन प्रतिमाओं की अष्टद्रव्य से अर्चना करते हैं,उनके आगे नृत्य करते हैं, जिनेन्द्र भगवान के गुणों का वर्णन करते हैं तथा कुसुमवृष्टि इत्यादि करते हैं। इसी कुसुमवृष्टि के प्रतीक के रूप में ही पांच प्रकार के पुष्पों से इन दिनों भगवान की पूजा की जाती है। इस प्रकार इस व्रत का नाम पुष्पांजली सार्थक हो जाता है।
जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा में सीता नदी है। वहां मंगलावती देश के रत्नसंचयपुर में राजा वज्रसेन राजय करते थे। उनकी रानी का नाम जयवंती था। उन दोनों के कोई पुत्र नहीं था। एक बार रानी ने जिन मंदिर में विराजमान मुनिराज को नमस्कार कर पूछा कि मुझे पुत्र होगा या नहीं? मुनि महाराज ने कहा कि तुम्हारे छह खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती पुत्र होगा तथा अंत में वह मोक्ष को प्राप्त करेगा। क्रम से नवमास पूर्णकर रानी ने पुत्र प्रसव किया। पुत्र का नाम रत्नशेखर रखा गया।
एक दिन रत्नशेखर अपने मित्रों के साथ क्रीडा कर रहा था तब मेधवाहन नाम एक विद्याचर ने उसे देखा और प्रमुदित हो उसे पांच सौ विद्यायें प्रदान कर दी।दोनों प्रगाढ मित्र बन कर मेरू पर्वत की वंदना के लिए गये। वह विजयार्द्ध पर्वत के सिद्धकूट चैत्यालय में पूजा स्तवन कर रंगमण्डप में बैठा था कि रथनूपुर नगर की राजकन्या मदनमंजूषा सखियों सहित दर्शनार्थ वहां आई और रत्नशेखर को देखकर मोहित हो गई। राजा रानी ने उसकी उदासी का कारण जानकर स्वयंवर मण्डप आयोजन किया। स्वयंवर में रत्नशेखर भी सम्मिलित हुआ। कुमारी ने वरमाला रत्नशेखर के गले में डाल दी। धूमकेतु विद्याचर ने यह देखकर मन में विशेष 1. दि. जैन व्रतोद्यापन संग्रह (ईडर प्रकाशन) पृ. 401-402 क्रोध किया। कन्या के लिए उसने दृष्टता पूर्ण आचरण किया। विद्या के बल से उसने अनेक प्रकार की माया की तथा रत्नशेखर से युद्ध किया। रत्नशेखर ने उसे जीतकर कन्या का पाणिग्रहण किया। वह मदनमंजूषा रानी के साथ अपने घर आया। वज्रसेना तथा उसकी रानी उसे देखकर अत्यधिक प्रमादित हुए।
एक दिन इष्टमित्रों के साथ सभी लोग सुदर्शनमेरू की वंदना के लिए गए। वहां उसने दो चारणमुनियों की वन्दना की तथा प्रार्थना की कि मदनमंजूषा तथा मेघवाहन का मुझ पर अधिक प्रेम क्यों हैं? कृपाया पूर्वजन्म के संबंध का वर्णन कीजिए। मुनिराज बोले- हे राजन ध्यान देकर सुनो। एक मृणाल नाम का नगर है। वहां पर एक श्रुतकीर्ति नाम का राजमंत्री था। उसकी बंधुमती नामक स्त्री थी। एक दिन वह वनक्रीडा के लिए गया हुआ था। ज बवह अपनी स्त्री के साथ रमण कर रहा था तभी एक सर्प ने उसकी स्त्री को डस लिया। मंत्री ने अपनी स्त्री को मृतक देख विरक्त हो जिनालय में जाकर दीक्षा ले ली। यथा शक्ति कुछ दिन तप किया। अनन्तर भ्रष्ट हो पुनः गृहारम्भ करने लगा। तबउसकी पुत्री ने कहा - हे पिता जी! आप मेरू पर किस कारण चढकर पुनः लज्जा छोडकर संसार रूपी सागर में पड गये है। प्रभवती के इन सारपूर्ण वचनों को सुन मंत्री ने उस पर क्रोध किया। उसने विद्या को आज्ञा दी। विद्या पुत्री को वनल में ले गई।
प्रभवती मन में चिंतित हुई, उसने मन में जिनेन्द्र भगवान का स्मरण कया। तब वहां विद्या ने प्रकट होकर कहा कि हे पुत्र। तुम जहां बतलाओं मैं तुम्हें वहीं ले चलूं। पुत्री ने कहा - मुझे कैलाश्ज्ञ पर्वत पर ले चलो, मुझे जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की अत्यधिक रूचि है। देवी उसे वहां ले गई। वहां उसने अर्हन्त बिम्ब के दर्शन किए। वह दर्शन कर बैठी ही थी कि वहां पर देवगण आए, पद्मावती भी आई। प्रभवती ने पद्ावती से पूछा- आज यहां इतने देव, देवी किस कारण आए हैं? पद्मावती ने सारपूर्ण वाणी में कहा - आज पुष्पांजली व्रत है। यह व्रत भादों सुदी पंचमी से आरम्भ होता है और पांच दिन तक चलता है। इसमें यथाशक्ति प्रोषध करना चाहिए तथा चैबीसों तीर्थकरों की पूजा करनी चाहिए। नाना प्रकार के पुष्पों की माना लेकर उसे जिनप्रतिमा के आगे तीन बार चढाना चाहिए। बहुत भक्ति से युक्त हो विनय का आचरण करना चाहिए तथा -ऊँ ही पंचमेरू सम्बंधयशीति जिनालयेभ्या नमः’ मंत्र का जाप करना चाहिए। इस प्रकार पांच वर्ष व्रत कर उद्यापन करना चाहिए तथा चारप्रकार का दान देना चाहिए। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दूना व्रत करना चाहिए। यह सुनकर प्रभावती ने व्रत धारण कर लिया। पांच वर्ष तक व्रताचरण कर उसने विधि पूर्वक उद्यापन किया। पद्मावती देवी उसे मृणालपुर ले आई वहां उसने स्वयम्प्रभ मुनि के समीप दीक्षा ले ली। वह दुर्धर तप करने लगी।
उसने तप का माहात्म्य उसके पिता को सहन नहीं हुआ। उसने उसके ऊपर विद्याओं के द्वारा अनेक उपसर्ग कराए। उन उपसर्गों से प्रभावती किंचित भी विचलित नहीं हुई और समाधिपूर्वक मरण कर अच्युत स्वर्ग में पद्मानाभ नामक देव हुई। देव ने स्वर्ग में विचाार किया कि मैं पूर्व पुण्य के उदय से यहां उाया हूं। मेरा पिता भ्रष्ट आचरण वाला है, मैं उसे संबोधित करूं। यह विचार कर देव आया औरउसने पिता का समाधिमरण कराया।
वह उसी स्वर्ग में देव हुआ। बन्धुमती माता का जीव उसी स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। तू प्रभावती का जीव स्वर्ग से आकर यहां रत्नशेखर हुआ है तथा माता का जीवन मदनमंजूषा हुआ है। श्रुतकीर्ति का जीव मंत्री मेघवाहन हुआ है। व्रत का फल तथा गुरू की वाणी सुनकर उसने पुनः व्रत धारण किया। अपने स्थान पर आकर चक्रवर्ती पद के वैभव को भोगा। समय पाकर उसे वैराग्य हुआ उसने राज्यभार पुत्र को देकर त्रिगुप्ति मुनि के चरणों में दीक्षा ले ली। जब रत्नशेखर ने दीक्षा ली तभी मेधवाहन भी मुनि हो गया। उन्होंने दुर्धर तप कर केवलज्ञान की प्राप्ति की अनन्तर आघातिया कर्मों का विनाश कर मोक्ष प्राप्त किया। जो कोई इस व्रत का पालन करेगा, वह इस प्रकार अजर-अमर पद का स्वामी होगा।