।। रक्षा बन्धन पर्व ।।

प्रतिवर्ष श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को रक्षाबंधन पर्व आता है। यह अत्यंत प्राचीन पर्व है। इसकी उत्पति उठारहवें तीर्थकर अरहनाथ के तीर्थ में हुई थी। इस पर्व का प्रादुर्भाव महामुनि विष्णु कुमार के निमित्त से हुआथा, अतः यह कर्मी पर्व है। जो पुराकृत शुभाशुभ कर्म हैं उनका शुभाशुभफल अवश्य ही प्राप्त होता है अतः वीतराग भाव की प्राप्ति करना प्रत्येक के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। यह इस पर्व का संदेश है। इसकी कथा1 इस प्रकार है।

अवन्तीदेशम ें उज्जयिनी नगरी में राजा श्रीवर्मा था। उसकी रानी श्रीमती थी और बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद, तथा नमुचि, ये चार मंत्री थे। एक बार उज्जयिनी में समस्त श्रुत के धारी, दिव्यज्ञानी सात सौ मुनियों के साथ अकम्पनाचार्य आकर उद्यान के वन में ठहर गये। आचार्य ने समस्त संघ से कहा कि यदि राजादिक भी आये तो भी कोई मुनि बोले नहीं, अन्यथा समस्त संघ का नाश हो जायेगा। ‘‘धवलगृह पर स्थित राजा ने हाथ में पूजा की सामग्री लेकर नगर के लोगों को जाते हुए देखकर मंत्रियों से पूछा- यह लोग असमय में ही कहां जा रहे है?’’ मंत्रियों ने कहा- ‘‘बहुत से जैन मुनि नगर के बाहर में आए हुए है, वहां पर यह लोग जा रहे हैं। हम भी उनके दर्शन के लिए चलें, ऐसा कहकर राजा भी चारों मंत्रियों के साथ गया। प्रत्येक मुनि की सभी ने वन्दना की, किंतु किसी ने भी आशीर्वाद नहीं दिया। राजा ने सोचा दिव्य अनुष्ठान के कारण अत्यंत निःस्पृह ये मुनि बैठे है, अतः वह वापिस लौटने लगा। रास्ते में दुष्ट अभिप्राय धारक मंत्रियों ने उपहास किय कि ‘‘ये मूर्ख बैल हैं- कुछ भी नहीं मानते है अतः दम्भ से मौनपूर्वक बैठे हैं।’’ इस प्रकार बोलते हुए जब वे आग्र जा रहे थे, तभी आगे चर्याकर श्रुतसागर मुनि को आते हुए देखकर उन मंत्रियों में से किस ने कहा- ‘‘यह तरूण बैल, पेट भर कर आ रहें है।’’

यह सुनकर श्रुतसागर मुनि ने राजा के ही सामने उन मंत्रियों को शास्त्रार्थ में ही जीत लिया तथा आकर अकम्पनाचार्य से समाचार कहा।

आचार्य श्री ने कहा - ‘‘तुमने सारे संघ को मार दिया। यदि शास्त्रार्थ के स्थान में जाकर रात में तुम अकेले ठहरते हो तो संघ जीवित रहेगा तथा तुम्हारी शुद्धि होगी।’’ अनन्तर श्रुतसागर मुनि वहां जाकर कायोत्सर्ग पूर्वक खड़े हो गये। अत्यंत लज्जित क्रुद्ध मंत्रियों ने रात्रि में संघ को मारने के लिए जाते समय उन एक मुनि को देखकर- ‘‘जिसने हमारा निरादर किया, उसे ही मारना चाहिए’’ ऐसा विचारकर उनके वध के लिए एक साथ चार तलवारें खींची। इस समय नगरदेवी का आसन कम्पायमान हुआ। उसने उन मंत्रियों को उसी अवस्था में कील दिया। प्रातः काल समस्त लोगों ने उन्हें उसी प्रकार देखा। राजा बहुत रूष्ट हुआ, किंतु ये मंत्री कुल परम्परा से आगत है, ऐसा जानकर उन्हें उसने नहीं मारा। उन्हें गधे पर चढ़ाना आदि कराकर देश से निकाल दिया।

कुरूजड्गल देश के हस्तिनागपुर में राजा पद्मरथ था। उसकी रानी का नाम लक्ष्मीमति था। उसके पद्म और विष्णु दो पुत्र थे। एक बार पद्म को राज्य देकर महापद्म विष्णु के साथ श्रुतसागरचन्द्राचार्य के समीप मुनि हो गये। वे बलि आदि मंत्री आकर राजा पद्म के मंदत्री हो गये। कुम्भपुर नगर में राजा सिंहबल था, वह दुर्ग के बल से पदघ््म के मण्डल के ऊपर उपद्रव करता था। उसे पकडने की चिंता के कारण पद्म को दुर्बल देखकर बलि ने कहा- ‘‘महाराज दुर्बलता का क्या कारण है?’’ राजा ने उससे अपनी दुर्बलता का कारण कहा। वह सुनकर आदेश मांगकर कुम्भपुर जाकर बुद्धि के माहात्म्य से दुर्ग तोड़कर सिंहबल को पकडकर लौटकर उसे पद्म को समर्पित कर दिया। ‘‘महाराज! वह सिंहबल यह है?’’ संतुष्ट होकर उसने कहा- ‘‘इच्दित वर मांगो।’’ बलि ने कहा- ‘‘वह मांगूगा, तब दीजिएगा।’’

अनन्तर कुछ दिनों में विाहर करते हुए वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि हस्तिनागपुर आए। नगर में चहल-पहल होने पर बलि आदि ने भयपूर्वक विचार किया कि राजा इनका भक्त है। अतः संघ को मारने के लिए पहले से ही पद्म से प्रार्थना की- ‘‘हमें सात दिना के लिए राज्य दीजिए।’’ अनन्तर पद्मरीाज सात दिन का उन्हें राज्य देकर अपने अंतःपुर में रहने लगे। बलि ने आतापन गिरि पर कायोत्सर्ग से स्थित मुनियों को बाड़ से घेरकर मण्डप बनाकर यज्ञ करना आरम्भ किया। छोडे हुए सकोरे तथा बकरे आदि, जीवों के कलेकर और धुयें से मुनियों को मारने के लिए उपद्रव किया। मुनि आभ्यन्तर और बाह्य संयास पूर्वक स्थित हो गये।

अनन्तर मिथिलानगरी में आधी रात्रि के समय बाहर निकलते हुए श्रुतसागरचन्द्र आचार्य ने आकाश में श्रवणनक्षत्र को कांपता हुआ देखकर अवधिज्ञान से जानकर कहा- ‘‘महामुनियों के ऊपर महान उपसर्गहो रहा है।’’ उसे सुनकर पुष्पदन्त नामक वि?ाधर क्षुल्लक ने पूछा- भगवान! कहां पर? किन मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है? आचार्य ने कहा- ‘‘हस्तिनागपुर में अकम्पनाचार्य आदि मुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा।’’ क्षुल्लक ने पूछा- ‘‘वह उपसर्ग कैसे नष्ट होगा?’’ आचार्य ने उत्तर दिया- ‘‘धरणिभूषण पर्वत पर विष्णुकुमार मुनि ठहरे है। उन्हें विक्रिया ़ऋद्धि प्राप्त है, वह उपसर्ग नाश करेंगे।’’ यह सुनकर उनके समीप जाकर क्षुल्लक ने सब वृत्तान्त सुनाया। विष्णुकुमारने क्या मुझे विक्रियाऋद्धि है? यह विचारकर विक्रिया ऋद्धि की परीक्षा के लिए हाथ फैलाया। वह हाथ पर्वत को भेदकर दूर चला गया। अनन्तर विक्रिया ऋद्धि का निर्माण कर हस्तिनागपुर जाकर उन्होंने पद्मराज से कहा- ‘‘क्या मुनियों के ऊपर उपसर्ग तुमने कराया है? आपके कुल में किसी ने भी ऐसा नहीं किया।’’ पद्मराज ने कहा- ‘‘क्या करूं? पहले इन्हें मैंने वर दे दिया है?’’

अनन्तर विष्णकुमार मुनि ने वामन ब्राह्मण का रूप धारण कर दिव्यध्वनि से प्रार्थना की। बलि ने कहा- ‘‘आपको क्या दूं?’’ उन्होंने कहा- ‘‘तीन डग भूमि दीजिए।’’ ‘‘हठी ब्राह्मण! अन्य बहुत मांगो,’’ इस प्रकार बारम्बार लोगों के द्वारा कहे जाने पर भी वे वही मांगने लगे। हाथ में जल लेने आदि की विधि से तीन पैर भूमि दिए जाने पर उन्होंने एक पैर मेरू पर रखा,दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर, तीसरे पैर से देवविमान आदि में क्षोभ उत्पन्न कर बलि की पीठ पर उस पैर को रखकर बलि को बांधकर मुनियों के उपसर्ग का निवारण किया। अनन्तर वे चारों मंत्री और पद्म भयवश आकर विष्णुकुमार और अकम्पनाचार्यादि मुनियों के पैरों मेंु पड़ गए। वे मंत्री श्रावक हो गए। व्यंतरदेवों ने सुघोष नामक तीन वीणायें विष्णुकुामर के चरणों की पूजा के लिए दी।

उपयुक्त कथा आचार्य प्रभाचन्द्र ने वात्सल्य नामक सम्यक्त्व के अंग के उदाहरणस्वरूप दी है। वात्सल्य का लक्षण आचार्य समन्तभद्वने इस प्रकार कहा है-


स्वयूथ्यान् प्रति सद्भावसनाथपेतकै ववा।
प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते।। 17 ।।

स्वयूथ्य-अपने सहधर्मी सम्यदर्शन ज्ञान चरित्र रूप धर्म के धारक मनुष्यों के साथ अच्छे भावों से और कपट रहित योग्यता के अनुसार आदर सत्कार करना वात्सल्य कहा जाता है।

विष्णुकुमार मुनि ने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर मुनियों के ऊपर किए जा रहे घोर उपसर्ग को दूर किया और प्रायश्चितपूर्वक पुनः दीक्षा धारण कर आत्मसाधना में लीन हो गए। उक्त उपसर्ग श्रावण शुक्ल 15 को दूर हुआ था। इसी की स्मृति में यह रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।

अकम्पनादि आचार्य भीषण उपसर्ग आने पर मेरू के समान अडिग रहे। इस प्रकार उन्होंने अकम्पनत्व को सार्थक किया और सम्यक्त्व के निःशंकित अंग को पुष्ट किया। ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ में निःशंकित अंग का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है-इदमेवेद्रशं चैवतत्वं नान्यत्र चान्यथा।

इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गे संशयारूचिः ।।11।।

तत्व यही है, ऐसा ही है, दूसरे प्रकार का नहीं है, इस प्रकार मोक्षमार्ग में तलवार के पानी के समान जिस में शंकारहित अचल श्रद्धा होती है, वह निःशकित सम्यग्दर्शन है। तात्पर्य यह कि जैसे तलवार का पानी पवन के द्वारा चंचल नहीं होता है उसी प्रकार सचे देव, गुरू और शास्त्र के स्वरूप के प्रति मिथ्यादृष्टियों के वचनरूप पवन के द्वारा जो संशय कोप्राप्त नहीं होता है, वह निःशंकित अंग का धारक होता है। ऐसे व्यक्ति को इहलोक, परलोक, मरण, वेदना, अनश्रखा अगुप्ति तथा अकस्मात् भेद की अपेक्षा सात प्रकार का भय नहीं होता है। अकम्पनाचार्य आदि ने उपयुक्त सात प्रकार के भयों पर विजय प्राप्त की। अहिंसा को ही उन्होंने धर्म निश्चित किया।

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