प्रतिवर्ष चैत्रकृष्ण नवमी को ऋषभ जयन्ती पर्व मनाया जाता है। इस दिन जैनधर्म के आदि प्रवर्तक तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म हुआ था। वर्तमान अवसर्पिणी के तृतीय काल में चैदह मनु (कुलकर) हुए जिनमें चैदहवें कुलकर नाभिराय थे। इन्हीं नाभिराय और उनकी पत्नी मरूदेवी से चैत्रकृष्ण नवमी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक पुत्र का जन्म अयोध्या में हुआ था। इन्द्रों ने बालक का सुमेरू पर्वत पर अभिषेक महोत्सव करके ‘ऋषभ’ यह नाम रखा।
ऋषभदेव के हिरण्यगर्भ, स्वयम्भू, विधाता, प्रजापति, इक्ष्वाकु, पुरूदेव, वृषभदेव, आदिनाथ इत्यादि अनके नाम पाए जाते हैं। महापुराण के अनुसार चूंकि उनके स्वर्गावतरण के समय माता ने वृषभ को देखा था, अतः वे वृषभ नाम से पुकारे गए1। कल्पसूत्र में उपुर्यक्त कारण के अतिरिक्त उनके उरूस्थाल पर वृषभ का चिन्ह होने का कारण भी उल्लिखित किया है2। भागवत पुराण के अनुसार उनके सुन्दर शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश और पराक्रम प्रभृति सदगुणों के कारण महाराजा नाभि ने उनका ऋषभ नाम रखा3। वृषभदेव जगत् भर में ज्येष्ठ हैं और जगत का हित करने वाले धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेंगे, एवदर्थ ही इन्द्र ने उनका नाम वृषभदेव रखा4। वृष श्रेष्ठ को करते हैं। भगवान् श्रेष्ठ धर्म से शोभायमान हैं, इसलिए भी इन्द्र ने
1. स्वर्गावतरणे द्रष्टः स्वप्नेस्य वृषभो यतः। जनन्यां तदयं देवैः आहूतों वृषभाख्याया ।। महापुराण 14/162 2. पूर्व स्वप्नसमये वृषभस्य दर्शनात् पुत्रस्योभयोर्जड्घयोः रोम्णाम् आवर्तभ्रमणावलोकाद् वृषस्यारकस्य लांछान् नाभिकुलकरेण ‘ऋ़षभ’ इतिनाम दत्तम्। 3. तस्यह वा इत्थं वष्र्मणा वरीयसा वृषच्छलोकेन चैजसा बलेन, श्रिया, यशसा, वीर्यशौर्याभ्यां च पिता ऋषभ इतीद नाम चकार। 4. वृषभोंयं जगज्जेष्ठो वर्षिष्यति जगद्धितम्। धर्मामृतमितीन्द्रास्तम् अकाषुर्वृर्षभाह्यम्। महापुराण 14/160
उन्हें वृषभस्वामी के नाम से पुकरा5। जब वे गर्भ में थे तभी सबको हिरण्य-स्वर्ण की वृष्टि हुई थी, इसलिए देवों ने उन्हें हरिण्यगर्भ कहा6। वर्तमान जन्म से पूर्व तीसरे जन्म में जो तीन ज्ञान प्रकट हुए थे उन्हीं के साथ वे उत्पन्न हुए इसलिए स्वयम्भू कहे जाते हैं7। उन्होंने भरत क्षेत्र में नाना प्रकार की व्यवस्थायें की, अतः वे विधाता कहें जाते हैं8। वे सब ओर से प्राजा की रक्षा करते हुए अपूर्व ही प्रभु हुए, अतः प्रजापित कहलाते हैं9। उनके रहते हुए प्रजा ने इक्षुरस का आस्वादन किया, इसलिए उन्हें इक्ष्वाकु कहते हैं10। वे समस्त पुराण पुरूषों में प्रथम थे, महिमा के धारक और महान थे तथा अतिशय देदीप्यामन थे, अतः उन्हें पुरूदेव कहते हैं11। आवश्यक चूर्णि के अनुसार जब ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम के थे, उस समय वे पिता की गोद में बैठे हुए क्रीडा कर रहे थे शक्रेन्द्र हाथ में इक्षु लेकर आया। ऋषभदेव ने उसे लेने के लिए हाथ आगे बढाया। बालक का इक्षु के प्रति आकर्षण देखकर शक्र ने इस वंश को इक्ष्वाकु वंश नाम से अभिहित किया12। धर्मकर्म के आदि निर्माता होने के कारण ऋषभदेव को आदिनाथ भी कहा जाता है।
5. वृषो हि भगवानन्धर्मः तेन यद्भाति तीर्थकृत। ततोऽयं वृषभस्वामी त्याह्वास्तैर्न पुरन्दरः ।। महापुराण 14/161 6. हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गभंस्थेऽपि यतस्त्वयि। हिरण्यगर्भइत्युच्चैगीर्वाणैर्गीयसे ततः ।। हरिवंशपुराण 8/206 7. सह ज्ञानत्रयेणात्र तृतीयभवभाविना। स्वयंम्भूतोऽतस्त्वं स्वयम्भूरिति भाष्यसे ।। वही 8/207 8. व्यवस्थानां विधाता त्वं भविता विविधात्मनाम्। भारते यत्ततोऽन्वर्थं विधातेत्यभिधीयसे ।। वही 8/208 12. भगवता लट्ठीसु दिट्ठी पाडिता। ताहे सक्केण भणियं - कि भगवं! इक्खुअकु। अकु भक्खणे, ताहे सामिण पसत्थो लक्खणधरी अलंकित विभूसितो दहिणहत्यों पसारितो, अतीव तम्मि हरिसो जातो भगवन्तस्स, तएणं सक्कस्स देविंदस्स अयमेयारूवे अत्थत्थितेजम्हा णं तित्थगरो इक्खुं अभिलसति तम्हा इक्रवागुवंसो भवतु, एवं सक्को वसं ठवेऊण गतो अन्नेऽवि तं काल खत्तिया इक्खुं ‘भुंजन्ति तेण इक्खागवंसा जाता इति उवरि आहारद्दारे निरूत्तंमि ‘आसी’ य इक्खुभोती इक्खागा तेण खतिया होति’ भन्निही।
ऋषभदेव 15 वें मनु और प्रथम तीर्थकर थे। जब वे युवा हुए तो नन्दा और सुनन्दा नामक यौवनवती कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ। नन्दा ने भरत नामक चक्रवर्ती पुत्र को ब्राहह्मी नामक पुत्री को युगकल रूप में उत्पन्न किया। इन्हीं भरत के नाम से इस देश कानाम भारत पड़ा। विष्णुपुराण में कहा गया है-
नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत्। तस्य नाम्नात्विद वर्ष चेति कीत्र्यते।।
सुनन्दा नामक दूसरी रानी ने बाहुबली नामक पुत्र तथा संसार में अतिशय रूपवती सुन्दरी नामक पुत्री को जन्म दिया। भरत और ब्राहह्मी के अतिरिक्त नन्दा रानी के वृषभसेन आदि अट्ठानवे पुत्र और हुए। उनके ये सभी पुत्र चरमशरीरी (उसी जन्म से मोक्ष जाने वाले) थे। भगवान ने अतिशय बुद्धि से सम्पन्न अपने समस्त पुत्रों के साथ-साथ ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों पुत्रियों को अक्षर, चित्र, संगीत और गणित आदि विद्यायें सिखाईं। लिपि विद्या को भगवान ने विशेष रूप से ब्राह्मी को सिखाया, इसी के आधार पर उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि पड़ गया। ब्राह्मी लिपि विश्व की आद्य लिपि है।
भगवान् ऋषभदेव के समय वन सभ्यता बिखर रही थी। जनसंख्या बढ़ने लगी। उपभोक्ता अधिक होते जा रहे थे, परंतु उनकी तुलना में उपभोग सामग्री अल्पं थी। ऐसी स्थिति में संघर्ष अवश्यम्भावती था, और वह हुआ भी। क्षुधातुर जनता वुक्षों के बंटवारे के लिए लड़ने लगी। सब ओर आपाधापी मच गई। भगवान ऋषभदेव ने अक्त विषय स्थिति में अभावग्रस्त जनता का योग्य नेतृत्व किया। उन्होंने घोषणा की कि अकर्मभूमि का युग समाप्त हो रहा है, अब जनसमाज को कर्मभूमि युग का स्वागत करना चाहिए। प्रकृति रिक्त नहीं है। अब भी उसके अंतर में अक्षय भण्डार छिपा है। पुरूष हो, पुरूषार्थ करो। अपने मन मस्तिष्क से सोचो, विचारों और उसे हाथों से मूर्त रूप दो। श्रम में ही श्री है, अन्यत्र नहीं। एक मुख है खाने वाला तो हाथ दो हैं खिलाने वाले। भूखों मरने का प्रश्न ही कहां हैं? अपने श्रम के बल पर अभाव को भाव से भर दो। भगवान ऋषभदेव ने कृषि का सूत्रपात किया। अनेकानेक शिल्पों की अवतारणा की। कृषि और उद्योग में अदभुत सामंजस्य स्थापित किया कि धरती पर स्वर्ग उतर आया। कर्मयोग की वह रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन जीवन में सब ओर नव वसंत खिल उठा, महक उठा1। जनता ने उन्हें अपना स्वामी माना और धीरे-धीरे बदलते हुए समय के अनुसार वर्णव्यवस्था, दण्ड व्यवस्था, विवाह आदि समज व्यवस्था का निर्माण हुआ।
ऋषभदेव विषयक मान्यतायें -: भागवत पुराण में ऋषभदेव को विष्णु का आठवां अवतार स्वीकार किया गया है। यहां कहा गया है कि भगवान विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके अन्तःपुर की महारानी मरूदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छासे ग्रहण किया2। यहां उनके ऊपर दुष्ट व्यक्तियों द्वारा किए गए अनेक दारूण उपद्रवों तथा भगवान द्वारा उन्हें समता से सहलाने का वर्णन हैं3।