श्ज्ञिव महापुराण के अनुसार भगवान श्री ऋषभदेव शिव के अट्ठाईस योगावतारों में आठवें योगावतार हैं4। इसी प्रकार का कथन प्रभासपुराण में भी हैं5। अग्निपुराण में लिखा है -
जरामृत्यु भयं नास्ति धर्माधर्मों युगादिकम्। ना धर्म महायमं तुल्याहिमद्देशातु नाभितः। ऋषभो मरूदेव्यां च वृषभात् भरतोऽभवत्।।
इसके अतिरिक्त कूर्म पुराण, वाराहपुराण, मार्कण्डेयपुराण तथा वायुपुराण आदि में भी ऋषभदेव सम्बंधी उल्लेख मिलते हैं। ऋग्वेद के हिरण्यगर्भसूक्त में कहा गया है -
1. ऋषभदेवः एक परिशलीन (उपाध्याय अमरमुनिलिखित प्रस्तावना)
2. श्रीमद भगवत् पंचमस्कंध।
3. वही 5/30/564
4. शिवपुराण उत्तरखण्ड (वायुसंहिता)
वहीं 4/47/48
5. कैलासे वृषभे रम्ये वृीोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारंच सर्वज्ञः सर्वगःशिवः।।
प्रभासपुराण 49
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः परिरेक आसीत्। स दधार पृथ्वी उतद्याम् कस्मै देवाय ह्यविषा विधेम।।
अर्थात ‘‘हिरण्यगर्भ सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए, वह प्राणीमात्र के एक मात्र स्वामी थे। उन्होंने पृथ्वी और आकाश को धारण किया। हम भाव के द्वारा किस देव की आराधना करें?’’
विक्रम की नौवीं शती के जैनाचार्य जिनसेन ने महापुराण में ऋषभदेव को हिरण्यगर्भ कहा है। जैन मान्यतानुसार जब ऋषभदेव गर्भ में आए तो आकाश से स्वर्ण की वर्षा हुई, इसी से वे हिरण्यगर्भ कहलाए। ‘कस्मैं देवाय हविषा विधेम’ के ‘कस्मै’ शब्द के विषय में विद्वानों की अनेक धारणायें हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि ऋग्वेद कालीन ऋषि स्वयं कौतहल य संदेह युक्त है कि वह किस देव को हवि दें। उन्हें अपने आराध्य का असली या स्पष्ट स्वरूप ज्ञात नहीं है। एक विचारधारा के अनुसार कः शब्द प्रजापति का वाचक है। आचार्य समन्तभद्र ने जीने की इच्छा रखने वाली प्रजाओं को कृषि आदि कार्यों में लगाने के कारण ऋषभदेव को प्रजापति कहा है1। इस प्रकार कः शब्द का प्रजापति अर्थ ग्रहण करने पर इसे ऋषभदेव का वाचक माना जा सकता है।
ऋषभदेव और शिव के एक होने के लोगों ने अनेक प्रमाण दिए हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
1 ऋषभदेव ने साधक अवस्था में नग्न दिगम्बर वेष को अपनाया। शिव भी दिगम्बर वेषधारी स्वीकार किए जाते हैं?
2 ऋषभदेव की तप तथा निर्वाणभूमि कैलाशपर्वत मानी जाती है। शिव का भी निवास कैलाश माना जाता है। भगवान ऋषभदेव का कैलाशपर्वत से निर्वाण हुआ तो चक्रवर्ती भरत ने उनके निर्वाण कल्याणक के उपलक्ष्य में कैलाश पर्वत के आकार के गोल घण्टे लटकाए। इन्हीं गोल घण्टों की पूजा बाद में
1. प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः। शशस कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः।। प्रबुद्धतत्वः पुनरद्भुतोदयो। ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ।।वृहत्स्वयम्भू स्तो. - 1
शिवलिंग के रूप में की जाने लगी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
3 शिव का वाहन वृषभ है और ऋषभदेव का चिन्ह भी वृषभ है।
4 हिमवत् पर्वत के पद्म द्रह से गंगा नदी निकल कर जिस स्थान पर गिरती है, वहां जटाजूट वाली खडगासन अकृत्रिम ऋषभदेव की मूर्ति है1। शिव के जटाजूट में गंगावतरण कहा जाता है।
5 शिव के अंधकासुर नाशक त्रिशूल से मिथ्यात्वान्धकार नाशक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय ग्रहण किए जा सकते हैं।
6 शिव के विषपात से ऋषभदेव के विकार पान का आशय है।
7 शिव को पशुपति कहा जाता है। ताण्ड्य और शतपथ ब्राहह्मण में ऋषभ को पशुपति कहा है -
ऋषभों वा पशूनामधिपतिः। शशस कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः।। ऋषभै वा पशूनां प्रजापतिः।।
श्री, यश, शांति, धन, आत्मा आदि अनेक अर्थों में पशु शब्द का व्यवहार वैदिक साहित्य में पाया जाता है। अतः पशुपति शब्द का अर्थ हुआ प्रजा, श्री, यश, धन, आत्मा आदि का स्वामी। चूंकि ऋषभ इन सबके स्वामी थे अतः वे पशुपति कहलाएं। मोहनजोदडो और हडप्पा की खुदाई में खड़ी अवस्था में अंकित मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जो कायोत्सर्ग मुदा्र को प्रकट करती हैं। मथुरा संग्रहालय में दूसरी शती की कायोत्सर्ग में स्थित वृषभदेव कजिन की एक मूर्ति है। इस मूर्ति की शैली से सिन्धु से प्राप्त मोहरों पर अंकित खड़ी हुई देव मूर्तियों की शैली बिलकुल मिलती जुलती है। इन मूर्तियों के नीचे बैल भी अंकित है। जिसे भगवान ऋषभदेव के चिन्ह के रूप में माना जाता सकता हैं मोहन जोदडों से प्राप्त एक नग्न योगी की मूर्ति को श्री रामप्रसाद चन्दा ने ऋषभदेव की मूर्ति बतलाया है।कुछ विद्वान इसे शिव की मूर्ति भी मानते हैं। हडप्पा से प्राप्त नग्न कबंध को श्री रामचन्द्र ने ऋषभदेव की मूर्ति बतलाया है। इस पर डाॅ. राधााकुमुद मुखर्जी जैसे विद्वानों ने अपना एक अभिप्राय व्यक्त किया है कि यदि ये मूर्तियां ऋषभ 1. तिलायपण्णत्ती- 230 एवं त्रिलोकसार - 560 का ही पूर्व रूप हैं तो शैवधर्म की तरह जैनधर्म का मत भी ताम्रयुगीन सिंधु सभ्यता तक चला जाता है। इससे सिंधु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यता के बीच खोई हुई कड़ी की भी एक उभय सांस्कृतिक परम्परा के रूप में उद्धार हो सकता हैं
देवोपनीत दिव्यभोगों को भोगते हुए जब ऋषभदेव के जन्म से लेकर तेरासी लाख पूर्व व्यतीत हो गए तब इन्द्र को चिन्ता र्हुइ कि मानवता का कल्याण करने के लिए तथा संसार की मक्ति की राह दिखाने के लिए जिसका जन्म हुआ है, वह भोगों में लिप्त हो रहा है। अतः भगवान को वैराग्योन्मुख करने के लिए इन्द्र ने एक नीलांजना नामक अप्सरा को नृत्यु हेतु ऋषभदेव के राज्यदरबार में भेजा। उस अप्सरा की आयु अल्प थी, अतः वह नृत्य करते ही विलीन हो गई। इन्द्र ने तत्क्षण वैसा ही रूप धारण करने वाली दूसरी अप्सरा को नृत्य के लिए उपस्थित कर दिया।