समय की क्षिप्रता के कारण इस बात को अन्य लोग नहीं जान सके। भगवान को यह देखकर संसार से विराग हो गया। तत्क्षण लौकान्तिक देव आए। उन्होंने भगवान के वैराग्य की प्रशंसा की। वे देवों द्वारा लाई हुई शिविका पर चढ़कर सिद्धार्थ नामक वन में पहुंचे वहां उन्होंने अंतरग और बहिरंग परिग्रह का त्यागकर संयम धारण कर लिया। प्रजा ने उस समय भगवान की पूजा की। जिस स्थान पर प्रजा द्वारा भगवान की पूजा की गई थी, वह स्थान ‘‘प्रयाग’’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवान छह माह का कायोत्सर्ग लेकर मौन पूर्वक विराजमन हुए। कच्छ, महाकच्छ और मरीचि प्रभृति जिन राजाओं ने भगवान के साथ प्रवृज्या अंगीकर की थी वे क्षुध आदि की वेदना न सहकर भ्रष्ट हो गए। उन्होंने कुशा, चीवन, वल्कल आतिद धारण कर नग्नवेश त्याग दिया।
छह माह बाद प्रतिमा योग का संकोच कर वे आहार के लिए चले। उस समय कोई आहार दान की विधि नहीं जानता था, अतः छह माह पृथ्वी पर निराहार विचरण करते रहे। अंत में पूर्वजन्म का स्मरण हो जाने पर राजा श्रेयांस को आहरदान की विधि स्मृत हुई और उन्होंने आहार दिया। सारी प्रजा ने खुशियां मनाई।
चार ज्ञान को धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव ने स्वयं मोक्ष तत्व का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक हाजर वर्ष तक नाना प्रकार का तप किया। लम्बी-2 जटाओं के भार से सुशोभित आदि जिनेन्द्र उस समय जिसकी शिखाओं सेपाये लटक रहे हों ऐसे वटवक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे। विहार करते हुए वे वृषभसेन के राज्य में पूर्वतालपुरनगर में आए। वहां वे शकटास्य नामक उद्यान में बड़ी तत्परता के साथ ध्यान धारण कर वटवृक्षा के नीचे एक शिला पर पर्यणसन पर विराजमन हुए। उन्होंने क्ष्पक श्रेणि में प्रवेश कर मोह का नाश करते हुए चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। देवों ने उनकी सभा की रचना की। भव्यजीवों को उपदेश देते हुए अंत में वे कैलाश पर्वत पर आरूढ़ हो गए और योगों का निरोधकर उन्होंने चार अघतिया कर्मों का नाश कर मुक्ति प्राप्त की। उनकी कुल आयु चैरसी लाख वर्ष पूर्व की हुई।
वर्तमान कर्मयुग और धर्म युग के आदि सूत्रधार होने के कारण ऋषभदेव मानव संस्कृति के आद्य सृष्टा, विधाता और प्राण हैं। उनकी पावन जयन्ती हमें उन जैसा निस्पृह बनकर आत्मकल्ययाण का मार्ग अपनाने की प्रेरणा देती है। उनका पावन चरित्र स्पृहणीय और वन्दनीय हे। हमें अत्यधिक श्रद्धा और भक्ति के साथ उनकी जयन्ती मनाना चाहिए।
प्रतिवर्ष माघकृष्ण चतुर्दशी को तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का निर्वाणेत्सव मनाया जाता है। तिलोयपण्णत्ती में कहा है-
माघस्य किण्ह चैद्दसि पुव्वण्हे णिययजभ्मणक्खत्ते। अट्ठावयम्मि उसहो अजुदेण समं गओ णेमि।।
अर्थात् ऋषभदेव तीर्थकर माघकृष्णा चतुर्दशी के पूर्वाह्नकाल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते उत्तराषाढ़ के वर्तमान रहते कैलाश पर्वत से दश हजार मुनियों के साथ निर्वाण को प्राप्त हुए। उनको मैं नमस्कार करता हूं। आदिपुराण में भी इसी प्रकार उल्लेख है-
माघकृष्ण चतुर्दश्यां भगवान भास्करोदये। मुहूर्तेऽभिजिति प्राप्तपल्यड्कों मुनिभिः समम्।। प्राग्दिड् मुखस्तृतीयेन शुक्लध्यायेन रूद्धवाद। योगत्रितयमन्त्येन ध्यानेन घातिकर्मणाम्।।
अर्थात् माघ चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय शुभ मुहूर्त और अभिजित नक्षत्र में भगवान् ऋषभदेव पूर्वदिशा की ओर मुंह कर अनेक मुनियों के साथ पर्यड्कासन पर विराजमान हुए, उन्होंने तीसरे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान से तीनों योगों का निरोध किया अैर अघातिया-कर्मों को नष्ट कर निर्वाण प्राप्त किया।
उपर्युक्त उल्लेखों परी विचार करते हुए डाॅ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने कहा है कि - तिलोयपण्ण्त्ती और आदिपुराण दोनों ने ही भगवान ऋषभ्देव स्वामी के जन्म नक्षत्र को ही निर्वाण नक्षत्र माना है, किंतु आदि पुराणकार जिनसेन अभिजित् नक्षत्र माना है, किंतु आदि पुराणकार जिनसेन अभिजित् नक्षत्र को भगवान का निर्वाण नक्षत्र मानते हैं। अभिजित नक्षत्र की ज्योतिष में भोगात्मक रूप में पृथक स्थिति नहीं मानी गई है, क्योंकि अभिजित नक्षत्र उत्तराषाढ़ की अंतिम 15 घटियां तथा श्रवण आदि की 4 घटियां , इस प्रकार कुल 16 घटी प्रमाण होता है। तिलोयपण्णत्ती में उत्तराषाढ़ का जिक्र है, अतः यहां स्पष्ट है कि भगवान का निर्वाण उत्तराषाढ़ के अंतिम चरण में हुआ है। यही अंतिम चरण अभिजित में आता है। अंतिम चरण को शुभ माना जाता है तथा श्रवण काप्रथम चरण भी शुभ माना गया। इसी शुभत्व के कारण उत्तराषाढ़ के चतुर्थ चरण और श्रावण के प्रथम चरण की संज्ञा अभिजित की गई है। अतएवं दोनों कथनों में विरोध नहीं है1।
जन्म की अपेक्षा निर्वाण का अपना वैशिष्ट्य है। जन्म तो प्रत्येक प्राणी का होता है, किंतु निर्वाण सबाक नहीं होता है। जो व्यक्ति सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर लेता है और जिसके स्वरूपक ा आविर्भाव हो जाता है उसी का ही मोक्ष या निर्वाण होता है। बौद्धों ने जिस प्रकार प्रदीप निर्वाण कल्प आत्मनिर्वाणी माना है, वैसा जैनों ने नहीं। जैनों के अनुसार निर्वाण अवस्था में भी आत्मा अपने सम्पूर्ण स्वभाव के आविर्भाव के साथ विद्यमीन रहकर शाश्वत अविच्छिन्न सुखमया रहती है, केवल सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है। भगवान की पूजा हम इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्होंने उस मार्ग का उपदेश दिया, जिस पर चलकर निर्वाण प्राप्ति की जा सकती है।
भगवान् ऋषभदेव को केवल ज्ञान होने के बाद देवों ने बारह योजन विस्तार वाली धर्मसभा (समवसरण) की रचना की थी। समवसरण में बारह सभायें थीं। उनमें दारयी ओर से लेकर 1- मुनि 2 - कल्पवासिनी देवियां, 3- आर्यिकायें; 4- ज्योतिषी देवों की देवियां, 6- भवनवासी देवों की देवियां 7- भवनवासी देव 8- व्यन्तर देव 9- ज्योतिषी देव 10- कल्पवासी देव 11- मनुष्य और 12- तिर्यंच ये बारह गण अपने-अपने स्थानों पर बैठे। भगवान ने संसार सागर को पार करने वाला तीर्थ दिखलाया। उनके प्रभाव से संसाार के सब जीवों ने गूढ़ अर्थ को भी सरलता से देखा। उन्होंने सागर और अनगार धर्म, ज्ञान और उसके भेद, रत्नत्रया इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला। प्रमाण के द्वारा जाने हुए पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होना सम्यक चारित्र कहलाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र; ये तीनों मोक्ष प्राप्ति उपाय हैं, इसलिए उत्तम सम्पदा की इच्छा रखने वाले पुरूष को इनका श्रद्धान तथा तदनुरूप आचरण करना चाहिए। इन तीनों से बढ़कर दूसरा मोक्ष का कारण न है, न था और न होगा। यही सबका सार है। इस प्रकार आदि जिनेन्द्र के वचन का पानकर तीनों जगत्
सन्देह रूपी रोग से छूटकर अपने को मुक्त सा अनुभव करने लगा। कितने ही लोग अपने धारण किए हुए व्रत में दृढ़ हो गए, कितनों ही ने नए व्रत धारण किए।
भगवान की उपदेश सभा की यह विशेषता थी कि परस्पर के विरोधी तिर्यंच भी मित्र के समान बैठते थे। उनके वृषभसेन आदि 84 गणधर (प्रमुख शिष्य) थे उनकी सभा में सात प्रकार के मुनियों का संघ था। उनमें चार हजार सात सौ पचास पूर्वधर थे, चार हजार सात सौ पचास मुनि श्रुत के शिक्षक थे। नौ हजार मुनि अविधिज्ञान थे, बीस हजार केवलज्ञानी थे, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे। बीस हजार सात सौ पचास विपुलमति मन पर्यय ज्ञान के धारक थे, बीस हजार सात सौ पचास हेतु वाद के ज्ञाता वादी थे, शुद्ध आत्मत्व का जानने वाली पचास हजार आर्यिकायें थीं, पांच लाख श्राविकायें थीं और तीन लाख श्रावक थे। भगवान की कुल आयु 84 लाख पूर्व की थी। उनकी मोक्षप्राप्ति के अनन्तर मुनियों के श्रेष्ठ संघ, देवों के समूह और चक्रवर्ती आदि प्रमुख राजाओं के समूह इत्यादि ने भक्तिवश गन्ध, पुष्प, सुगन्धित धूप, उज्ज्वल अक्षत तथाा देदीप्यमान दीपक के द्वारा उनके शरीर की पूजा की तथा नमस्कार कर याचना की कि हमें भी आपके गुण रूप फल की प्राप्ति हे। इसी समय से प्रतिवर्ष भक्तजन भगवान ऋषभदेव का निर्वाण महोत्सव मनाते चले आ रहे हैं। इस दिन प्रातः काल सूर्योदय के समय नित्यपूजन के उपरांत भगवान ऋषभदेव की पूजा करना चाहिए। अनन्तर सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, योगिभक्ति, निर्वाण भक्ति या निर्वाण काण्ड पढ़कर पूजन समाप्त करना चाहिए। इस दिन होम वगैरह भी किया जा सकता है। ऋषभदेव के जीवन दर्शन पर सभायें, गोष्ठियां इत्यादि का आयोजन इस दिन अवश्य करना चाहिए।