इतिहास- भाद्रपत मास अत्यंत्त पवित्र है। इस माह में सबसे अधिक व्रत आते है, जैसे - दशलक्षण, षोडशकारण, रत्नत्रय, पुष्पांजली, आकाशपंचमी, सुगंधदशमी, अनन्त चतुर्देशी, श्रुतस्कंधव्रत, निर्दोष सप्तमी, चन्दन षष्ठी, तीस चैबीसी, जिनमुखावलोकन, रूक्मिणी व्रत, निःशल्यअष्टमी, दुग्धरसी, धनदकलश, शीलसप्तमी, नन्दसप्तमी, कांजीवारस, लघुमुक्तावली, त्रिलोकतीज, श्रावण द्वादशी और मेघमाला व्रत।
दशलक्षण पर्व का दूसरानाम पर्यूषण पर्व भी है। इसका आरम्भ भाद्रपद शुक्ला पंचमी से होता है। पर्यूषण का आरम्भ दिन सृष्टि का आदि दिन है, क्योंकि छठवें काल के अंत में भरत और ऐरावत खण्ड में प्रलय होता है। छठवें काल के अंत में संवर्त नामक पवन पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि को चूर्णकर समस्त दिशा और क्षेत्र में भ्रमण करता है। इसपवन के कारण समस्त जीव मूच्र्छित हो जाते हैं। विजयार्द्ध की गुफा में रक्षित 72 युगलों के अतिरिक्त समस्त प्राणियों का संहार हो जाता जाता है। इस काल के अंत में पवन, अत्यंत शीत, क्षार, रस, विष, कठोर अग्नि, धूलि और धुंआ की वर्षा एक-एक सप्ताह तक होती है। इसके पश्चात उत्सर्पिणी काल का प्रवेश होता है अर्थात छठवें काल के अंत होने के 49 दिन पश्चात नवीन युग का आरम्भ होता है।
छठवें काल का अंत आषाढ़ी पूर्णिमा को होता है, क्योंकि नवीन युग का आरम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को अभिजित नक्षत्र में होता है, अतः आषाढ़ी पूर्णिमा के अनन्तर श्रावणी प्रतिपदा को अभिजित नक्षत्र में होता है, अतः आषढ़ी पूर्णिमा के अनन्तर श्रावणी प्रतिपदा से 49 दिन की गणना की तो दूसरी समाप्ति भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को हुई। अतएव भाद्रपद शुक्ला पंचमी उत्सर्पण और अवसप्र्पण के आरम्भ का दिन हुआ। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छहों कालों सुषमा, सुषमा, सुषमा, दुःषमा सुषमा, दुषमा और दुःषमा, दुषमा का अंत सदा आषढी पूर्णिमा को होता है। अतः सृष्ट्यादि भाद्रपद शुक्ला पंचमी का दिन है। इसी दिन की स्मृति में यह आरम्भ हुआ है। इसकी आरम्भ तिथि भाद्रपद शुक्ला पंचमी है और समाप्ति तिथि भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी है। बीच में किसी तिथि की कमी हो जाने पर यह व्रत एक दिन पहले से किया जाता है। इसमें समाप्ति की तिथि चतुर्दशी ही नियामक है। यह व्रत एक वर्ष में तीन बार आता है - माघ, चेत्र और भाद्रपद में। प्रत्येक माह में शुक्लपक्ष की चतुर्थी को संयम कर पंचमी से व्रत किया जाता है तथा चतुर्दशी को उपवास पूर्ण कर पूर्णिमा को संयम के साथ समाप्त किया जाता है।
दशलक्षण पर्व के दिनों में क्रमशः उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना की जाती है। ये सभी आत्मा के धर्म हैं, क्योंकि इनका सीधा सम्बंध आत्मा के कोमल परिणामों से हैं। इस पर्व का एक वैशिष्ट्य है कि इसका सम्बंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है। इसप्रकार यह गुणों की आराधना का पर्व है। इन गुणों से एक भी गुण की परिपूर्णता हो जाय तो मोक्ष तत्व की उपलब्धि होने में किंचित भी संदेह नहीं रह जाता है।
धर्माचरण के माध्यम से शांतिप्रदायक पर्वों में पूर्यंषण का शीर्ष स्थान है। इसीलिए इसे पर्वाधिराज की उपाधि से विभूषित किया जाता हे। पर्यूषण की व्युत्पति है- ‘परि समन्तात् उषणं निवासः’ अर्थात व्यापकपने से सर्वत्र निवास करना, तीन लोक में व्याप्त आत्मशक्ति का प्रसार करना, प्राणी मात्र के साथ सहानुभूति से समभाव रखना तथा क्रोध, मान, माया और लोभा आदि के विचारों का उपशमन कर निज स्वभाव में स्थिर होना। इस पर्व को पर्यूषमन भी कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है, ‘मानसिक विचारों को पूर्णतया शांत करना।’ पर्यूषण को संवत्सरी भी कहते हैं। संवत्सर का अर्थ वर्ष है। ‘संवत्सर’ शब्द से पर्व अर्थ में अण् प्रत्यय जोड़कर सांवत्सर की व्युत्पत्ति हुई है। वर्ष के अनन्तर सम्पन्न होने वाले पर्व को सांवत्सर कहते हैं। इसी के आधार पर इसे सांवत्सरी या संवत्सरी कहते हैं।
प्रयल के अनन्तर 49 दिन तक सुवष्टि होती है। इससे पृथ्वी की गर्मी शांत होती है और लता, वृक्ष वगैरह उगने लगते है। छिपे हुए मनुष्य अपने-अपने स्थानों से निकल कर पृथ्वी पर बसने लगते हैं। इसतरह सृष्टि का पुननिर्माण होता है। मानव जाति ने सृष्टि की सुखद स्मृति के प्रतीक के रूप में पर्यूषण मनाना प्रारम्भ किया।
आगमानुसार पर्यूषण पर्व प्रतिवर्ष तीन बार आता है, किंतु सामाजिक परम्परानुसार अधिकांश जैन एक बार भाद्रपद में ही मनाते है। श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में यह पर्व कुल 17 दिनों तक मनाया जाता है। श्वेताम्बर भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी से भाद्रपद शुक्ल पंचमी तक आठ दिन तक दिगम्बर भाद्रपद शुक्ल पंचमी से प्रारम्भ कर अनन्त चतुर्दशी तक 10 दिन मनाते हैं। पर्यूषण पर्व के प्रत्येक अंग का संक्षिप्त वर्णन निम्नलितिखत रूप में किया जाता है-
उत्तम क्षमा-क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा पृथ्वी का नाम हे। जिस प्रकार पृथ्वी तरह-तरह के बोझ को सहन करती है, इसी प्रकार चाहे कैसी भी विषम परिस्थिति आए, उसमें भी अपने मन को स्थिर रखना, अपने आपको क्रोध रूप परिणत न करना क्षमा है। क्रोध आत्मा का शत्रु है, इसके वशीभूत हुआ प्राणी अपने आपको भी भूल जाता है। इससे उसके सभी प्रयोजन नष्ट हो जाते है। कहा भी है-
अपराधिनि चेत्क्रोधः किं न कोपाय कुप्यसि। धर्मार्थ कामोक्षाणां चतुर्णां परिपन्थिनिं।।
अर्थात् यदि अपराधी व्यक्ति पर क्रोध पर ही क्यों नहीं क्रोधित होते हैं जो कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, सभी का विरोधी है। क्षमावान् जीव यह भावना रखते हैं कि यह स्वेच्छाचारी लोक अपने हृदय में मुझे भला अथवा बुरा भी माने, किंतु मैं तो रागादि दोषों को छोड़कर अपने उज्जवल ज्ञान में ही स्थित रहूंगा। उत्तम क्षमा के धारक पुरूष को मात्र अपने आत्मा की शुद्धि ही साध्य है। इस जगत में अन्य मेरा बैरी हो अथवा मित्र हो, इससे मुझे क्या? अर्थात शत्रु या मित्र मेरा कुछ भी नहीं कर सकते। जो जैसा परिणाम करेगा, उसे उसका वैसा ही फल प्राप्त होगा1। मेरे दोषों को प्रकट करके संसार में दुर्जन सुखी हों, धन के लोभी मेरा सर्वस्व ग्रहण करके सुखी हो जायं, शत्रु मेरा जीवन लेकर सुखी हों और जिसे जो स्थान लेना है वह स्थान लेकर सुखपूर्वक रहे, किंतु किसी भी जीव को मुझसे दुःख न पहुंचे, मैं ऐसी पुकार सबके समक्ष करता हूं।
‘मृदोर्भावः मार्दवम्’ मृदुता का भाव रखना मार्दव है। मन, वचन, और काय से मृदु होना मार्दव अथावा मृदुता है। यदि मृदुता में त्रियोग में से किसी एक योग की भी वक्रता है तो वह मार्दव मायाचार है। मयूर पक्षी मधुर वाणी (केका) बोलता है, किंतु मधुर स्वर सुनकर बिल से निकल हुए सर्प को खा जाता हे। यह मार्दव कोमल परिणामशी न होने से मार्दव नहीं, मार्द का मायाचार है। किसी समय संगीत से वनमृगों को बुलाया जाता था और जब वे राग सुनने में तल्लीन हो जाते थे उन्हें बाण मार दिये जाते थे। सर्प पकडने के लिए सपेरे आज भी पुगी बजाते हैं। इसलिए परिणामों की कोमलता ही मार्दव है3। परिणामों की कोमलता के लिए मान को त्याग देना चाहिए। जिस प्रकार बीज बोने के लिए जमीन पर हल, चलाकर उसे अच्छी तरह जोतकर तथा कूड़ा-करकट से रहित कर साफ किया जाता है उसी प्रकार धर्म रूपी बीज का वपन करने के लिए सबसे पहले क्षमा द्वारा जिस मन रूपी भूमि का कर्षण किया था उसी को मार्दव के द्वारा निर्मलकिया। इस निर्मलता के द्वारा उत्तम चरित्र रूपी फल की उपलब्धि सुनिश्चित है।