जैनधर्म में तप दो प्रकार का कहा है‘ (1) बाह्य तप (2) अभ्यांतर तप। बाह्य तप शरीर की बाह्य क्रियाओं से विशेष रूप से सम्बंधित है और अभ्यांतर तप का सम्बंध मन के विकारों का दमन करने से है। अभ्यांतर तप मानसिक चित्तवृत्तियों को शांत करता है। बाह्य तप अभ्यांतर तप का साधन है। शरीर को कष्ट देा और उसका दमन करना तभी तक सार्थक है तब तक उसका उपयोग आध्यात्मिक शुद्धि के लिए होता है। इसके विपरीत यदि तप से केवल अभ्यांतर कलुषता ही पैदा होती है तो वह तप नहीं ताप है। इसलिए कहा है-
आतम अनात्म के ज्ञानहीन जे जे करनी तन करन छीन।।
आत्मा और अनात्मा के ज्ञान बिना जितनी भी क्रियायें की जाती हैं, वे केवल शरीर को ही क्षण करने वाली है, उनसे आत्मकल्याण नहीं हेाता। इसलिए सम्यकज्ञान पूर्वक जो तप किया जाता है, वह महान फल का देने वाला होता है। शरीर को सुखाने वाली क्रियाये ंतो इस जीवन े अनन्तर बार की, किंतु ज्ञान का सचा सूर्य इसके अंदर जाग्रत नहीं हुआ। ज्ञानी के अंदर कर्मों को नष्ट करने की अपूर्व क्षमता होती है। छहढालाकार ने कहा है-
कोटि जन्म तप तपैं ज्ञानबिन कर्म झरें जे। ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरें जे।। मुनिव्रतधार अनंत बार ग्रीवक उपजायो। पे निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो।।
1. कर्ममलविप्रत्यहेतोर्बोधदशा तप्यते तपः प्रोक्तम्। तद्द्वेधा द्वादशधा जन्माम्बुधियानपत्रिमिदम्।।
अज्ञान करोंडे जन्म तप तपकर जिनकर्मों का क्षय करता है, ज्ञानी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को रोककर या उन्हें शरीर में क्षणमात्र में उन सब कर्मों को भस्म कर देता है। यह जीव मुनिव्रत धरण और अनन्त बार नव ग्रैवेयक तक गया, किंतु आत्ममज्ञान बिना इसमे लेशमात्र भी सुख नहीं पाया।
सम्यक् प्रकार से श्रुत का व्याख्यान करना और मुनि इत्यादि को पुस्तक, स्थान तथा पीछी कमण्डलु आदि संयम से साधन देना सदाचारियों का उत्तम त्याग धर्म है। इसमें सम्यक् भावना होती है कि मेरा कुछ भी नहीं है। शरीरादि के प्रति फिर कुछ ममत्व भी नहीं रहता है। इस प्रकार उसमें आकिंचन्य धर्म का प्रकटीकरा होता है1। बारस अणुवेक्खा में कहा गया है-
णिव्वेगतियं भावई मोहं चईऊण सव्व दव्वेसु। जो तस्य हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।।78।।
जो समस्त द्रव्यों के प्रति मोह छोड़कर संसार, शरीर और भोगों के प्रति विरक्ति की भावना रखता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
त्याग और दान सामान्यतया एक ही अर्थ में ग्रहण किए जाते हैं, किंतु यथार्थरूप से दान तो बाह्य वस्तु का किया जाता है और त्याग स्ववस्तु का किया जाता है। दान में प्रायः दूसरे के प्रति करूणाभाव होता है, त्याग में अपना विरक्ति भाव प्रधान होता है। परमार्थ दृष्टि से देखा जाय तो त्याग किसी वस्तु का बनता ही नहीं है, क्योंकि जब कोई बाह्य वस्तु अपनी है ही नही ंतो त्याग किसका हो सकता है? जो वस्तु हमारी नहीं है, उसे हमने मोह बुद्धि के कारण अपना मान रखा है, इसी के कारण हम भ्रमित हो संसार बंधन का कष्ट उठा रहे ळं। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है-
1. व्याख्या या क्रियते श्रुतस्य यतये यद्दीयते पुस्तकं। स्थान संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा। सत्यागो वपुषादि निर्ममतया नो किंचनास्ते यंते आकिंचन्यमिदं च संसतिहरो धर्मः सतां सम्मतः।।पद्मनन्दि पंचविंशतिका-101 मोहेन संवृतंज्ञानं स्वभाव लभते न हि। मत्तः पुमान्पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः।।
‘अकिंचनस्य भावः आकिंचन्य’ - अकिंचनपने का भाव आकिचन्य हैं। जिसके पास कुछ नहीं बचा, वह अर्किचन कहलाता है। परिग्रह का त्याग होने पर पूर्ण आकिचन्य धर्म प्रकट होता है। पर पदार्थों के प्रति मूच्र्छा या आसक्तिभाव परिग्रह है। सम्यक ज्ञान और वैराग्य के बल से निरंतर परपदार्थों के प्रति आसक्ति कम करना चाहिए। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है-
यथा यथा समायाति संवित्तो तत्वमुत्तमम्। तथा तथा तथा न रोचन्ते विष्याः सुलभाः अपि।। यथा यथा न रोचंते विषयाः सुलभाः अपि। तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्वमुत्तमम्।।
अर्थात जैसे जैसे ज्ञान में उत्तम, तत्व प्रतिभासित होता है, वैसे वैसे सुलभ विषय भी रूचिकर नहीं लगते अैर जैसे जैसे सुलभ विषय रचिकर नहीं लगते, वैसे-वैसे अनुभव में उत्तम तत्व प्रकाशित होता है।
ज्ञान की शक्ति और वैराग्य का बल दोनों एक ही साथ मोक्ष की सिद्धि करते हैं। जिस प्रकार नेत्र दो होते हैं, किंतु दोनों नेत्रों से अवलोकन एक ही जैसा होता है। कविवर बनारसीदास ने कहा है-
ज्ञान सकति वैराग्य बल शिव साधैं समकाल। ज्यो लोचन न्यारे रहें निरखें दोऊ नाल।।
आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जिसे हृदय में परमाणु मात्र भी परद्रव्य के प्रति राग है, वह व्यक्ति भले ही सारे आगमों का ज्ञाता हो किंतु वह आत्मा को भली प्रकार नहीं जानता है1। यह व्यक्ति राग और द्वेष रूपी 1. जस्स हिदये णुमत्त व परदव्वम्हि विज्जदे रागो। सोणविजाणदि समयं सगस्य सव्वागम धरो वि। दो दीर्ध रस्सियों से खींचा जाता हुआ अत्यंत चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता ह1। अतः सांसारिक पदार्थों के प्रति रागद्वेष का त्याग आवश्यक है। आचार्य सोमभद्र ने कहा है-
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवारप्त संज्ञानः। रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः।।
मोहान्धकार नष्ट होने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्राप्त साधु रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को प्राप्त होता है इस प्रकार मोह, राग तथा द्वेष की निवृत्ति आत्मोपलब्धि के लिए अत्यावश्यक है। यह निवृत्ति उत्तम आकिचन्य धर्म प्रकट करने से होती है।