1. हरिलाल जैनः दशलक्षण धर्म 35-46
2. यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निस्पृहमहिंसकं चेतः। दुर्भेद्यान्तर्मल हृत्तदेव शौच पर नान्यत्।।
3. पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णीः दशलक्षण धर्म ,स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-
तृष्णाचिषः परिदहंित नं शांतिरासा मिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव।।
अर्थात तृष्णाा रूपी ज्वालायें इस जीव को जला रही है। यह जीव इन्द्रियोें के इष्ट विषय एकत्रित कर उनके इन तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शांत करने का प्रयत्न करता है, उप उनसे इसकी शांति नहीं होती है, प्रत्युत् वृद्धि ही होती है। जिस प्रकार घी की आहुति से अग्नि की ज्वाला शांत होने की अपेक्षा अत्यधिक प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार विषय सामग्री से तृष्णा रूपी ज्वाला अत्यधिक प्रज्वलित होती है अतः उत्तम शौच धर्म का पालन कर तृष्णा का अभाव करना चाहिए।
‘सद्भ्यो हित सत्यम्’ जो सज्जनों को हितकर हो, वह सत्य है। सत्य का अत्यधिक महत्व है। प्रायः प्रत्येक धर्म में किसनी न किसी रूप में सत्य की प्रतिष्ठा की गई है। जैनधर्म में इसे पंच महाव्रत और पंचाणुव्रत में स्थान दिया गया है। असत्य भाषण पाप है, क्योंकि असत्य भाषण का मूल कषाय है और जहां कषाय है, वहां हिंसा होती ही है। अतएव असत्य भाषण में भी अवश्य हिंसा होती है1। अहिंसा के सत्य का कम आता है। इसका तात्पर्य है, अहिंसा के द्वारा सत्य के द्वार पर पहुंचना। सत्य भगवान है- ‘त ंसच खु भगवें।’2 जैनधर्म आत्मा को सर्वोच्च उन्नत बनाने के लिए किसी सृष्टिकर्तो ईश्वर की शरण न लेकर सत्य को ही भगवान मानता है। अतएव मनुष्य जो भी साधना करे उसे सत्य को सामने रखकर ही उस साधना को करना चाहिए। सत्य के बिना धर्म निष्प्राण है। जहां सत्य है, वहां छल कपट टिक नहीं सकता है। दुनियां भर की बुराईयां सत्य के सामने कांपने लगती है। कदाचित अंतःकरण की निर्बलता के कारण जीव में मजबूती के साथ सत्य को न पकडा गया और वह निर्बल पड़ गया तो फिर बुराईयां खुलकर खेल खेलने लगती हैं। जब जीवन के मैदान में सत्य सजग प्रहरी की भांति डटा है, बुराइयां पास में फटकने का भी
1. अनृतवचने पित स्यानियत हिंसा समवतरित।। 2. प्रश्नव्याकरण सूत्र
साहस नहीं कर सकती1। संसार की जितनी भी ताकते हैं, वे कुछ दूर तक तो साथ देती हैं और उससे आगे जवाब दे जाती है, उस समय सत्य का ही बल हमारा आश्रय बनता है और वही एक मात्र काम आता है। जब मनुष्य तृत्यु की आखिरी घडि़यों में पहुंच जाता हैं, तब उसे न धन बचा पाता है, न ऊंचा पद तथा परिवार ही। वह रोता रहता है और ये सब व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं, किंतु कोई-कोई महान् आत्मा उस समय भी मुस्कराता हुआ जाता है, रोना नहीं जानता है, अपितु एक विलक्षण स्फूर्ति के साथ संसार से विदा होता है। उस समय संसार के सारे सम्बंध टूट जाते हैं, शरीर का एक टुकडा भी साथ नहीं जाता है, बुद्धि बल भी वहीं समाप्त हो जाता है फिर भी वह हंसता हुआ संसार से विदा होता है। सत्य का अलौकिक प्रकाश ही उसे बल प्रदान करता है2। इस प्रकार सत्य प्राणी की अमूल्य धरोहर है। अतः प्राणी को स्वपरहितकारी अमृत के समान मिष्टवचन बोलना चाहिए।
संयम का अर्थ है- आत्मप्रवृत्तियों को रोकना। संयम आत्मसाधना के आध्यात्मिक मार्ग में जितना आवश्यक और कल्याणकारी है, उतना समाज एवं राजनीति में भी है। फिर भी परमार्थ दृष्टि से जैसा संयम साधा जा सकता है, वैसा अन्य किसी भी उपाय से नहीं। शास्त्रकारो ने इसके दो भेद किए हैं (1) इंद्रिय संयम (2) प्राणि संयम। छह इंद्रिय और मन की प्रवृत्ति को वश में रखना इंद्रिय संयम है और छह काय की जीवों की हिंसा से विरत रहना प्राणि संयम है। संयम एक अमूल्य रत्न है, विषय रूपी चोरों से इसकी सुरक्षा अत्यावश्यक है।
जीवन की आवश्यकतायें संयम की उतनी बाधक नहीं जितनी भोग और ऐश्वर्य की आकांक्षायें हैं। जब तक लोक धनकुबेरों को महान मानेंगे, तब तक जगत की स्थिति निरापद रह नहीं सकती। आज से हजारों वर्ष पूर्व लोग धनियेां की अपेक्षा संयमी पुरूषाों को अधिक महान् मानते थे। यही कारण है कि उस समय के धनिक अभिमान और स्वार्थ की पराकाष्ठा पर नहीं पहुंच पाते थे और न जनसाधारण को अपने से तुच्छ और पददलित ही मानते थे। सबके
1. उपाध्याय अमरचंद जी महाराजः सत्पदर्शन 2. सत्यदर्शन
दिलों में आपसी भ्रात्त्वभाव और सम्मान था, परंतु आज की समूची परिपाटी ठीक उससे विपरीत है। जगह-जगह धनिक और निर्धनों के बीच संघर्ष हो रहे हैं। धनी ही महान है, ध नही बडप्पन का मानदण्ड है, यह दोष सब जगह देखा जा रहा है। संयमी पुरूष ही महान है, इस बात को जब तक लोग नहीं समझ पाते है तब तक लालसा को कम करने का सिद्धांत लोकदृष्टि में उपादेय नहीं हो सकेगा और जब तक लालसा कम न होगी, आवश्यकतायें बढती रहेंगी। आवश्यकतओं की वृद्धि में सुख की कमी रहेगी अतः समय का अभ्यास करना चाहिए1।
संयम धर्म की समग्रता स्वर्ग, नरक और पशुगति में नहीं है। संयम का पूर्ण आचारण मनुष्य ही कर सकता है, अतः उसे समस्त प्राणियों पर करूण भाव रखना चाहिए तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण चक्षु तथा श्रोत्र इंद्रियों को वश में करना चाहिए।
‘सर्वार्थसिद्धि’ में तप की परिभाषा करते हुए कहा गया है- कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तपः अर्थात कर्म के क्षय के लिए जो तपा जाता है, उसे तप कहते है। आचार्य पूज्यपाद ‘‘तप्यते इति तपः’’ भी कह सकते थे, किंतु इस प्रकार के तप से बाह्य वैभव की उपलब्धि भले ही हो जाय, मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती। स्वामी समन्भद्राचार्य ने कहा है-
उपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते। भवान पुनर्जन्मजरा जिहासया त्रयी प्रवृत्तिं समधीरनारूणत्।।
है भगवान्! कितने ही लोग संतान प्राप्त करने के लिए, कितने ही धन प्राप्त करने के लिए तथा कितने ही मरणोत्तर काल में प्राप्त होने वाले स्वर्गादि की तृष्णा से तपश्चरण करते हैं, परंतु आप जन्म और जरा की बाधा का परित्याग करने की इच्छा से इष्टानिष्ट पदार्थों में मध्यस्थ हो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकते है। आचार्य पद्नन्दि ने कर्ममल के विनाश के लिए सम्यग्दर्शन 1. आचार्य तुलसीः शांति के पथ पर पृ. 52.55 और सम्यकज्ञान पूर्वक जो तपा जाता है, उसे तप कहा है1। इस प्रकार का तप संसार समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान है। सम्यग्ज्ञान रूपी दृष्टि से वस्तु स्वरूप को जानकर उसमें लीन होने पर इच्छायें रूक जाती हैं, वह तप धर्म है, उससे कर्ममल का विनाश होता है।
‘इच्छानिरोधस्तपः’ अर्थात इच्छाओं का निरोध तपह ै। इच्छायें अनन्त हैं। मनुष्य की एक इच्छा पूर्ण होती है और शीघ्र ही दूसरी इच्छा उपस्थित हो जाती है। इस प्रकार इच्छाओं का अंत नहीं आता। इसलिए मनीषी आचार्यों ने कहा कि इच्छाओं का दमन करो।