श्रुतसागर मुनि जिन्होंने गुरू की आज्ञा के अनुसार उसे स्थान पर जहां मंत्रियों से शास्त्रार्थ हुआ था, खड़े होकर अपने प्राणों के प्रति कुछ भी ममत्व नहीं दिखलाया। गुरू के प्रति विनय का यह अनुपम उदाहरण है। प्रशमरति प्रकरण’ में कहा गया है-
विनयफलं सुश्रूषा गुरूसुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम्। ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चासवनिरोधः।। संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं द्रष्टम्। तस्मात् क्रियानिवृतिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम्। योगनिरोधद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात् कल्याणानां सर्वेषा भाजन विनयः।।
विनय का फल सेवा है। गुरू सेवा का फल श्रुंत-ज्ञान की प्राप्ति है। ज्ञान का फल विरति है और विरति का फल आसव का रूकना-संवर है। संवर का फल तपोबल है। तपक ा फल निर्जरा है। निर्जरा से क्रिया की निवृत्ति से अयोगिपना प्राप्त होता है। योग के निरोध से भवसंतति (संसार की परम्परा) का क्षय होता है और संसार परम्परा के क्षय से मोक्ष होता है अतः समस्त कल्याणों का पात्र विनय है।
श्रुतसागर मुनि विनय का आचरण कर समस्त कल्याण परम्परा के पात्र हो गए। श्रुत शास्त्र को कहते है। यदि मनुष्य विनीत है तो उसका श्रुत-श्रुत है अन्यथा उसे दुःश्रुत ही समझना चाहिए। जो श्रुत की परीक्षा करने के लिए कसौटी के समान है तािा विनय से विभूषित हे, वह सबसे सुंदर है।
बलि के अत्याचार से सब जगह हा-हाकार मच गया था और लोगों ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियों का संकट दूर होगा तो उन्हें आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे। संकट दूरे होने पर सब लोगों ने दूध की सीमियों का हल्का भोजन तैयार किया क्येांकि मुनि कई दिन के उपवासे थे। मुनि केवल सात सौ थे अतः वे केवल सात सौ घरों पर ही पहुंच सकते थे, इसलिए शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी की गई। सबने परस्पर में रक्षा करने का बंधन बांधा, जिसकी स्वीकृति त्यौहार के रूप में अब तक चली आती है। दीवारों पर जो चित्र रचना इस दिन की जाती है, उसे सौन कहा जाता है। यह सौन शब्द श्रमण शब्द का अपभ्रंश जान पड़ता है। श्रमण शब्द प्राचीन काल में जैन साधु का सूचक था1।
उत्तर भारत में इस दिन राखी बांधने की प्रथा है। विष्णु कुमार मुनि ने साधर्मी मुनियों की इस रक्षा की थी, इस प्रकार साधर्मी, गुणी बंधु बान्धवों की रक्षा करना सबका परम कत्र्तव्य है। जैन धर्म में तो प्राणिमात्र की रक्षा करने का उपदेश दिया गया है। इस दि बहिन भाई को राखी बांधती है। यह पर्व भाई-बहिन के त्यौहार के रूप में कब से जैनियों में मनाया जाने लगा, इस पर अन्वेषण होना चाहिए क्योंकि शास्त्रों में विष्णुकुमार मुनि की कथा के प्रसंग में ही इसे मनाने का उल्लेख पाया जाता है। सम्भ्वतः अन्य लोगों के सम्पर्क के कारण जैनियों में भी यह बहिन-भाई के त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा। इस दिन ब्राह्मण लोग घर-घर में राखी बांधते हैं। राखी बांधते समय वे एक श्लोक पढ़ते हैं-
‘‘येन बद्धे बली राजा दानवेन्दो महाबली। तेल त्वामपि बध्नामि रक्षा मां मा चल।।’’
अर्थात जिस राखी से दुनिया का इन्द्र महाबलि बलिराजा बांधा गया उससे मैं तुम्हें भी बांधता हूं। मेरी रक्षा करो। रक्षा से विचलित मत होना।
दक्षिण भारत में आज के दिन उपाकर्म विधि को मानते हुए यज्ञोपवीत बदलते है। यज्ञोपवीत रत्नत्रय का सूचक है। हम अन्तरंग में रत्नत्रय को धारण करने के साथ-साथ बाह्य रत्नत्रय भी धारण करते हैं, इसकी सूचना यज्ञोपवीत देता है। आठ वर्ष में या विधि पूर्वक जिका उपनयन व्रत संस्कार नहीं हुआ हो, उन्हें आज के दिन यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है, क्योंकि 16 वर्ष की आयु के बाद यज्ञोपवती संस्कार नहीं होता। जिनको विधिपूर्वक यह संस्कार हो गया है, उसे इस दिन यज्ञोपवीत बदलने का विधान किया जाता है1। इसके विषय में एक श्लोक है-
श्रावणे मासि नक्षत्रे पूर्वबत्क्रियाम्। पूर्व होमादिक कुर्यान्मोज्जी कट्या$ परित्यजेंत्।।
‘‘श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र के होने पर हवन, पूजन आदि के पश्चात यज्ञोपवती बदलना चाहिए।’’ हवन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हवन के समय भद्वा न हो। भद्वाकाल में हवन करना वर्जित है। साधारणतया भद्वा के अभाव 1. जैनगट (सम्पादकीय) 5 अगस्त 1976 में हवन मध्याह्नोत्तर काल में किया जाता है। यज्ञोपवीत बदलने का मंत्र यह है-
ऊँ नमः परमशान्ताय शांतिकराय पवित्रीकृतायाहं रत्त्रय स्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्र भवतु अहं नमः स्वाह।
रक्षाबंधन पर्व करने वालों को पूर्णिमा का उपवास करना चाहिए। इस दिन विष्णुकुमार मुनि की पूजा तथा अन्य गुरूओं की पूजा के पश्चात् मध्याह्न में हरिवंशपुराण का स्वाध्याय करना चाहिए। तीनों कालों में ‘‘ऊँ हरीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभजिनाय कर्मभस्मविधूननं सर्वशांतिवात्सल्योपवर्द्धन, कुरू कुरू स्वाह’’ मंत्र का जाप करना चाहिए। रात्रि जागरण करते हुए भक्तामरस्तोत्र का एवं कल्याणमंदिर स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। प्रातः प्रतिपदा के दिन नित्य कर्म से निवृत होकर भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी की पूजा के उपरान्त णमोकार मंत्र की तीन मालायें जपनी चाहिए। अनन्तर एक अनाज का भोजन, दूध-भात या भात-दही अथवा रोटी-दूध का आहार करना चाहिए। नमक, मीठा फल, और शाक-सब्जी का त्याग इस दिन करना होता है। केवल एक अन्न से पारणा (व्रतांत भोजन) की जाती है। यह व्रत आठ वर्षों तक किया जाता है। पश्चात उद्यापन कर दिया जाता है। इस दिन श्रेयांसनाथ भगवान का निर्वाण भी हुआ है1।
रक्षाबंधन पर्व पर प्रत्येक श्रावक को धार्मिक, सामाजिक एवं लोगोपकारी कार्यों की सम्पन्नता हेतु यथेष्ट दान अवश्य देना चाहिए। यह एक अद्भुत पर्व है। यह दिन बंधन का दिन होने पर भी पर्व माना जाता है। पर्व या उत्सव में तो स्वतंत्रता होती है। आज का दिन तो बंधन का दिन है, बंधन भी सामान्य बंधन नीं, प्रेम का बंधनप। यह वात्सल्य का प्रतीक है। रक्षा बंधन अर्थात रक्षा के लिए बंधन आजीवन बडे उत्साह के साथ चलता है। सामान्य बंधन से तो मुक्ति सम्भव है, परंतु यह बंधन है जिससे मुक्ति नहीं। यह बंधन मुक्ति में सहायक है, क्योंकि यह रक्षा का बंधन है। जीवों पर संकट आते हैं, सभी अपनी शक्ति अनुसार उनका निवारण करते है, परंतु सभी ऐसा नहीं कर पाते। मनुष्य ही ऐसा विवेकशील प्राणी है जो अपने और दूसरों के संकट को दूर करने में समर्थ है। मनुष्य ही अपनी बुद्धि और शारीरिक सामथ्र्य से अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकता है। रक्षा के लिए ही धर्म का विश्लेषण है कि जीवों की रक्षा किस प्रकार करें, उनके विकास के लिए क्या प्रयत्न करें? रक्षा बंधन पर्व की महत्ता इसीलिए तो है कि महान आत्मा ने रक्षा का महान कार्य सम्पन्न कर संसार के सामने रक्षा का वास्तविक स्वरूप रखा-जीवों की रक्षा, अहिंसा की रक्षा, धर्म की रक्षा। किंतु आज यह रक्षा अपेक्षित है, हम चाहते हैं ‘सुरक्षा’, मगर किसकी? मात्र अपनी और अपनी भौतिक सम्पदा की। आज यह स्वार्थपूर्ण संकीर्णता ही सब अनर्थों की जड़ बन गई है।- मैं दूसरों के लिए क्यों चिंता करूं, मुझे बस मेरे जीवन की चिंता है। मैं, मेरा, अपना, आज का सारा व्यवहार यहीं तक केन्द्रित हो गया है। रक्षापना समाप्त हो गया है? और भक्षकपना उसकी छाती पर चढ़ बैठा है। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना- यह इस पर्व के मानने का वास्तविक रहस्य है। विष्णुकुमार मुनि ने बंधन को अपनाया। अपने पद को छोड़कर मुनियों की रक्षार्थ गए। ऐसा करने में उनका प्रयोजन धर्म प्रभावना और वात्सल्य था। रक्षा के लिए जो बंधन है, वह सभी के लिए मुक्ति का कारण है। बाहर से मधुर और भीतर से कटाक्ष, ऐसा रक्षा बंधन नहीं होना चाहिए। हमारे द्वारा सम्पादित कार्य बाहर और भीतर से एक समान होना चाहिए। रक्षा बंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है तो बाहर और भीतर से एक समान होना चाहिए। रक्षा बंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है तो अपने भीतर करूणा को जाग्रत करें। अनुकम्पा, दया और वात्सल्य का अवलम्बन लें। रक्षा बंधन का अर्थ है कि हममें जो करूणाभाव है वह तन-मन धन से अभिव्यक्त हो। यह एक दिन के लिए नहीं, सदैव हमारा स्वभाव बन जाय, ऐसाी चेष्टा करना चाहिए।सत्वेषु मैत्री-प्राणी मात्र के प्रति मित्रता का भाव हमरे जीवन में उतरना चाहिए। तभी हमारा यह पर्व मनाना सार्थक है1।