देखकर मन में विचार किया कि यह देवता है या यक्षिणी है अथवा किन्नरी है अथावा कोई भी है? यहां क्यों आई है? ऐसा सोचकर तलवार लेकर वह वहां चला जहां तिलकमती बैठी थी। राजा ने तिलकमती से वहां बैठने का कारण पूछा-कन्या ने कहा कि राजा ने मेरे पिता को रत्नद्वीप भेज दिया है तथा मेरी माता मुझे यहां बैठा गई है तथा कह गई है कि मेरा पति यहां आएगा। इस स्थान पर तुम आए हो अतः तुम ही मेरे पति-भार्त हो। यह सुनकर राजन ने उसके साथ विवाह किया। राजा प्रातः जब जाने लगा तो तिलकवती ने उससे कहा कि तुम तो मेरे पति हो, मेरा उपभोग कर अब तुम कहां जा रहे हो? राजा ने उत्तर दिया कि मैं प्रतिदिन रात्रि को तुम्हारे पास आऊंगा। तिलकमती ने सिर झुकाकर पूछा- मैं तुम्हारा नाम क्या बतलाऊंगी? राजा ने अपना नाम गोप बतलाया।
बंधुमती घर जाकर कहने लगी कि तिलकमती दुख की खान है। विवाह के समय पता नहीं उठकर कहां चली गई? ढूंढ़ते उसने कन्या को श्मशान में पा लिया। जाकर उससे कहा कि यहां क्यों आई है? क्या तुझे भूत प्रेत लगे गए हैं? तिलकवती ने हर्षित होकर कहा कि हे माता! जैसा तुमने कहा था, वैसा ही मैंने किया है। बंधुमती जोर से कहने लगी कि यह असत्य बात कह रही है,ऐसा कहकर वह उसे घर ले आई। उसने घर आकर उसके पति के विषय में पूछा-तिलकमती ने कहा कि मैंने गोप से विवाह किया है। यह सुनकर उसने उस पर कुपित हो अपने पास का ही एक घर उसके रहने के लिए दिया। प्रतिदिन राजा उसके घर आने लगा। बंधुमती तिलकमती को दीपक जलाने के लिए तेल ही नहीं देती थी, अतः दोनों अंधेरे में ही रहते थे।
कुछ दिन बीत जाने पर बंधुमती ने तिलकमती से कहा कि तू ग्वाले से आज कहना कि मुझे दो बुहारी लाकर दे जाना। रात्रि में तिलकमती ने अपने स्वामी से माता को देने के लिए दो बुहारी मांगी। राजन ने दूसरे दिन स्वर्णमय सींकों वाली तथा रत्नमय मूठ वाली दो बुहारी लाकर तिलकमती को दे दी। साथ ही उसे उत्तम सोलह आभूषण तथा वस्त्र और दिए। तिलकमती ने तब राजा के चरण धोकर उन्हें केशों से पोंछा। प्रातः काल राजा ने अपने महल गया। तिलकमती ने बंधुमती को दोनों बुहारी दे दीं तथा उसे वस्त्र एवंे आभूषण भी दिखलाए। उन्हें देखकर बंधुमती ने कहा कि तेरा भर्ता चोर है, उसने राजा के आभूषण चुराए हैं। ऐसा कहकर वे आभूषण छीन लिए। तिलकमती दुखी हुई, उसे राजा ने सांत्वना दी कि तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें और ला दूंगा।
जिनदत्त रत्नद्वीप से आया। बंधुमती ने पति से कहा- कि तुम्हारी पुत्री के अवगुण कहां तक कहें, विवाह के समय उठकर पता नहीं कहां चली गई और उसने चोर केसाथ विवाह कर लिया। वह चोर राजा के यहां जाता है और वस्त्राभूषण चुरा कर ले आता है। उस चोर ने इसे ये वस्त्राभूषण दिए। इन्हें छीनकर मैंने रख लिये हैं। यह कहकर उसने पति के सामने वे वस्त्राभूषण रख दिए। सेठ यह देख कंपित हो गया तथा उन वस्त्राभूषणों को राजा के सामने रखकर सब वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने कहा- यह बात तो ठीक है, किंतु चोर के विषय में भी तो बतलाओ। सेठ ने कन्या से चोर के विषय में पूछा-कन्या ने कहा कि मेरी माता मुझे घर में दीपक जलाने के लिए तेल ही नहीं देती थी, अतः मैंने अपनी पति का मुंह नहीं देखा, किंतु मैं एक तरीके से पहचान सकती हूं कि मैं प्रतिदिन पति के आने पर उनके चरण धोती थी। चरणों को धोकर मैं पति की पहचान कर सकती हूं।
सेठ ने जाकर राजा से यह बात कही। राजा ने कहा- कि चोर का पता लगाने के लिए हम आज तुम्हारे घर आयेंगे। सेठ ने घर जाकर तैयारी की। राजा आया। सारी प्रजा इकट्ठी हुई। तिलक मती नेत्र बंदकर सभी के चरण धुलाने लगी, किंतु सभी के विषय में वह कहती जाती थी। कि यह मेरा पति नहीं है। जब राजा आया तब उसके चरण धोकर उसने कहा कि यह मेरा पति है। राजा यह सुनकर हंसकर कहने लगा कि इस कन्या ने मुझे चोर बना दिया है। यह सुनकर तिलकमती कहने लगी चाहे राजा हो या कोई और, मेरा पति तो यही है। उसकी बात सुनकर सब हंसने लगे। राजा ने कहा- कि आप लोग व्यर्थ हंसी मत कीजिए, इसका पति मैं ही हूं। लोगों के पूछने पर राजा ने सारा वृत्तान्त कह दिया। सारे लोगों ने कहा कि यह कन्या धन्य है जो कि इसने राजा जैसा पति पाया। पूर्वजन्म में इसने व्रत किया इसका यह फल इसे प्राप्त हुआ है। सेठ ने भोजन कराकर सबके समक्ष इन दोनो का विवाह करा दिया। राजा ने तिलकमती को पटरानी बना दिया। एक बार राजा अपनी रानी के साथ जिनमंदिर गया हुआ था, वहां उसने श्रुतसागर मुनि के दर्शन किए तथा उनसे प्रश्न किया कि मेरी यह रानी इतनी रूप सम्पदा वाली कैसे हुई? मुनि महाराज ने मुनिनिन्दा से लेकर सुगंध दशमी व्रत धारण करने इत्यादि की सारी कथा कह दी।
इसी अवसर पर उस सभी में किसी देव ने प्रवेश किया। उसने जिनेन्द्र देव, जिनशास्त्र और जिनगुरू को प्रणाम किया, अनन्तर वह महादेवी तिलकमती के चरणों में आ गिरा। वह बोला-स्वामिनि, अपने विद्याधर रूप पूर्व जन्म में तुम्हारे ही प्रसंग से मैंने सुगंधदशमी व्रत का अनुष्ठान किया था। उसी व्रतानुष्ठान के प्रभाव से मैं स्वर्ग में महान ऋद्धिमान देवेन्द्र हुआ हूं। हे देवी! तुम मेरे धर्म साधन में कारण हुई हो, अतः तुम्हारे दश्ज्र्ञन के लिए मैं यहां आया हूं। हे देवि! तुम मेरी जननी हो। इतना कहकर और रानी को प्रणाम क रवह देव आकाश में चला गया। यह द1श्य देखकर सभी को सुगन्धदशमी व्रत पर और भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई। सभी प्रसन्नचित्त हो अपने घर गए।
तिलकमती ने सुगंधदशमी व्रत ग्रहण कर प्रायोपगमन धारण किया और समाधिमरण किया अतः वह स्त्री पर्याय को छोडकर ईशान्य स्वर्ग में दो सागर कीआयु वाला देव हुआ। आगामी भव में उसे संसार से मुक्ति रूप अद्भुत फल प्राप्त होगा।