तीर्थकर के जन्म समय में शरीर, प्रकृति, आकाश, भूमण्डल और मानव समाज में शांत वातावरण एवं रमणीयतथा सुखप्रद परिवर्तन हो जाता है। उनका जन्माभिषेक, तिलककरण, वस्त्राभूषण धारण, विवाह, राज्याभिषेक आदि कार्य लोकहितकारी होते हैं। वे जल में कमल की तरह विषयों से निर्लिप्त रहते हैं, उनकी आत्मा में विकार भाव उत्पन्न नहीं होता। प्रत्येक मानव को इस प्रकार विषय निर्लिप्त श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने में ही कल्याण समझना चाहिए।
तीर्थकर स्वयं बुद्ध होते हैं, वे किसी विद्वान से शिक्षा या उपदेश ग्रहण नहीं करते तथापित किसी निमित्तविशेष को प्राप्तकर आत्मकल्याण के लिए दीक्षा धारण करते हैं। उस समय सारस्वत आदि देव अर्थात लौकांतिक देव ब्रह्म स्वर्ग से आकर उनके विचारों की बहुत भारी प्रशंसा तथा पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार लोग देखते तो अपने नेत्र से हैं, किंतु सूर्य उसमें सहायक हो जाता है उसी प्रकार भगवान यद्यपि स्वयंबुद्ध होते हैं तथापित लौकान्तिक देवों का कहना उनके यथार्थ अवलोकन में सहायक बन जाता है। देव उनका दीक्षा कल्याणक सम्बंध महाभिषेक करते है। अनन्तर उत्तम पालकी पर सवार हो भगवान घर से निकलकर उद्यानादि रमणीय स्थान पर पहुंचते हैं।
1. श्री सुदर्शनमेरू जिनविम्बप्रतिष्ठा स्मारिका, हस्तिनापुर पालकी को सर्वप्रथम मनुष्य उठाते हैं। अनन्तर विद्याधर उठाते हैं, विद्याधरों के बाद देव उठाते हैं। उद्यान में जाकर वे अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। ऊँ नमः सिद्धेभ्यः’ कहकर वे दीक्षा लेते हैं और पांच मुष्टियों से कैशलोंच करते हैं। इन्द्र उन केशों को रत्नमय पिटारी में रखकर क्षीरसागर में क्षेप आता है।
भगवान शीत, आतप, वर्षा आदि की परिषहों और उपसर्गों को समताभाव से सहन करते हैं। वे अरि, मित्र, महल, मसान, कंचन, कांच, निंदा, स्तुति, अर्घावतारण, अपरिहार इत्यादि में समभावी होकर घोर तपस्या करते हुए 28 मूलगुणों का पालन करते हैं। अनेक उपवासों के पश्चात किसी सदगृहस्थ के यहां वे दिन में केवल एक बार निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं। उनके तप ओर दान की महिमा से दाता के यहां रत्नवर्षा, देवदुन्दुभि आदि पंच आश्चर्य होते हैं। अंत में शुक्लध्यान के द्वारा समस्त घातिया कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्रकट करते हैं।
घातिया कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अक्षयसुख और अनन्तशक्ति, इन चार गुणों को प्राप्त कर अर्हत जिन एवं जीवन्मुक्त पद की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान के साथ ही बहुत बहुत भारी भमण्डल उत्पन्न होता है। भमाण्डल के प्रकाश के कारण दिन-रात का भेद नहीं रह जाता है। जहां तीर्थकर को केवल ज्ञान होता है, वहीं एक अशोक वृक्ष प्रकट हो जाता है। तत्पश्चात देव नाना प्रकार के फूलों की वर्षा करते हैं। मोक्ष को प्रापत हुए समुद्र के समक्ष भारी शब्दों से युक्त देवों द्वारा बजाए दुन्दुभि बाजे बनजे लगते हैं। भगवान के देानों ओर देा यक्ष चमर चलाते हैं मेरू की शिखर के समान तथा सूर्य की किरणों को तिरस्कृत करने वाला एक सिंहासन उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त मोतियों की लडियों से विभूषित छत्रत्रय उत्पन्न होता है।
इन्द्र की आज्ञा से कुबेर कम से कम एक योजना विस्तारयुक्त सभी की रचना करता है, जिसे समवसरण कहां जाता है। इसमें देव, दानव, मानवों के साथ पशु आदि परस्पर विरोध छोडकर धर्मोपदेश का पान करते है। उक्त सभी की रचना विश्व के समस्त ज्ञान विज्ञान के चातुर्य एवं वैभव, शिल्पसम्पदा तथा सैन्दर्य से समन्वित होती हैं, जिसमें किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं हो सकता है। विश्व का समस्त वैभव इस सभाभूमि पर व्याकीर्ण है।
समवशरण में तीन कोट बनाए जाते हैं। कोटों की चारों दिशाओं में चार गोपुर होते हैं जो बहुत ही ऊँचे होते हैं। इन गोपुरों में चार वापियां होती हैं। गोपुर अष्टमंडल द्रव्य से युक्त होते हैं तथा इनकी शोभा अदभुत होती है। समवशरण में स्फटिक की दीवालों से बारह कोठे बने होते हैं, जो प्रदक्षिणा रूप से स्थित होते हैं, बीच में अशोक वृक्ष के नीचे सिंहासन पर तीर्थकर विराजमान होते हैं। यह अशोक वृक्ष पार्थिव होता है। इसकी शाखायें वैडूर्य मणि की होती हैं, यह कोमल पल्लवों से शोभायमान होता है। फूलों के गुच्छों की कांति से यह समस्त दिशाओं को व्याप्त करता हुआ अत्यधिक सुशोभित होता हैं। यह कल्पवृक्षों के समान रमणीय होता है, इसके हरे तथा सघन पत्ते होते हैं और यह नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित पर्वत के समान जान पडता है। तीर्थकर का सिंहास नाना रत्नों के प्रकाश से इन्द्रधनुष को उत्पन्न करता है, दिव्य वस्त्र से आच्छादित होता है, कोमल स्पर्श से मनोहर होता है, तीनों लोकों की प्रभुतास्वरूप तीन छत्रों से सुशोभित होता है, देवों द्वारा बरसाए गए फूलों से व्याप्त रहता है। भूमण्डल पर वर्तमान रहता है तथा यक्षराज के हाथों स्थित चमरों से सुशोभित होता है, दुन्दुभिबाजों की शांतिपूर्ण प्रतिध्वनि वहां निकलती है। सूर्य के प्रकाश को तिरस्कृत करने वाले प्रभामण्डल के मध्य में तीर्थकर भगवान विराजमान होते हैं तथा गणधर के द्वारा प्रश्न किए जाने पर वे धर्मोपदेश देते हैं।
तीर्थकर आर्यावर्त के 32 हजार देशाों में विहार करते हैं। विहार के समय आगे धर्मचक्र चलता है, जो किसी प्राणी के विनाश के लिए न होकर सुख और शांति के लिए होता है। भगवान का ऊँकार ध्वनिमय उपदेश उर्द्धमागधी भाषा में होता है, परंतु उसमें किसी भी भाषा के अक्षर नहीं होते अतः उस अतिशयपूर्ण उपदेश को 18 महाभाषी मानव और 700 से अधिक लघुभाषाभषाी मानव अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। पशु पक्षी भी उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं।
तीर्थकर भगवान विहार को रोककर किसी एक स्थान पर शरीर की क्रिया को समाप्त करते हुए चतुर्थ शुक्लध्यान में लीन हो जाते हैं और उस श्रेष्ठ अखण्ड आत्मशक्ति के द्वारा चैदहवें गुण स्थान के उपान्त समय में अघाति कार्मों की 72 प्रकृतियों का तथा अंत समय 13 प्रकृतियों का क्षय करते हुए पंचलघु स्वरों (उ ठ उ ऋ लृ) के उच्चारण काल प्रमाण समय में निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। वे लोक के अंत में पहुंच जाते हैं। उनका परमौदारिक शरीर कपूर की भांति वायु आदि में विलीन हो जाता है, नख, केश आदि शेष को अग्रिकुमार देवों के मस्तक से उत्पन्न अग्नि भस्म कर देती है। जहां से तीर्थकर देव निर्वाण प्राप्त करते हैं, वहां समस्त इन्द्रादि देव आकर उनकी रत्नदीपों से पूजा करते हैं तथा निर्वाण कल्याणक या मोख कल्याणक का उत्सव मनाते हैं। वह स्थान तीर्थस्थान बन जाता है और आगे लोग उस स्थान तथा वहां पर स्थित मंदिर, मूर्ति वगैरह का दर्शन कर पुण्यलाभ करते हैं।
पंचकल्याणक जैसे महान मंगलप्रद प्रसंग लोकोत्तर अभ्युदय के प्रतीक है। ये प्रसंगे सौभाग्य शालियों को ही प्राप्त होते हैं। इन दिनों व्रत, नियम, उपवास इत्यादि करना चाहिए तथा महोत्सव मनाना चाहिए। वर्तमान चैबीस तीर्थकरों के पंचकल्याणकों की तिथियों की तालिका इस प्रकार है-
24 तीर्थकरों के पंचकल्याणकों की तिथि बोधक तालिका