10. तत्वार्थवार्तिक 6/24/1
11. समन्तभद्रः रत्नकरण्डश्रावकाचार 1/15
13. तत्वार्थवार्तिक 6/24/1
12. वही- 16
14. रत्नकरण्डश्रावकाचार 1/17
15. तत्वार्थवार्तिक 6/24/1
भगवान के धर्म काप्रकाश करना प्रभावना है16। अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशित करना प्रभावना है।
जिस प्रकार कम अक्षरों वाला मंत्र विष की वेदना को नष्ट नहीं कर सकता, उसी प्रकार निःशंकितादि अंगों से रहित सम्यग्दर्शन जन्म रूप संसार परम्परा को नष्ट नहीं कर सकता17।
कुल, रूप, वचन, यौवन, धन, मित्र, एश्वर्य और मनुष्यों की सम्पदायें; ये सब विनय और प्रशम भाव के बिना वैसी ही शोभायमान नहीं होती हैं जैसे जल रहित नदी सुशोभित नहीं होती है1। मध्यस्थता -उदासीनता को प्रशम कहते हैं। जिस प्रकार हंसा, सारस, चकवा वगैरह के झुण्डों से घिरी हुई भी नदी यदि निर्जन हे तो सुंदर नहीं लगती, केवल एक लम्बा गड्ड सा दिखलाई पडने के कारण भयानक लगती है, वैसे ही अन्य सम्पदाओं से भरा पूरा होने पर भी यदि मनुष्य विनयी नहीं हो तो सुंदर नहीं लगता है। अकलंकदेव ने कहा है- सम्यग्ज्ञानादि मोक्ष के साधन तथा सम्यग्ज्ञान के निमित्त गुरू आदि का योग्यरीति से आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है2। ‘गुणन्ति प्रतिपादयंति शास्त्रार्थमिति गुरवः’ अर्थात जो शास्त्र के अर्थ का कथन करते हैं उन्हें गुरू कहते हैं। सूत्रों के पढ़ने और उनके अर्थ को सुनने में प्रवृत्त होना, कालग्रहण, स्वाध्याय आदि शास्त्र के आरम्भ कहे जाते हैं। ये सभी आरम्भ गुरू की कृपा पर निभर््र हैं अतः हित चाहने वाले को गुरू की आराधना में तत्पर रहना चाहिए3। जिस प्रकार सरस चंदन को लगाने से जीव की दाह मिट जाती है, वैसे ही गुरू के स्नेहयुक्त हितकारी वचनों को सुनकर भव्यजीवों का अहित रूपी संताप मिट जाता है4। जो अविनयी हैं
16. रत्नकरण्डश्रावकाचार 1/18
17त्र वही 119
1. कुलरूप वचन यौवल धन मित्रैश्वर्य सम्पदपिपुंसाम्। विनय प्रशम विहीना न शोभते निर्जलेव नदी ।। प्रशमरतिप्रकरण - 67
2. सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्या सत्कारः आदर$ कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता। तथ्वार्थवार्तिक 6/26/2
3. गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेपि। तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम्।। प्रशमरतिप्रकरण - 69
वे गुरूओं, विद्वानों और साधु पुरूषों का अनादर करते हैं और त्रुटिरेणु (झरोखाों के द्वारा आने वाली सूर्य किरणों के प्रकाशम में दिखाई देने वाले धूलि के कण) के बराबर विषयों में आसक्त होकर अजर अमर मुक्तात्मा के समान निर्भय हो जाते हैं।
4. वही- 70
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इत्यादि व्रत तथा उनका परिपालन करते हुए क्रोध का त्याग करना आदि शीलों में काय, वचन और मन की निर्दोष प्रवृत्ति शीलव्रतेष्वनविचार है1। शील बहुत व्यापक शब्द है, इसमें अनेक गुणों का समावेश होता है। जो मनुष्य शील का पालन करना है वह अपनी और दूसरे की अनेक आपत्तियों पर विजय प्राप्त करता है और अपनी आत्मा के परिणामों को निर्मल बनाता है।
जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने वाले मति आदि पांच ज्ञान है। अज्ञान, निवृत्ति इनका साक्षत फल है। तथा हितप्राप्ति, अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित फल है। इस ज्ञान की भावना में सदा तत्पर रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है2। जो व्यक्ति निरंतर मन में ज्ञानाभ्यास करता है, उसके ह्दय में मोह रूपी महान अंधकार निवास नहीं करता है। मोह रूपी अंधकार के नष्ट होने पर सम्यग्दशर््न के पाने पर सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर लेने वाला साधु पुरूष रोग और द्वेष को दूर करने क ेलिए चारित्र को धाारण करता है3। राग और द्वेष के त्याग से हिंसा आदि पाप अपने आप छूट जाते हैं4 क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता है।
संसार के दुखों से नित्य डरते रहना संवेग है। जो व्यक्ति संवेग की भावना का विस्तार करता है वह स्वर्ग और मुक्ति पद का स्वतः साक्षात्काार करता है।
1. अहिंसादिषु व्रतेषु तत्परिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शाीलेषु निरव़ा वृति; कायवाडमनसां शलव्रतेष्वनतिचार इति क्यिते।। तत्वार्थवार्तिक - 6/24/3 2. वही- 6/24/4 3. मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्त संज्ञान। रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रपिद्यते साधुः ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार - 47 4. वही, 48
दूसरे की प्रीति के लिए अपनी शक्ति के अनुसार स्वकीय वस्तु को देना त्याग है। दान देने से मन में विशेष प्रकार का हर्ष होता है। इससे इस लोक में यश होता है और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दुःख छूटता है, अतः पात्र को संतोष होता है। ज्ञानदान अनेक सहस्त्र भवों के दुःख से छुटकारा दिलाने वाला है। विधिपूर्वक इन तीनों प्रकार के दानों का देना त्याग कहलाता है1।
अपनी शक्ति को न छिपाकर सम्यक मार्ग के अविरोधी विशुद्ध कायक्लेश को करना शक्तितः तप है2। तप की सबसे सुंदर परिभाषा इच्छाओं का निरोध करना है, क्योंकि इच्छाओं के निरोध के बिना किसी प्रकार का तप करना तप नहीं, ताप है।
जैसे भण्डार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शांत की जाती है, उसी प्रकार (अनेक आपत्तियों के आने पर भी) तप का संरक्षण करना साधु समाधि है3।