9रोग
10 मृत्यु
11 खेद
12 स्वेद
13मद
14रति
15विस्मय
16जन्म
17निद्रा
18विषाद
उपयुक्त अठारह दोष मानवीय दुर्बलता और अपूर्णता के प्रतीक है। ये मनुष्य को पूर्ण और शुद्धमना बनने में बाधक हैं। ये विकार हैं, जो निर्विकार स्थिति तक नहीं पहुंचने देते। इन दोषों को दूर कर के ही आत्मा शुद्ध हो पाती है। घातिया कर्मों के क्षय के बाद तीर्थकर भगवान इन दोषों से सर्वथा रहित हो जाते हैं। यह आत्मशुद्धि ही उनके परमात्मत्व का आधार है।
समवशरण का अर्थ है-भगवान की धर्म सभा। भरतेश वैभव में समवशरण के जन्म नाम दर्शाते हुए कहा है- जिनसभा, जिनपुर ओर जिनावास, ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। जिनेन्द्र भगवान जिस स्थान पर विराजते हैं, वह भगवान की धर्म सभा। भरतेश वैभव में समवशरण के जन्म नाम दर्शाते हुए कहा है- जिनसभा, जिनपुर ओर जिनावास, ये एक ही अर्थ के वाचक हैं। जिनेन्द्र भगवान जिस स्थान पर विराजते हैं, वह
1. तीर्थकरों के निर्वाणोपरांत उनके शरीर के सम्बंध में अनेक धारणाएं है। महापुरण और निर्वाण भक्ति आदि के अनुसार भगवान के शरीर का अंतिम संसकार ऊपर बताई गई विधि के अनुरूप देवों द्वारा किया जाता है, किंतु हरिवंश पुराण के अनुसार भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा के तत्काल बाद उनका शरीर विद्युत की तरह क्षण भर में विलीन हो जाता है। इसका हेतु बताते हुए वहां कहा गया है कि जिन भगवान के शरीर के परमाणु अंत समय मेें स्कंध रूपता का परित्याग कर देते हैं। इस कथन के अनुसार भगवान के शरीर का अंतिम संस्कार करने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
आचार्य जयसेन कृत प्रवचनसार की संस्कृत टीका के अनुसार भगवान के निर्वाणोपरांत उनके नख और केश को छोड़कर उनका सम्पूर्ण शरीर कपूर की तरह उड जाता है, किंतु यहां भी भगवान के निर्वाण कल्याणक की क्रिया के सम्बंध में कोई उल्लेख नहीं है। वर्तमान में पंचकल्याणकों में प्रतिष्ठाचार्यों द्वारा कराई जाने वाली निर्वाण कल्याणक की क्रिया का यही आधार प्रतीत होता है।
व्र. नेमिदंत कृत नेमिनाथ पुराण के अनुसार भगवान का मूल शरीर निर्वाणोपरांत विलीन हो जाता है और देवगण व्रैकियक शारीर का निर्माण कर भगवान के निर्वाण कल्याणक की क्रिया करते हैं। (देखें- महापुराण- 47/338 से 350, हरिवंशपुराण-65/12-13 प्रवचनसार गाथा 127 की टीका, नेमिनाथ पुराण अधय 167 पृ. 265) इसी नाम से जाना जाता है।
समवशरण का मतलब एक ऐसा सभा भवन है, जिसमें विराजकर तीर्थकर परमात्मा मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं। यह एक ऐसी धर्मसभा है, जिसकी तुलना लोक की किसी अन्य सभा से नहीं की जा सकती। देव-दानव, मानव, पशु-पक्षी सभी इसमें बराबरी से बैठकर धर्मश्रवण के अधिकारी बनते हैं। यही इसकी सर्वोपरि विशेषता हैं इसमें प्रत्येक प्राणी को समानतापूर्वक शरण्ण मिलती है। इसलिए ‘‘समवशरण’’ यह इसकी सार्थक संज्ञा है।
समवशरण की संरचना-समवशरण की रचना सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के निर्देशन में देवगण करते हैं। यह समवशरण भूतल से पांच हजार धनुष ऊपर आकाश में स्थित होता है। इसकी रचना वृत्ताकार होती है।उसी चारों दिशाओं में बीस-बीस हजार सीढियों की रचना रहती हैं इन सीढियों पर सभी जन पादलेप औषधि युक्त व्यक्ति की तरह बिना परिश्रम के चढ़ जाते हैं। प्रत्येक दिशा में सीढियों से लगी एक-एक सड़क बनी होती है, जो समवशरण के केन्द्र में स्थित गन्ध कुटी के प्रथम पीठ तक जाती है। इसका आंगन इन्द्रनील मणिमय होता है। समवशरण अत्यंत आकर्षक और अनुपम शोभा सहित होता है। समें 1. चैत्य-प्रासाद भूमि, 2. जल-खातिका भूमि, 3. लतावनभूमि 4. उपवनभूमि, 5. ध्वजभूमि, 6. कल्पवृक्ष-भूमि, 7. भवनभूमि, 8. श्रीमण्डप-भूमि, 9. प्रथम पीठ, 10. द्वितीय पीठ तथा 11. तृतीयपीठ-भूमि इस प्रकार कुल ग्यारह भूमियां होती है।समवशरण के बाह्य भाग में सबसे पहले धूलिसाल कोट बना रहता है। यह रत्नों के चूर्णों से निर्मित बहुरंगी और वलयाकार होता है। इसके चारों ओर स्वर्णमयी खम्भोंवाले चार तोरण द्वार होते हैं इन द्वारों के बाहर मंगलद्रव्य, नवनिधि, धूप-घट आदि युक्त पुतलियां स्थित रहती हैं। प्रत्येक द्वार के मध्य दोनों बाजुओं में एक-एक नाट्यशाला होती है। इनमें बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएं नृत्य करती रहती हैं। ज्योतिषी देव इन द्वारों की रक्षा करते हैं।
इन द्वारों के भीतर प्रविष्ट होने पर कुछ आगे की ओर चारों दिशााओं में चार मानस्तम्भ होते हैं प्रत्येक मानस्तम्भ चारों और चार दरवाजों वाले तीन-तीन परकोटों से परिवेष्टित रहता है। मानस्तम्भों का निर्माण तीन पीठिकायुक्त समुन्नत वेदी पर होता है। यह घण्टा, ध्वजा और चामर आदि से सुशोभित अत्यधिक कलात्मक होता है। मानस्तम्भों के मूल और ऊपर भाग में अष्ट महाप्रातिहायों से युक्त अर्हन्त भगवान की स्वर्णमय प्रतिमाएं विराजमान रहती है। इन्द्रगण क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया करते हैं। कमानस्तम्भों के निकट चारों ओर चार-चार वापियाकाएं बनी होती हैं। एक-एक वापिका के प्रति बयालीस-बयालीस कुण्ड होते हैं। सभी जन इन कुण्डों के जल से पैर धोकर ही अंदर प्रवेश करते हैं मानस्तम्भों को देखने मात्र से दुरभिमानी जनों का मान गलित हो जात हैं। इसलिए ‘मानस्तम्भ’ यह इसकी सार्थक संज्ञा है।
उसके बाद चैत्यप्रासाद-भूमि आती हैं वहां पर एक चैत्य प्रासाद होता है, जो कि वापिका, कूप, सरोवर और वन-खण्डों से मण्डित पांच-पांच प्रासादों से युक्त होता है। चैत्यप्रसाद भूमि के आगे रजतमय वेदी बनी रहती है। वह धुलीसाल कोट की तरह आगे गोपुर द्वारों से मण्डित रहती है। ज्योतिषी देव, द्वारों पर द्वारपाल का काम करते हैं। उस वेदी के भीतर की ओर कुछ आगे जाने पर कमलों से व्याप्त अत्यंत गहरी परिखा होती है, जो कि सीढियों/सड़कों को छोड़कर समवशरण को चारों ओर से घेरे रहती है। परिखा के दोनों तटों पर लतामण्डल बने होते हैं। लतामण्डपां के मध्य चन्द्रकांतमणिमय शिलाएं होती हैं, जिन पर देव-इन्द्र गण विश्राम करते हैं। इसे खातिका-भूमि कहते हैं।
खातिका भूमि के आगे रजतमय एक वेदी होती है। यह वेदी पूर्वतत्गोपुर द्वारों आदि से युक्त होती है। उस द्वितीय वेदी से कुछ आगे बढ़ने पर लताभूमि आती है, जिसमें पुन्नाग, तिलक, वकुल, माधवी इत्यादि नाना प्रकार की लताएं सुशोभित होती हैं। लताभूमि में लता-मण्डप बने होते है, जिसमें सुर-मिथुन क्रीड़रत रहते हैं।
लताभूमि से कुछ आगे बढ़ने पर एक स्वर्णमय कोट रहता है। यह कोट भी ध्धुलिसाल कोट की तरह गोपुर, द्वारों, मंगल द्रव्यों नवनिधियों ओर धूपघटों आदि से सुशोभित रहता हैं उसके कुछ आगे जाने पर पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रमशः अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक चार उद्यान होते हैं। इन उद्यानों में इन्हीं नामों वाला एक-एक चैत्य वृक्ष भी होता है। यह वृक्ष तीन कटनीवाले एक वेदी पर प्रतिष्ठापित रहता है। उसके चारों ओर चार दरवाजों वाले तीन परकोटे होते हैं। उसके निकट मंगल द्रव्य रो होते हैं, ध्वजाएं फहराती रहती हैं तथा वृक्ष के शीर्ष पर मोतियों की माला से युक्त तीन छत्र होते हैं। इस वृक्ष के मूल भाग में अष्ट प्रातिहार्य युक्त अर्हंत भगवान की चार प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं। इसे उपवन-भूमि कहते हैं। इस भूमि में रहनेवाली वापिकाओं में स्नान करने मात्र से जीवों को भव (आगे पीछे का) दिखाई पड़ता है तथा वापिकाओं के जल में देखने से सात भव दिखाई पड़ते हैं। उसके आगे पुनः एक वेदिका होती है। वेदिका के आगे ध्वज-भूमि होती है। ध्वज-भूमि में माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरूड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र से चिन्हित दो प्रकार की निर्मल ध्वजाएं होती हैं। इनके ध्वजदंड स्वर्णमय होते हैं। ध्वजभूमि के कुछ आगे बढ़ने पर एक स्वर्णमय कोट आता है। इस कपरकोटे के चारों ओर पहले के समान चार दरवाजे होते हैं, नाटक शालाएं होती हैं तथा धूप घटों से सुगन्धित धुआं निकलता रहता है। इसके द्वार पर नागेन्द्र द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं।