नागेन्द्र भवन- नागेन्द्र भव का अवलोकन गर्भस्थ शिशु के अवधिज्ञानी होने का सूचक है।
रत्नराशि- रत्नराशि का दर्शन यह बताता है कि बालक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र धारण करेगा।
निर्धूम अग्नि- निर्धूम अग्नि के दर्शन का अर्थ है कि बालक अपनी समस्त कर्म कालिमा को नष्ट कर निर्वाण प्राप्त करेगा।
उपर्युक्त सोलह स्वप्न मात्र तीर्थकरों की माताओं को ही दिखते हैं।
उसी समय सौधर्म इन्द्र भगवान के गर्भावतरण को निकट जानकर श्री, हृी, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम के देव-कुमारियरकाओं को जिन-माता के गर्भ का शोधन करने की आज्ञा प्रदान करते है। देवियां इन्द्र की आज्ञा को शिरोधार्य करती हुई धरती पर आकर स्वर्ग के पवित्र-दिव्य द्रव्यों द्वारा जिन-माता के गर्भ का शोधन करती हैं। तत्पश्चात तीर्थकर का गर्भावतरण होता है।
जैसे ही भगवान का गर्भावतरण होात है, स्वर्ग के समस्त देव और इन्द्र अपने-अपने यहां प्रकट होनेवाले चिन्हों से भगवान के गर्भावतरण को जानकर स्वर्ग से धरती पर आते हैं और उस नगर की परिक्रमा कर भगवान के माता-पिता को नमस्कार करते हैं। तदुपरांत, गर्भस्थ तीर्थकर की स्तुति कर महान उत्सव करते हैं। भगवान के गर्भ कल्याणक का उत्सव पूर्ण कर सौधर्म इन्द्र दिक्कुमारी देवियों को जिनमाता की सेवा में नियुक्त करता है। फिर समस्त देवों के साथ अपने-अपने स्थान को लौट जाता है। ये दिक््कुमारियां भगवान के गर्भावतरण से जन्म तक जिनमाता की सेवा में अनुरक्त रहती हैं। जिनमाता का गर्भकाल देवियों के साथ आमोद-प्रमोद और धर्म-चर्चा में बीतता है। नव माह पूर्ण होने पर भगवान का जन्म होता है। प्रसूति का कार्य दिक्कुमारी देवियां कराती हैं।
गर्भावधि पूर्ण होने पर सर्व ग्रहों की उच्च और बलवान स्थिति में शुभयोग और शुभलग्न में तीर्थकर भगवन्त को माता जन्म देती है। अनेक भव्यात्माओं के भव्यत्व की सफलता जिनके जन्म में निहित होती है, उन वीतराग तीर्थकर प्रभु के जन्म को जन्म कल्याणक कहा जाता है। अपार्थिव आत्म तत्व के अपूर्व ज्ञाता तीर्थकर प्रभु का पार्थिव रूप में यह अंतिम जन्म होता है, जो असंख्य जीवों को जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त कराने में कारण बनता है। तीर्थकर प्रभु का जन्म ही अनेक जीवों के कल्याण का कारण बनता है। अतः उनके जन्म को जन्म कल्याणक कहते हैं। तीर्थकर के अतिरिक्त अन्य किसी के जन्म को जन्म कल्याणक नहीं कहा जाता।
जिस समय तीर्थकर भगवान का जन्म होता है, उस समय तीनों लोकों में अंधकार का नाश करनेवाला उद्योत क्षण भर में ही फैल जाता है। तीर्थकर प्रभु े जन्म के प्रभाव से तीनों लोकों में आनन्द और सुख का प्रसार होता है। प्रभु के जन्म के माहात्म्य से नारकी जीवों को भी क्षणभर अपूर्व सुख की प्राप्ति होती है।
प्राकृति पर प्रभाव- तीर्थक परमात्मा के जनम के समय अन्य प्राकृतिक वातावरण भी अद्वितीय, सुन्दर, अपूर्व एवं अनुपम होता है। शीतल, मंद, सुगन्धित वायु बहती है। पृथ्वी धन-धान्य समृद्ध होती है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वाभाविक आनन्द/प्रमोद होता है। दिशामण्डल प्रसन्न होता है। आकाश मण्डल मनोहर दिखता है। देव-दुन्दुभि बजती है। चारों ओर शुभ शकुन का सूचन होता है। वायुदेव भूमण्डल शुद्ध करते हैं। मेघकुमार गंधोदक की वृष्टि करते हैं। पृथ्वी के रजकण शांत हो जाते हैं। ऋतुदेवी पंचवर्णी पुष्पों की वर्षा करती हैं।
इन्द्र-देव आगमन-जिस समय भगवान का जन्म होता है, स्वर्ग के इन्द्रों का आसन कम्पायमना हो जाता है। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यंतर एवं भवनवासी देवों के यहां क्रमशः घंटा, सिंहनाद, भेरी और शंख अपने आप ही बजने लगते हैं। अपने-अपने यहां होनेवाले चिन्हों से सभी देव अपने स्थान से ही भगवान के जन्म को जान लेते हैं और तत्काल ही अपने आसन से नीचे उतर कर सात कदम आगे चलकर परोक्षरूप से भगवान को नमस्कार कर उनकी स्तुति करते हैं। जन्म के अवसर पर तीर्थकरों का यह स्वाभाविक प्रभाव है1।
तत्क्षण् ही सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे, गन्धर्व, बैल और नर्तकी रूप सात प्रकार की देव सेना अत्यंत हर्ष और आनन्द के साथ जन्म नगरी की ओर प्रस्थान करती है। स्वयं सैधर्म इन्द्र भी अपनी इन्द्राणी के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर जन्म नगरी की ओर प्रस्थित होता है। वहां पहुंचकर सर्वप्रथम जन्म नगरी की तीन परिक्रमा देता है। समस्त देव परिकर उसके साथ होता है। तदनन्तर इन्द्राणी प्रसूति कक्ष में प्रच्छन्न रूप में पहुंचकर जिनबालक और जिन-माता की प्रदक्षिणा कर अपने आप को धन्य करती है। फिर जिनमाता को माया निद्रा से निद्रित कर अत्यंत हर्ष और उल्लास के साथ जिन-बालक को उठाती है। वहां एक कृत्रिम बालक को छोड़कर जिन-बालक की मनोहर छवि को निहारती हुई वह उन्हें सौधर्म इन्द्र को सौंप देती है। सौधर्म इन्द्र बालक का दशर््न कर भाव विभोर हो जाता है। तत्पश्चात ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होता है और जिनबाल को अपनी गोद में बिठाकर सुमेरू पर्वत की ओर प्रस्थान करता है। ईशान इन्द्र भी भगवान के ऊपर छत्र धारण कर सौधर्म इन्द्र के साथ चलात है। शेष इन्द्र ाअैर देवगण भी उल्लसित चित्त होकर सुमेरू पर्वत पर पहुंचते हैं और उसे चारों ओर से घेकरकर स्थित हो जाते हैं। सौधर्म इन्द्र सुमेरू पर्वत की ईशन दिशा में स्थित पांडुक शिला पर दिव्य सिंहासन रखता है, तत्पश्चात बड़ी भक्ति से भगवान को पूर्व की ओर मुख करके विराजमान करता है। फिर अत्यंत उत्सव और उल्लास के साथ क्षीर समुद्र के जल से 1008 कलशों द्वारा जिनबालक 1. स एष तीर्थ नाथानां हि स्वभावजः अजितनाथ चरित्र 2/3/125 का अभिषेक करता है। अभिषेक की क्रिया में सौधर्म और ईशान इन्द्र की मुख्य भूमिक होती है। शेष इन्द्र और देव उनके परिचारक बनकर अभिषेक महोत्सव में सहभागी बनते हैं।
अभिषेकोपरान्त सौधर्म इन्द्र की इन्द्राणी जिनबालक को दिव्य वस्त्रोभूषणों से सुसज्जित करती है। उसके बाद सौधर्म इन्द्र हजारों नेत्र बनाकर भगवान की सौम्य छवि का अवलोकन करता है। उसी समय तीर्थकर बालक के दांये पैर के अंगूठे पर अंकित लक्षण को देखकर सौधर्म इन्द्र उसे भगवान का लांछन/चिन्न घोषित कर भगवान का नामकरण करता है। जिन-बालक को वस्त्राभूषणें से सुसज्जित करने के उपरांत सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर भगवान को विराजमान कर समस्त देव-देवेन्द्रो के वैभव के साथ जन्म नगरी आता है। तत्पश्चात माता के पास पहुंचकर कृत्रिम बालक को उठा लेता है और माता की मायानिन्द्र को दूरकर बालक तीर्थकर को माता के पास रखता है। इन्द्राणी द्वारा प्रबोधित जिन-माता, अत्यंत आनंन्दित हो जिन-बालक का दर्शन करती है।
देवगण तीर्थकर के माता-पिता का विशेष सत्कार/पूजा का महान् उत्सव करते हैं और अपने स्थान को लौट जाते हैं।
तीर्थकर भगवान जब दीक्षा धारण करते हैं, तब दीक्षा कल्याणक मनाया जाता है।
जैसे ही भगवान के मन में वैराग्य उत्पन्न होता है, ब्रह्य स्वर्ग से लौकान्तिक देवों का आगमन होता है। लौकान्तिक देव विषयों से विरक्त और अध्यात्म प्रेमी होते हैं। इन्हें देवर्षि कहा जाता है तथा ये मात्र तीर्थकरों के दीक्षा कल्याणक में ही मत्र्यलोक में आते हैं। वे तीर्थकर भगवान के वैराग्य की सराहना करते हुए उनकी स्तुति कर स्वर्ग लौट जाते हैं।
इसके बाद चारों निकाय के देवो हैं और वे क्षीर समुद्र के जल से भगवान का दीक्षाभिषेक करते हैं। दीक्षााभिषेक के बाद जिनराज अपनी मार्मिक वाणी द्वारा अपने परिवार और प्रजा को सान्त्वना देते हुए परम निग्र्रन्थ मुद्रा को धारण करने का निश्चय करते हैं उसी समय देवगण स्वर्ग से दिव्य पालकी लाकर भगवान के सम्मुख रखते हैं। भगवान उस पर आरूढ़ हो जाते हैं। उस पालकी को सर्वप्रथम साधारण मनुष्य और विद्याधर सात-सात कदम तक अपने कंधे पर रखते हैं। उसके पश्चात देवतागण प्रभु को पालकी को अपने कंधे पर रखकर आकाश मार्ग द्वारा विशेष उत्सव पूर्वक दीक्षा वन तक ले जाते हैं। दीक्षावन तीर्थकर के जन्म नगरी के पास ही होता है।
दीक्षावन में पहुंचकर भगवान पालकी से नीचे उतरते हैं और देवों द्वारा पहले से ही रखी हुई चन्द्रकान्तमणि की शिाला पर विराजमान हो जाते हैं। उसके बाद देव मनुष्य और विद्याधरों की उपस्थिति में अपने वस्त्र-आभूषणों को त्यागकर परम दिगम्बर अवस्था को धारण करते हैं। तदुपरान्त पद्ासन मुद्रा में पूर्वाभिमुख होकर भगवान सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर पंचमुष्ठी केशलोंच करते हैं। केशलोंच के उपरांत परम दिगम्बर मुद्रा के धारी भगवान सर्व प्रकार के सावद्य-पाप का त्यागकर परम सामायिक चारित्र को धारण करते हैं तथा व्रत, समिति, गुप्ति आदि चारित्र के भेदों को धारणकर कुछ दिनों के उपवास के साथ योगारूढ हो जाते हैं। सौधर्म इन्द्र भगवान के केशों को असाधारण मान भक्ति-भाव से उन्हें ग्रहण कर क्षीर-समुद्र में विसर्जित करता है। दीक्षोपरांत भगवान की पूजा भक्ति कर देवगण अपने-अपने स्वर्ग को लौट जाते हैं।