।। अष्ट प्रातिहार्य ।।
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यह दिव्य देव-दुन्दुभि देवों के हस्त तल से ताडि़त अथवा स्वयं शब्द करनेवाली होती है। यह स्वयं के गम्भीर नाद से समस्त अन्तराल को प्रतिध्वनित करती है।

दुन्दुभि जयगान का प्रतीक है। यह तीर्थंकर भगवन्त के धर्मराज्य की घोषणा प्रकट करती है और आकाश में भगवान् के सुयश को सूचित करती है। यह विजय का भी प्रतीक है। संपूर्ण विश्व को जीतनेवाले महान योद्धा मोह राजा को, अरिहन्त भगवान् ने शीघ्र ही जीत लिया है, ऐसा सूचित करता हुआ दुन्दुभिनाद सर्व जीवों के सर्वभयों को एक साथ दूर करता है।

8 दिव्य-ध्वनि - दिव्य - ध्वनि मृदु, मनोहर, अतिगंभीर और एक योजन प्रमाण समवशरण में विद्यमान देव, मनुष्य और तिर्यंच आदि सभी संज्ञी पंचेद्रिय जीवों को एक साथ प्रतिबोधित करने वाली होती है। जैसे मेघ का जल एकरूप होते हुए भी नाना वनस्पतियों में जाकर नानारूप परिणत हो जाता है, उसी तरह दनत, तालु, ओष्ठ आदि के स्पन्दन से रहित भगवान् की वाणी अट्ठारह महाभाषा और सात सौ लघुभाषा रूप परिणत होकर एक साथ समस्त भव्य जीवों को आनन्द प्रदान करती है। इसलिए भगवान् की वाणी को सर्व भाषा-स्वभावी कहते हैं।

तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि मागध जाति के व्यंतर देवों के निमित्त से सर्वजीवों को भले प्रकार से सुनाई पड़ती है। जैसे आजकल ध्वनि विस्तारक यंत्रों द्वारा ध्वनि को दूर तक पहुंचाया जाता है, वही काम मागध देवों का है। वे भगवान् की वाणी को एक योजन तक फैलाकर उसे सर्वभाषात्मकरूप परिणमा देते हैं। जैसे आजक राष्ट्रपति भवन एवं संसद भवन आदि में एक ही भाषा में बोले गये शब्द अनेक भाषारूप में सुने जा सकते हैं, वैसे ही मागध जाति के देवों के निमित्त से संज्ञी जीव भगवान् की वाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। भगवान् की वाणी दिन में चार बार छह-छह घड़ी (दो घण्टे चैबीस मिनट) तक खिरती है।

इस प्रकर अष्टमहाप्रातिहार्यों से संयुक्त परमात्मा अद्भुत महिमावाले होते हैं।

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