।। जैन धर्म कर्म सिद्धान्त ।।

जैनधर्म कर्मसिद्धान्त पर आधारित है

जैन सिद्धान्त के अनुसार समय की परिभाषा अत्यंत सूक्ष्म बताई है। सिद्धांतचक्रवर्ती में कहा है-

सिद्धाणंतिम भागं अभव्वसिद्धादणंत गुणमेव।
समयपबद्धं बंधदि जोगवसादो दु विसरित्थं।।

अर्थात् यह आत्मा सिद्ध जीवराशि के अनन्तवें भाग और अभव्य जीवराशि से अननतगुणे समयप्रबद्ध को एक समय में बांधता है परंतु मन-वचन-कय की प्रवृत्तिरूप योगों की विशेषता से कभी थोड़े और कभी बहुत परमाणुओं का भी बंध करता है।

सारांश यह है कि परिणामों में कषाय की अधिकता तथा मन्दता होने पर आत्मा के प्रदेश अधिक या कम चलायमान होते हैं, तब कर्मपरमाणु भी ज्यादा अथवा कम बंधते हैं। जैसे अधिक चिकनी दीवाल पर धूलि अधिक लगती है और कम चिकनी दीवाल पर कम लगती है, वैसे ही राग भाव से चिकनी आत्मा अपनी कम या अधिक चिकनाई के अनुसार कर्म परमाणुओं को ग्रहण करता है।

संसार में कर्मों का मीटर प्रतिक्षण चालू रहता है। चाहे आप सो रहे हों या जागृत अवस्था में हो, कभी कर्म के चक्र से छूट नहीं सकते। कर्मों से छूटने के लिए निग्र्रन्थ अवस्था धारण करनी पड़ती है। मोक्षपाहुड़ में कहा भी है-

धुवसिद्धी तित्थयारो, चउणाणजुदो करेइ तवयरणं।
णाऊण धुवं कुज्जा, तवयरणं णाणजुत्तोवि।।
jain temple410

अर्थात् ‘‘तीर्थंकर भगवान मोक्ष प्राप्त करेंगे’’ यह बात नियम से सिद्ध है- निश्चित है फिर भी वे राजपाट छोड़कर दीक्षा धारण करते हैं। वे गर्भावस्था से ही मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानों के धारी होते हैं एवं दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान प्रगट हो जाता है। हालांकि केवलज्ञान प्राप्त होने तक प्रत्येक तीर्थंकर मौन रहते हैं और केवलज्ञान के बाद उनकी ओंकार-रूप दिव्यध्वनि खिरती है जो कि समस्त भव्यप्राणियों के लिए हितकारी होती है।

भगवान ऋषभदेव ने एक हजार वर्षों तक तपस्या की और भगवान महावीर ने बारह वर्ष तप किया था, यह तो अपने पूर्व कर्मों पर निर्भर होता है कि कौन कितन दिन में कर्मों का क्षपण करता है।

जिन महापुरूषों ने समस्त कर्मों का नाश कर दिया, उनकी हम लोग आराधना करते हैं। जैनधर्म किसी व्यक्तिविशेष को नहीं पूजता, वह तो गुणों का पुजारी होता है। इसीलिए जैनधर्म प्राणिमात्र के ग्रहण करने योग्य धर्म है उसकी परिभाषा बताते हुए आचार्यों ने कहा है-

‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’ अर्थात् जो कर्मशत्रुओं को जीत लेते हैं, वे जिन कहलाते हैं तथा ‘जिनो देवता यस्य स जैनः’ जो जिन के उपासक हैं अथवा जिनेन्द्र भगवान ही हैं देवता जिनके, वे जैन कहलााते हैं। मानव से लेकर पशु-पक्षी तक इस धर्म को धारण कर सकते हैं। सिंह जैसे हिंसक प्राणी ने भी दिगम्बर मुनि का संबोधन प्राप्त करके जीवन का उत्थान कर लिया, मांसाहार त्यागर करके उसने सल्लेखना ग्रहण कर लिया

पहले लोग कर्मों का नाश करके मोक्ष जाने वाले महापुरूर्षों की स्मृति में प्रतिदिन निर्वाणकाण्ड पढ़ते थे, किंतु आज का निर्वाणकांड दैनिक समाचार-पत्र बन गया है जो कि प्रातःकाल से ही प्रारंभ हो जाता है। अखबरों के मुख पृष्ठ पर ही पढ़ने को मिलता है कि कश्मीर में अनकों हत्याएं एवं कई घायल। कैसे दिन भर का वातावरण मगलमयी रह सकता है? आप सुबह उठते ही कम से कम 5 मिनट तक सिद्धशिला पर विराजमान सिद्ध परमात्मा का ध्यान करें, पुनः सुप्रभात स्तोत्र का पाठ करें, आपका दिवस मंगलमयी होगा एवं सब कार्यों की सिद्धि होगी।

मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के ही जीवन को देखिए, वनवास में भी उन्हें जहां-जहां मंदिरों एवं साधुओं का निवास मिलता था, वहां रूककर दर्शन-पूजन अवश्य करते थे जैसा कि जैन रामायण (पद्मपुराण) में वर्णन आया है कि ‘एक मंदिर में वरधर्मा नाम की गणिनी आर्यिका अपने संघ सहित विराजमान थीं, रामचन्द्र जी ने सीता के साथ उनकी अष्टद्रव्य से पूजा की।’

एक बार राम, लक्ष्मण, सीता, वंशस्थल वन में पहुंचते हैं, वहां सायंकाल गांव वालों का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं । गांव के सभी स्त्री-पुरूष अपने-अपने बच्चों को तथा घर का सामान लेकर कहीं भागे जा रहे थे। लक्ष्मण ने आगे बढ़कर उन लोगों से पूछ कि आप लोग कहां भागे जा रहे हों? उन लोगों ने बतलाया कि यहां रात्रि में कोई दैत्य आकर पर्वत पर इतना भयंकर शब्द करता है कि कई लोगों की मृत्यु हो जाती है, कितने ही लोग कानों से बहरे हो जाते हैं, गर्भवती स्त्रियों के असमय में गर्भपात हो जाते हैं। हम लोग इस राक्षस के प्रलयंकारी शब्द को सहन करने में असमर्थ हैं इसीलिए शाम को सभी लोग दूसरे गांव में भाग जाते हैं और प्रातः यही ंवापस आ जाते हैं।

गांव वालों से यह भयावह वार्ता सुनकर सीता राम से कहने लगीं कि चलो! हम लोग भी इन्हीं लोगों के साथ उसी गांव में चलें और सुबह इन्हीं के साथ वापस आ जायेगे। राम ने हंसकर कहा- तुम्हें डर लगता है अतः तुम इन लोगों के साथ चली जाओ, सुबह आकर हम लोगों से मिल लेना, हम लोग तो उस दैत्य का पता लगाएंगे और गांववासियों को उसके चंगुल से मुक्त कराएंगे। सीता भला इस तरह अकेली कमब जाने वाली थी? उसने कहा-ःआप लोगों की तो हमेशा ही केकड़े की पकडत्र के समान जिद रहती है।’

अन्ततोगत्वा तीनों ही वंशस्थल पर्वत पर चढ़ते हैं। वहां दो मुनिराज ध्यान में लीन खड़े हुए थे, वहां पहुंचकर वे लोग मुनिवर की भक्ति करने में अपनी सुधबुध भूल जाते हैं। उस भक्ति का बड़ा रोमांचक वर्णन मद्मपुराण में है-

झरने के जल से सीताने मुनि के चरण प्रक्षालन किए एवं मलयागिरि का चंदन घिसकर चरणों की पूजन की। राम-लक्ष्मण ने संगीत की धुन में भक्ति गीत गाये और बीच वाले स्थान में बिठा दिया और दोनों भाई दैत्य का सामना करने के लिए धनुष-बाण तानकर तैयार हो गए। दैत्य जितनी जोर से गर्जन करता था, उससे अधि गर्जना बलभद्र और नारायण के बाणों से निकलती थी। रात भर दैत्य के साथ वे दोनों युद्ध करते रहे, अंत में रात्रि के पिछले प्रहर में दैत्य स्वयं डरकर भाग गया। इस प्रकार उपसर्ग शांत हुआ और दोनों मुनियों को केवलज्ञान प्रगट होे गया, देवों ने आकर गंधकुटी की रचना कर दी। वे देशभूषण-कुलभूषण नाम के दोनों मुनि केवली बनकर गंधकुटी में विराजमान हो गए और भव्य प्राणियों को दिव्य देशना प्रदान करने लगे।

देखो! दो महापुरूषों के निमित्त से ग्रामवासियों का उपद्रव भी शांत हो गया एवं मुनिराज का उपसर्ग निवारण होते ही उनहें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उसी गंधकुटी में राम, लक्ष्मण और सीता ने भी दिव्यध्वनि का पान किया तथा उपसर्ग करने वाले दैत्य के बारे में एवं मुनियों के बारे में भी परिचय प्राप्त किया कि पूर्वभव के वैरवशात यह दैत्य उपसर्ग कर रहा था।

यही है कर्मों की विचित्रता! जहां वह दैत्य मुनियों पर उपसर्ग करके अपना संसार दीर्घ कर रहा था, वहीं उपसर्ग दूर करने वाले महान पुण्य का संचय कर रहे थे तथा उपसर्ग को सहन करने वाले महामुनि उस शत्रु को भी अपना मित्र समझ रहे थे क्योंकि उसके निमित्त से उनहें आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान हो रहा था। एक के कर्म कट रहे थे और एक के कर्म बंध रहे थे, यही अनतर था मुनिराज और दैत्य की आत्मा में।

जैनधर्म तो कर्म सिद्धांत पर ही टिका हुआ है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में एक गाथा आई है-

पयडी सील सहावो, जीवंगाणं अणाइसंबंधो।
कणयोवले मलं वा, ताणत्थित्तं सयं सिद्धं।।

इसका अर्थ यह है कि जीव और पुद्गल का अनादिकाल से संबंध चला आ रहा है। जैसे स्वर्ण पाषाण में मल स्वाभाविक रूप से लगा रहता है उसी प्रकार जीव के साथ कर्ममल अनादिकाल से लगे हुए हैं। उन्हें आत्मा से अलग करने के लिए स्वर्णपाषाण के समान आत्मा को तपस्या की अग्नि में तपाना पड़ेगा।

आप सभी इस कर्मसिद्धान्त के मर्म को समझकर कर्मों से छूटने हेतु दान, पूजन, स्वाध्याय आदि सत्कर्म करें तथा शक्ति के अनुसार जीवन में संयम धारण कर मोक्षमार्ग को सुगम बनावें, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है।