।। दान की महिमा ।।

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दान की महिमा

भव्यात्माओं! आचार्यों ने श्रावकों के -

1 - देवपूजा

2 - गुरूपास्ति

3 - स्वाध्याय

4 - संयम

5 - तप

6 - दान

ये षट् आवश्यक कर्तव्य बताए हैं। उनमें भी आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘दाणं पूजा मुक्खो’ दान और पूजा को मुख्य बतायाहै। आज मैं आपको दान के विषय में विस्तार से बताती हूं-

जो अपने और दूसरों के उपकार क ेलिए दिया जाता है उसे दान कहते हैं। जिससे अपना भी कल्याण हो और अन्य मुनियों के रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उन्नति हो, वही दान है। गृहस्थों को विधि, देश, द्रव्य, आगम, पात्र और काल के अनुसार दान देना चाहिए। जैसे मेघों से बरसा हुआ पानी भूमि को पाकर विशिष्ट फल देने वाला हो जाता है वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्य की विशेषता से दान में भी विशेषता आ जाती है।

जो प्रेमपूर्वक देता है, वह दाता है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विभूमित हैं, वे ही पात्र हैं। आदरपूर्वक देने का नाम विधि है और जो तप तथा स्वाध्याय में सहायक हो वही द्रव्य है।

सज्जन पुरूष तीन प्रकार से अपने धन कोखर्च करते हैं। परलोक में हमें सुख प्राप्त होगा कोई इस बुद्धि से अपना धन खर्च करते हैं। कोई इस लोक में सुख-यश आदि की प्राप्ति के लिए ही धन का दान करते हैं और कोई उचित समझकर ही धन खर्चते हैं किन्तु इससे विपरीत जिन्हें न परलोक का ध्यान है, न इहलोक का ध्यान है और न औचित्य का ही ध्यान है वे न धर्म कर सकते हैं, न अपने लौकिक कार्य कर सकते हैं और न यश ही कमा सकते हैं।

अन्यत्र भी सूक्तिकारों ने धन की तीन ही गति मानी हैं-

‘दान भोगों नाशः, तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति।।

दान, भोग और नाश, धन की ये तीन ही गति हैं। जो न दान देता है और न उपभोग ही करता है उसके धन का ‘नाश’ हो जाना यही तीसरी गति होती है। तात्पर्य यही है जो अपने धन को पात्र दान आदि सत्कार्यों में लगा देते हैं वे तो अपने धन को इस लोक में भी बहुत काल तक स्थायी रहने वाला बना लेते हैं और परलोक में नवनिधि आदि के रूप में अनेक गुणा प्राप्त कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त जो बड़े श्रम से धन कमाकर अपने गार्हस्थ जीवन के भोगों में ही लगा देते हैं वे तत्काल में तो कुछ उसका उपयोग कर ही लेते हैं भविष्य में उसका फल भले ही कटुक ही क्यों न हो किन्तु जो न देते हैं न खाते हैं उनके धन को चोर या डाकू लूट लेते हैं या दामाद के लोग छीन लेते हैं या सरकार के टैक्स चुकाने में लगाना पड़ता है या कोर्ट-कचहरी के झगड़े में ही समाप्त हो जाता है। मतलब, किसी न किसी तरह से ‘नाश- हो जाना, यही उसकी गति होती है। इसीलिए महर्षियों ने बुद्धिमान गृहस्थों को अपने धन का सही सदुपयोग करने के लिए दान का विधान किया है।

दान के चार भेद हैं-अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान। चे चारों दान अपनी शक्ति और श्रद्धा के अनुसार देना चाहिए। अभयदान से सुन्दर रूप मिलता है, आहारदान से भोग मिलता है, औषधदान से आरोग्य प्राप्त होता है और शास्त्रदान से श्रुतकेवली होता है।

सबसे प्रथम सब प्राणियों को अभयदान देना चाहिए, क्योंकि जो अभयदान नही ंदे सकता उस मुनष्य की समस्त पारलौकिक क्रियाएं व्यर्थ है और कोई दान दो या न दो, किन्तु अभयदान को देता है, वह सब शास्त्रों का ज्ञाता है, परमतपस्वी है और सब दानों का कर्ता है। प्राणीमात्र का भय दूर करके उनके जीवन की रक्षा करना अभयदान है। जीवन की रक्षा सब चाहते हैं अर्थात् सभी को अपना-अपना जीवन प्रिय है। यदि जीवन पर ही संकट हो तो आहारदान या औषधदानया शास्त्र-दान किस काम का? जो मनुष्य अपने से दूसरों की रक्षा नहीे कर सकता, वह यदि परलोक के लिए धर्म कर्म करे भी तो वह सब व्यर्थ है क्योंकि धर्म का मूल जीव रक्षा है। यदि मूल ही नही ंतो धर्म कहां से रह सकता है? अतः प्राणीमात्र को यथाशक्ति जीवनदान देना ही सर्वोत्तम दान है।

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श्री सोमदेवसूरि ने दान के चर भेद में पहले अभयदान को लिया है। श्री समंतभ्रद स्वामी ने शिक्षाव्रत के अंतिम भेद को वैयावृतय शब्द से लिया है। उस वैयावृत में चार प्रकार के दान का उपदेश दिया है। उनका क्रम ऐसा है- आहारदान, औषधदान, उपकरणदान और आवासदान। उपकरणदान में ही ज्ञान का उपकरण शास्त्रदान आ जाता है और आवासदान से अभयदान आ जाता है। मुनियों के लिए वसतिका दान देना आवासदान है। पूर्वकाल में श्रावक मुनियों के लिए गुफा या वसतिका बनवाते थे। उनके उदाहरण एलोरा आदि स्थानों की गुफाएं है। भगवती आराधना में भी मुनियों को वसतिका में रहने का वर्णन आया है। सल्लेखना के समय वसतिका गांव के निकट हो या ख्ुाले स्थान पर हो, अंदर भी उसमें प्रकाश हो और मलमूत्रादि विसर्जन के लिए मर्यादित स्थान हो, ऐसा बताया गया है। मूलाचार में भी बताया है कि मुनि आगंतुक मुनि के लिए वसतिका दान देवें।

सात गुणों से युक्त दाता नवधाभाक्तिपूर्वक जो साधुओं को अन्न-पान आदि शुद्ध आहार देता है, वह आहारदान कहलाता है। नवधाभक्ति क्या है? प्रतिग्रह, उच्चस्थान, चरणप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, मन-वचन-काय शुद्धि और भोजन शुद्धि ये नवधाभक्ति हैं।

सबसे पहले अपने द्वार पर मुनि को आते हुए देखकर उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना-पड़गाहन करना प्रतिग्रह है। यथा-हे स्वामिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ..............यदि वे ठहर जाये ंतो घर में ले जाकर ऊंचे आसन पर उन्हें बैठाना चाहिए, फिर उनके चरणों का प्रक्षालन कर गंधोदक लेना चाहिए, अष्टद्रव्य से उनकी पूजा करनी चाहिए पुनः पंचांग प्रणाम करना चाहिए। फिर थाली में भोजन परोस कर उनसे निवेदन करना चाहिए कि मेर मन शुद्ध है, वन शुद्ध है, काय शुद्ध है और अन्न जल-शुद्ध है। श्रावकों की ये सब िक्रयाएं नवधाभक्ति कहलाती है।

दाता के सात गुण हैं-श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलोभीपना, क्षमा और शक्ति। जिस दाता में ये सात गुण पाये जाते हैं वही दाता प्रशंसा के योग्य होता है। इन सातों गुणों में जो विज्ञान गुण है, उसी का नाम विवेक है। इस गुण से युक्त् श्रावक साधुओं को प्रासुक, पथ्य और योग्य आहार देता है। जो भोजन विरूप हो, चलितरस हो- अपने स्वाद से बिगड़ गया हो, फेंका हुआ हो, जल गया हो, खाने से रोग उत्पन्न करने वाला हो या साधु की प्रकृति के विरूद्ध हो, ऐसा भोजन मुनि को नहीं देना चाहिए।जो भोजन उच्छिष्ठ हो-खाने के बच गया हो, नीच लोगों के खाने योग्य हो, दूसरों के लिए बनाया गया हो, निन्दनीय हो, दुर्जन से छू गया हो, किसी देवता अथवा यक्ष के उद्देश्य से रखा हो, वह भोजन भी मुनि को नहीं देना चाहिए। ऐसे ही जो भोजन दूसरे गांव से लाया गया हो या मंत्र के द्वारा लाया गया हो या भेंट में आया हो या बाजार से खरीदकर लाया गया हो या ऋतु के प्रतिकूल हो वह भोजन भी मुनि को नहीं देना चाहिए। दही, घी, दूध आदि बासी भी खाने के योगय हैं किन्तु यदि इननका रूप, गंध और स्वाद बदल गया हो वह मुनि के देने योग्य नहीं है।

जो मुनि अवस्था में छोटे हैं, रोग से दुर्बल हैं, वृद्ध हैं अथवा नाना व्याधियों से पीडि़त है,ऐसे मुनियों को उनके स्वास्थ्य के अनुकूल ही आहार देना चाहिए।

मुनियों को आहार देते समय कपट, घमंड, निरादर, चंचलता, असंयम और कठोर वचनों को विशेषरूप से छोड़ देना चाहिए अर्थात् ये कपट आदि प्रवृत्तियां तो सदा ही त्याज्या हैं किंतु भोजन के समय तो खासतौर से छोड़ देने योग्य हैं क्योंकि इस सबका मन पर अच्छा असर नहीं पड़ता है और मन खराब होने से भोजन का भी परिपाक ठीक नहीं होता है।

जो भक्तिपूर्वक दान नहीं देते या अत्यंत कृपण हैं अथवा अव्रती हैं, या अपनी दीनता प्रगट करते हैं या करूणााबुद्धि से दान देते हैं उनके घर पर साधु को आहार नहीं लेना चाहिए।

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