।। दान की महिमा ।।

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जैन साधु बड़े सत्वशाली होते हैं, चित्त से भी बड़े दयालु होते हैं, उनकी वृत्ति दीनता और करूणाजन संकल्पों से रहित होती है अतः वे दीनों और दयापात्रों के घर पर आहार नहीं करते हैं।

मुनियों को दान स्वयं अपने हाथ से देना चाहिए। यदि कोई पर से दान दिलाता है तो वह दान कैसा है? सो ही आचार्य बताते हैं कि-

‘‘धर्म के कार्य, स्वामी की सेवा और सनतानोत्पत्ति को कौन समझदार मनुष्य दूसरे के हाथ सौंपता हैं? अर्थात् धर्म के कार्य-दान, पूजा आदि क्रियाएं, स्वामी की सेवा और संतान उत्पत्ति के कार्य, स्त्रीभोग ये कार्य बुद्धिमान लोग स्वयं ही करते हैं।

जो अपना धन देकर दूसरों के द्वारा धर्म कराता है, वह उसका फल दूसरों के भोग के लिए ही उपार्जित करता है इसमें संदेह नहीं है।

खाद्यपदार्थ, भोजन करने की शक्ति, रमण करने की शक्ति, सुन्दर स्त्रियां, संपति और दान करने की शक्ति ये सब चीजें स्वयं धर्म करने से ही प्राप्त होती हैं।

मुनियां को नाई, धोबी, कुम्हार, लुहार, सुनार, गायक, भाट, दुराचारिणी स्त्री तथानीच लोगों के घर आहारनहीं लेना चाहिए। उत्तम वर्ण और उत्तम कार्य करने वालों के यहां ही आहार लेना चाहिए, ऐसा विधान है। प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है कि वह अपना मन शुभ कार्यों में लगावे जैसे पारस के योग से लोहा अत्यंत शुद्ध हो जाता है वैसे ही परिणामों की निर्मलता से दिया गया दान अतिश्य लाभ कोदेने वला हो जाता है। प्राणियों के मन होते हुएभी यदि वह तप, दान और पूजा में नहीं लगाया जाता है तो जैसे गोदाम में धरा हुआ बीज धान्य को उत्पन्न नहीं कर सकता है, वैसे ही वह मन भी उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त नहीं करा सकता है अतः यदि मन है तो उसे शुभ कार्यों में लगाओं और यदि धन है तो घ्ज्ञर पर आये हुए अतिथि को, अपने आश्रित को, सजातीय को और दीन मनुष्यों को समय के अनुसार दान देते रहो, यही श्रावक का परम कत्र्तव्य है।

आजकल सच्चे मुनि हैं या नहीं? इस पर आचार्य कहते हैं-

‘काले कलौ चले चित्ते, देहे चान्नादि कीटके।
एतच्चित्रं यदद्यिापि, जिनरूपधरा नरा$।।
यथा पूज्य मुनीन्द्राणां, रूप लेपादि निर्मितम्।
तथा पूर्व मुनिच्छाया, पूज्याः संप्रति संयता।।

इस कलिकान में मनुष्यों का मन चंचल रहता है और शरीर अब का कीड़ा बना हुआ है। फिर भी बड़े आश्चर्य की बात है कि आज भी जिनमुद्रा के धारक मुनि पाये जाते हैं। जैसे पाषाण आदि में अंकित जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा पूजने योग्य हैं लोग उसकी पूजा करते हैं, वैसे ही आजक के मुनियों को भी पूर्वकाल के मुनियों की प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए।

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