।। गुरूभक्ति की महिमा ।।

गुरूभक्त्या वयं सार्ध-द्वीपद्वितयवर्तिनः।
वंदामहे त्रिसंख्योन, नवकोटिमुनीश्वरान्।।

ढाईद्वीप में तीन कम नव करोड़ मुनिराज है, उन सभी को गुरूभक्तिपूर्वक मेरा नमस्कार होवे।

गुरूभक्ति से क्या होता है? आचार्यों ने बताया है-

‘‘गुरूभक्ति संजमेण य, तरंति संसार सायरं घोरं’’

‘गुरूभक्त् िसे संयम प्राप्त होता है जो हमें घोर संसार सागर से पार कराने में सहायक है।’ ऐसी गुरूभत्ति इस पंचमकाल में भव्य श्रावकों के लिए कल्पवृक्षा के समान फल को देने वाली है। यह नियम है कि जब तक धर्म है कि जब तक धर्म है, तब तक गुरू हैं और जब तक गुरू हें, जब तक धर्म है। परस्पर में दोनों का संबंध जुड़ा हुआ है।

तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रंथ में वर्णन आया है कि-

jain temple392

भगवन पुष्पदंत से लेकर भगवान धर्मनाथ तक तीर्थंकरों के तीर्थकाल में कुछ काल ऐसा गया है कि जिसमें धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया और वह सूर्य कैसा था? चतुर्विध संघरूप। यह नियम है कि मुनि-आर्यिका नहीं होंगे तो श्रावक-श्राविका नहीं होंगे। चतुर्विध संघ ही धर्मरूपी सूर्य है, जिसकी परम्परा भगवान ऋषभदेव के समय से चली आ रही है। प्रयाग नगरी जो आज आपको महाकुंभ का एक तीर्थ दिख रहा है, वह प्रयाग सर्वप्रथम धर्मरूपी सूर्य अर्थात् चतुर्विध संघ से ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था। ‘‘प्रकृष्टो वा कृतस्त्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः’’ भगवान ऋषभदेव ने वहां प्रकृष्ट रूप से त्याग किया था, दीक्षा ली थी और वहीं उन्हें वटवृक्ष के नीचे 1000 वर्ष की तपस्या के बाद केवलज्ञान हुआ था इसलिए वह प्रयाग कहलाया तब वही चतुर्विध संघ की व्यवस्था बनी। पुरिमतालपुर के राजा ऋषभसेन जो कि भगवान ऋषभदेव के ही तृतीय पुत्र थे, ने वहीं मुनि दीक्षा ली थी और भगवान के समवसरण में प्रथम गणधर का पद प्राप्त किया था, उनकी बड़ी ब्राह्मी ने सर्वप्रथम आर्यिका दीक्षाा लेकर गणिनी पद प्राप्त किया था, तब चतुर्विध संघ बना थ, वही परम्परा आज भगवान महावीर के शासनकाल तक चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक मुनिधर्म है, मुनि, आर्यिकाएं, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएं है, श्रावक-श्राविकाएं हैं, तब तक धर्म परम्परा चलती रहेगी। आचार्यों ने उस चतुर्विध संघ की भक्ति आदि की महिमा का वर्णन करते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में बताया है-

उच्चैगौत्रं प्रणते, र्भोगो दानादुपासनात् पूजा।
भक्तेः सुन्दररूपं, स्तवनात् कीर्तिः तपोनिधिषु।।

अर्थात उन महामुनियों, आर्यिकाओं, क्षुल्लक-क्षुल्लकादि पिच्छीधारी साधुओं को नमस्कार करने से उच्च गोत्र प्राप्त होता है, उनको दान देने से इस भव में तथा परभद्र में उत्तम-उत्तम सामग्री प्राप्त होती है, उनकी उपासना करने से सब लोगों का आदर प्राप्त होता है और उनकी भक्ति करने से सुन्दर रूप प्राप्त होता है। ऐसे तपोनिधि साधुओं की स्तुति करने से कीर्ति, प्रशंसाा की प्राप्ति होती है और अयशस्कीर्ति का नाश होता है। गुरूभक्ति की एक छोटी सी घटना याद आती है-

कौशाम्बी में राजा अतिबल राज्य करते थे, उनके पुरोहित सोमशर्मा के अग्निभूमि और वायुभूति ऐसे दो पुत्र थे। माता-पिता के दुलार के कारण वे दोनों अनपढ़ रह गए। कालचक्र क ेप्रभाव से असमय में ही सोमशर्मा की मृत्यु हो गयी। पुराहित पुत्रों को वज्रमूर्ख देख राजा अतिबल ने उन्हें पुरोहित पद न देकर किसी अन्य विद्वान को दे दिया तब से उपमान समझ दोनों भ्राताओं को अत्यधिक दुःख हुआ और उनमें पढ़ने की इच्छा जगी, अतः वे अपने मामा सूर्यमित्र के पास राजगृही गए और सारा वृतान्त कह सुनाया। इनकी अध्ययन की प्रबल आकांशा देखकर मामा ने स्वयं उन्हें विद्याभ्यास प्रारंभ कराया एवं थोड़े समय में ही प्रकाण्ड विद्वान बना दिया पुनः ये अपने नगर लौट आए एवं राजा अतिबल को अपनी विद्वता का परिचय कराकर पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वास्तव में संसार में विद्या कामधेनु के समान मानी गयी है।

jain temple393

एक दिन संध्याकाल में सूर्यमित्र सूर्य को अघ्र्य चढ़ा रहा था कि उसकी अंगुली से राजकीय अंगूठी निकलकर महल के नीचे ताबालब में जा गिरी, पजा के पश्चात् जब उसकी दृष्टि अंगुली पर पड़ी तब उसे ज्ञात होते ही कि ‘राजमुद्रिक कहीं गिर गई’ वह भय से कांप उठा। तब किसी से सुनकर वह अवधिज्ञान मुनिराज सुधर्म के समीप गया और करबद्ध हो अंगूठी के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की, तब मुनि ने बताया कि सूर्य को अघ्र्य देते समय तालाब में खिले हुए एक कमल में वह अंगूठी गिरी है एवं प्रातः सूर्योदय होते ही कमल के खिलने के साथ ही मिल जाएगी, वह अगले दिन मुनि के कहे अनुसार मिल गई, तब सूर्यमित्र ने आश्र्चयकित होते हुए यह सोचा कि मुझे भी यह विद्या सीखना चाहिए। यह विचारकर वह सुधर्म मुनि के पास जाकर नमस्कार कर बोला- मुझे भी आप यह विद्या सिखा दीजिए तो महान कृपा होगी। मुनि ने कहा- मुझे यह विद्या सिखाने में कोई इंकार नहीं है पर बिना जिनदीक्षा लिए यह विद्या नहीं आ सकती। तब सूर्यमि मात्र विद्या के लोभ में दीक्षा ले मुनि हो गया। सुधर्म मुनि ने सूर्यमित्र को मुनियों के आचार के शास्त्र तथा सिद्धांत पढ़ाए, जिससे उसकी आंखें खुल गयीं। गुरूउपदेशरूपी दीपक द्वारा अपने हृदय के अज्ञान अंधकार को नष्ट क रवह जैनधर्म के प्रकाण्ड विद्वान हो गए। जिनका क्षयोपशम अच्छा होता है, पूर्व पुण्य होता है उन्हें ज्यादा सिखाना नहीं पड़ता। आर्यिका रत्नमती माताजी ने जब दीक्षा ली, वह अत्यन्त वृद्ध थीं और ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन मैंने उन्हें कुछ नहीं सिखाया और उन्हें स्वयं सामायिक आदि आ गई और अच्छे से अच्छा स्वाध्याय करने लगीं। प्रायः कितनों को बहुत दिन तक पढ़ाना पड़ता है, यह अपना-अपना क्षयोपशमह ै।

देखों! सूर्यमित्र यह चिन्तन करते थे-

जीवोऽन्यः पुद्गलश्वान्य इत्यसौ तत्वसंग्रहः।
यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः।।

यह तत्वज्ञान होने के बाद उन्होंने चैरासी लाख योनियों में खोई अपनी आत्मा को प्राप्त कर लिया, तब गुरू के द्वारा विद्या सिखाने हेतु पूछने पर कहते हैं कि मुझे वास्तविक ज्ञान मिल गया है अतः यह क्षणिक विद्या नहीं सीखनी है। बारह भावनाओं में धर्म-भावना में कहा है-

धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभ करि जान।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान।।

अर्थात् धनसंपदा, स्त्री, स्वर्णादि व राज्यसुख इनकी प्राप्ति तो सुलभ हैं किंतु इस संसार में यथार्थज्ञान को प्राप्ति दुर्लभ है। सूर्यमित्र मुनि यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर एक बार विहार करते हुए कौशाम्बी नगरी आए, तब अग्निभूति ने उन्हें भक्तिपूर्वक आहार कराया और वायुभूति की धर्म में रूचि जागृत करने हेतु मुनिराज की वंदना करने को कहा परंतु उसका फल उल्टा हुआ। क्रोधित वायुभूति ने मुनि की मिथ्या आरोपों से निंदा कर बहुत भला-बुरा कहा और समझाने पर भी नहीं माना।

शास्त्रों में लिखा है कि जो साधु को पिच्छी दान देता है वह पुत्रवान और चिरायु होता है, कमण्डलु देने से नीरोगी-स्वस्थ होता है और पवित्रात्मा कहलाता है। आर्यिकाओं और क्षुल्लक आदि को वस्त्र देने से सुख-सम्पन्नता मिलती है और क्रम से शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है एवं शास्त्रदान से ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसलिए लोग साधुओं को यह दान प्रदान करते हैं, इसकी महिमा ही विशेष है।

अग्निभूति को वायुभूति के द्वारा मुनि का अपमान करने से बड़ा दुःख हुआ और वह मुनि के साथ वन में चला गया। वहां गुरू से धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य हो जानेसे दीक्षा लेकर तपस्वी बन गया। यह सूचना पाकर उसकी शीलवती स्त्री सोमदत्ता बड़ी दुःखी हुई और वायुभूति से कहा कि तुमने मुनि की वंदना न करके अपमान किया जिससे दुखी होकर वह मुनि बन गये। यदि वे मुनि न हुए हों तो चलो हम उन्हें समझाकर वापस ले आवें। तब उस पापात्मा ने यह सुनकर क्रोधित हो अपशब्द कहते हुए भाभी को लात मारी और चला गया।

2
1