भगवान के दर्शन से अनेक उपवासों का फल मिलता है।
ऊँ नमः सिद्धेभ्यः, ऊँ नमः सिद्धेभ्यः, ऊँ नमः सिद्धेभ्यः।
आप लोग मंदिर में प्रवेश करते ही ऊँ जय-जय-जय, निःसही-निःसही-निःसही नमोऽतु- नमोऽतु-नमोऽतु- बोलते हैं। इसमें ऊँ जय ओर नमोऽतु का अर्थ तो लगभग सभी को पता होता है किन्तु ‘निःसही’ का अर्थ प्रायः लोगों को ज्ञान नहीं होता। निःसही का वास्तविक अर्थ है कहीं भी प्रवेश करते समय वहां के अधिष्ठाता देव से पूछना। प्रायः प्रतयेक स्थान के कोई न कोई अधिष्ठाता देव होते हैं चाहे मंदिर हो या मकान, पर्वत हो या गुफा, सरोवर हो या नदी‘ समुद्र आदि। श्रावकों को तो केवल मंदिरों में प्रवेश करे हुए निःसही शब्द क प्रयोग करना बतलाया है किंतु साधुओं के लिए आचार ग्रंथों में उनकी तेरह क्रियाओं के अंतर्गत असही और निःसही ये दो क्रियाएं बताई हैं, जिन्हें उनको अहोरात्रि (दिन-रात) हर समय करने पड़ते हैं। आपने निःसही शब्द तो सुना और प्रयोग किया है किंतु असही शब्द तो शायद सुना ही नहीं होगा। जैसे निःसही शब्द मंदिर या मकान में प्रवेश करते समय बोला जाता है, वैसे ही असही शब्द वहां से वापस जाते (बाहर निकलते) समय बोला जाता है। इसका मतबल होता है कि उस मंदिर या वसतिका के अधिष्ठाता जो भूत व्यंतरदेव हैं, उनसे पूछकर या उन्हें सूचित करके प्रवेश करना तथा उनसे कहकर ही वापस बाहर निकलना।
साुधगण (मुनि-आर्यिकादि) तो जितनी बार मल-मूत्र विसर्जन करने जाते हैं अथवा मंदिर या वसतिका आदि में प्रवेश करते हैं, तो निःसही बोले हैं और वहां से वापस आते समय असही बोलते हैं। ये क्रियाएं उनके लिए आवश्यक होती हैं।
अनगारधर्मामृत में एक श्लोक आया है-
इसकाी अर्थ यही है क वसतिका आदि सभी स्थानों के आधीन देवताओं से पूछकर वहां प्रवेश करना यारहना और उनसे पूछकर ही वापस जाना चाहिए।
इन असही- निःसही शब्दों का प्रयोग किसी देवता से निवेदन या प्रार्थना करना नहीं है बल्कि यह एक व्यवहारिकता है। इस निःसही शब्द को बोले बिना सहसा मंदिर मु घुस जाना उद्ण्डता का प्रतीक है। साधु यदि इन क्रियाओं का प्रयोग नहीं करें, तो आगम के अनुसार वे प्रायश्चित के भागी होते हैं आप भी जब अपने किसी रिश्तेदार के घर जाते हैं, तो अत्यंत परिचित होते हुए भी बाहर से घंटी बजकर उन्हें सूचित करते हैं, किसी सरकारी आॅफिर या काॅलेज की क्लास में प्रवेश करते हैं, ‘‘मैं आई, कम इन, सर’’ बोलकर साहब से पूछकर प्रवेश करते हैं। मैंने यहां तक भी देखा है कि कोई विद्यार्थी कक्षा में अध्यापक से बिना पूछे ही घुस गया, तो अध्यापक जी ने उसे कक्षा से बाहर निकला दिय क्योंकि उसने व्यवहारिकात का उल्लंघ्न कर दिया था, इसी प्रकार यदि आपने भी मंदिर प्रवेश में निःसही बोलकर व्यवहारिकता का पालन नहीं किया, तो किसी भूतादि का संकट भी उपस्थित हो सकता है।
यह तो हुई निःसही बोलेने की बात, उसके पश्चात् मंदिर के अन्दर घुसते हुए ‘निस्संगोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिःपरीत्येत्य भक्त्या’ इत्यादि ईर्यापथशुद्धि पाठ पढत्रते हुए भगवान की तीन प्रदक्षिणा लगावें पुनः जिनप्रतिमा के समीप खड़े होकर हाथ जोड़कर णमो अरिहंताणं, मणे सिद्धाणं, णमो आइरियाण, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं एवं चत्तारिमंगल पढ़कर पंचांग नमस्कार करें। पुरूषों का पंजांग नमस्कार घुटने जमीन पर टेककर दोनों हाथ जोडत्रते हुए मस्तक को भूमि पर स्पर्श करना है तथा महिलाओं को गवासन में बैठकर हाथ जोड़ते हुए मस्तक को भूमि पर स्पर्श कराते हुए नमोऽस्तु बोलकर पंचाग नमस्कार करना चाहिए।
मंदिर में प्रतिमाओं के समक्ष वेदिका पर चावल के पुंज भी चढ़ाने का अपना एक तीरका है। प्राचीन परम्परानुसार तो पहले प्रदक्षिणा करके पुंज चढ़कर नमस्कार करने का क्रम है। वर्तमान में शायद पहले चावल चढ़ाकर पुनः प्रदक्षिणा लगाने की परम्परा हैं। जो भी हो, मंदिर में विराजमान देव, शस्त्र, गुरू तीनों के समक्ष अलग-अलग तरीके से पुंज चढ़कार नमस्कार करना चाहिए। जैसे-भगवान की प्रतिमा के समक्ष अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु बोलकर पांच पुंज चढ़ाना चाहिए। बंद मुटठी में चावल रखकर अंगूठा अंदर करके सबसे पहले णमो अरिहंताणं बोलते हुए बीच में एक पुंज रखें, पुनः णमो सिद्धाणं बोलकर उस पुंज के ऊपर एक पुंज चढ़ावें, णमो आइरियाणं बोलकर दाई ओर पुंज चढ़ावें, णमो उवज्झायाणं कहते हुएनीचे पुंज चढावें और णमो लोए सव्वसाहूणं बोलते हुए बाईं और अंतिम पांचवां पुंज चढ़ावें। सभी वेदियों में भगवान की प्रतिमाओं के समक्ष इसी क्रम से पांच पुंज चढ़ाना चाहिए। पुनः जिनवाणी-शास्त्र जहां विराजमान रहते हैं, उनके समक्ष वेदी पर ‘प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः’ बोलते हुए सीधे क्रम से ही चार पुंज चढ़ाने चाहिए क्योंकि जिनवाणी माता प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार प्रकार की होती है। उनके समक्ष चढ़ाने के पश्चात पंचांग नमस्कार करते समय भी यही प्रथमं करण वाला पद बोले। इसके बाद मंदिर में या धर्मशाला में यदि कोई साधु -मुनि, आर्यिकादि विराजमान हों, तो उनके पास जाकर ‘सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र’ बोलकर क्रम से तीन पुंज चढ़ावें क्योंकि साधु रत्नत्रय की साधना करते हैं। इसीलिए उनके समक्ष तीन पुंज चढ़ाकर पंचांग नमस्कार किया जाता है।
साधुओं के पास नमस्कार करने में भी अलग-अलग शब्दों का प्रयोग होता है। उन्हें भी आप लोगों को अवश्यक जानना चाहिए। जैसे-दिगम्बर मुनियों को नमस्कार करने में ‘नमोऽतु’ बोला जाता है, आर्यिकाओं को ‘वंदामि’ कहकर नमस्कार करते हैं, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के ‘इच्छामि’ कहकर नमस्कार करते हैं।
नित्य देवदर्शन करने वाले को जिनवाणी और गुरूदर्शन का लाभ तो अनायास प्राप्त हो ही जाता है। जैनकुल में जन्म लेने के नाते प्रत्येक प्राणी को मंदिर दर्शन का नियम अवश्य लेना चाहिए। जैन रामायण पद्मपुराण के 32वे पर्व में जिनेन्द्र दर्शन का अचिन्त्य माहात्म्य बतलाया है-
इसी प्रकार आगे पांच श्लोकों में कहा है- ‘‘भगवान के दर्शन के लिए विचर करने मात्र से एक उपवास का फल मिलता है। गमन के लिए उद्यम करने पर दो उपवास, नहाने-धोने आदि रूप आरम्भ करने पर तीन उपवास, घर से मंदिर के लिए चल देने पर चार उपवास, थोड़ी दूर चले जाने पर पांच उपवास, आधा रास्ता तय हो जाने पर पन्द्रह उपवास, मंदिर के परिसर में पहुंच जाने पर छह मास का उपवास, मंदिर के द्वार में प्रवेश करने पर एक वर्ष का उपवास, भगवान की तीन प्रदक्षिणा लगाने पर सौ वर्ष का उपवास, जिनेन्द्र भगवान के मुख कमल का दर्शन करने पर हजार वर्ष का उपवास और भावपूर्वक स्तुति करने से अनंत उपवासों का फल प्राप्त होता है। इसका मतलब यही है कि जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से बढ़कर संसार में कोई वस्तु नहीं है।
मंढ़क जैसा तुच्छ तिर्यंच प्राणी देवदर्शन की भावना से कमल पांखुड़ी अपने मुंह में दबाकर चल पड़ा, मार्ग में राजा श्रेणिक के हाथी के पैर तले दबकर मर गया, तो भी वह स्वर्ग में देव हो गया। यह उसकी दर्शन करने की भावना का ही फल तो था। भक्ति के प्रवाह में उस बेचारे ने यह भी नहीं सोचा कि मुझ जैसा क्षुद्र प्राणी इतनी भीड़ में भगवान महावीर के पास तक कैसे पहुंच जाएगा? लेकिन वह तो अपनी शक्ति के अनुसार द्रव्य लेकर चल पड़ा था अतः भले ही उस पर्याय में भगवान तक न पहुंच सका किन्तु मरकर तुरंत ही अन्तर्मुहूर्त में देव शरीर धारण कर महावीर स्वामी के समवसरण में पहुंच गया। राजा श्रेणिक से पहले ही उसे जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन का सौभाग्य मिला। समवशरण में श्रेणिक द्वारा प्रशन किये जाने पर ज्ञात हुआ कि यह मेंढ़क का जीव के फलस्वरूप देव बनकर यहां आया है। आप महवीराष्टक स्तोत्र में भी पढ़ते हैं-
देखो! एक मेंढ़क को कवियों ने अपनी स्तुतियों में स्थान दे दिया। आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उस मेंढ़क की भक्ति का निरूपण किया है-
यह जिनेन्द्र दर्शन का ही माहात्मय है। आप मनुष्य होकर जिनदर्शन का महत्व जानकर अपने जीवन का सदुपयोग करें, अनंत जन्मों में संचित पाप पुंज का नाश करें, बिना उपवास किए असंख्यात उपवासों का पुण्यफल प्राप्त करे,ं यही मेरा मंगल आशीवार्द है।