उसके बाद हम गुरू दर्शन (सत्संगति) करना चाहिए। गुरू का अर्थ है ‘‘गु’’ का अर्थ अन्धकार और ‘‘रू’’ का अर्थ दूर करना अर्थात् अन्धकार को दूर करना।
देव और गुरू का दर्शन से चिरस्थायि पाप कर्म भी नाश होता है जैसे अंजली से पानी गल जाता है।
सन्तों का समागम और प्रभु का भजन संसार में अत्यंत दुर्लभ है। सौभाग्य से ही मिलता है। स्त्रि धन संपम्त्ती आदि पापी आदि को मिलता है। कारण साधु सर्वत्र नहिं मिलतें-
हर पर्वत पर माणिक नहीं होते हैं, हर हाथी के मस्तिष्क पर मोती नहीं होती है, हर वन में चन्दन वृक्ष नहीं मिलता है तद्वत् हर जगह में सज्जन साधु पुरूष नहीं मिलता है भाग्य से मिले तो मत छोड़ना। सन्त के पास जाना हो तो-
सन्तों के पास जाओं तो माया और अभिमान को छोड़कर पैर को आगे आगे जैसे रखेंगे वैसे कोटी पूजा का फल मिलते हैं।
एक भक्त जब चलने लगा, गुरू दर्शन के लिये तो गुरू महाराज का कमण्डल बाहर रखा हुआ था। उसे कहा-कहां जा रहे हो? इधर आओ। उसने कहा मैं गुरू महाराज के दर्शन करने के लिए जा रहा हूं। तो कमण्डल ने बुलाया और उससे कहा-
खाली पड़ा रहता है बेचरा भर नहीं पाया आज तक। ऐसे कमण्डल बनकर नहीं आना। जब श्रावक गुरू महाराज के पा पहुंचा तो हाथ में लाई सामग्री को किस प्रकार से अर्पण किया-
अर्घ चढाकर विराजित आचार्य, उपाध्याय, साधुओं को नमस्कार करना चाहिए, आर्यिका माताजी के लिए वन्दामी, ऐलक-क्षुल्लक, क्षुल्लिका जी के लिये इच्छामि या इच्छाकार, ब्रह्माचारी-ब्रह्माचारिणी जी को हाथ सादर जोडत्रकर वन्दना करना चाहिये। विश्व के अन्दर गुरू का सबसे बड़ा महत्व है। हर धर्म, हर संस्कृति में, हर संप्रदाय में धर्म को जिन्दा रखनेवाले गुझ है ही। अब पिन्छी कहती है-
गुरू संतों का वर्णन मुह से शब्दों से वर्णन न कर सकते। गुरू एक ऐसा माध्यम है जो परमात्मा से साक्षात्कार करता है। कबीरदास कहते है-
गुरू का अपने जीव में कोई महत्व नहीं समझते हैं वे मनुष्य अन्धे हैं। भगवान रूठ जाये तो गुरू ठौर है और यदि गुरू रूठ गया तो कोई ठौर नहीं। नाराज सो महाराज नहीं, महाराज तो नाराज नहीं। प्रवचन सुनना चाहिए। उनके दर्शन एवं आहारदानादि का लाभ भी जरूर लेना चाहिए। यथासमय वैयावृत्ति भी करनी चाहिए। जिन्हें आपने अपना धर्म गुरू माना है वर्ष भर में एक बार सपरिवार दर्शन करने के लिये अवश्य जाना चाहिए। इस प्रकार देव-शास्त्र-गुरू के दर्शन करके मन्दिर जी से बाहर निकलते समय तीन बार आस्सही-आस्सही-आस्सही बोलना चाहिए। आस्सही बोलने का तात्पर्य है कि जिन देवों क्षेत्रपालादि से हमने दर्शन पूजन आदि के लिए स्थान लिया था, उन्हें सौंप दिया। दर्शन करके मन्दिर जी से बाहर निकलते समय देव-शास्त्र-गुरू को पीठ नहीं दिखानी चाहिए। ऐसा शास्त्रकारों का मत है।