।। गन्द्योक मन्त्रा ।।

ऊँ ह्मा णमो अरिहंताणं रक्ष रक्ष स्वाहा (ललाटे)।।1।।
ऊँ ह्मीं णमो सिद्धाणं रक्ष रक्ष स्वाहा (हृदये।।2।।
ऊँ ह्मूं णमो आयरियाणं रक्ष रक्ष स्वाहा (दक्षिण भुज) ।।3।।
ऊँ ह्मौं णमो वजज्झायाणं रक्ष रक्ष स्वाहा (वाम भुजे)।।4।।
ऊँ ह्मः णमो लोएसव्वसाहूणं रक्ष रक्ष स्वाहां (कंठे)।।5।।

इस प्रकार गंध लेपन के बाद वेदी के सामने रखी हुई बेंच चैकी आदि द्रव्य सामग्री चढ़ाते हैं, हाथ या डिब्बी में लाये हुए चावल आदि द्रव्य को निम्न श्लोक बोलते हुए मन्त्र को उच्चारण करे हुए चढाये-

उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकैः चरू सुदीप सुधूप फलार्घकैः।
धवलं मंगल गान र वा कुलेंः जिन गृहे जिननाथ महं-यजे।।

पांच पुंज (ढेरी) में ‘‘ऊँ ह्मीं श्री गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण कल्याणक प्राप्ताय जलादि अघ्र्य निर्वपामीतो स्वाहा’’ इस प्रकार मंत्र बोले हुए चढ़ाना चाहिये। आप भक्ती शक्ती अनुसार पूजा करना हो तो भी कर सकते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि मन्दिर जी की प्रतिमा अरिहन्तों या सिद्धों की है फिर मंत्र में आचार्य-उपाध्याय सर्वसाधु को सम्मिलित क्यों किया गया? इसका उत्तर यह है कि जब इन प्रतिमओां के पंचकल्याक होते हैं। तब दीक्षा (तप) कल्याणक में इनमें साधु उपाध्याय एवं आचार्य परमेष्ठी की दीक्षा के मंत्रों के संस्कार किये जाते हैं। पुनः केवल ज्ञान कल्याणक में अरिहंतों के गुण एवं मोक्षकल्याणक में सिद्धों के गुण रूप मंत्रों में संस्कार किये जाते हैं। अतः पंचपरमेष्ठी का प्रतिमा को इस तरह अघ्र्य चढ़ाने में कोई दोष नहीं है।

तत्पश्चात् नमस्कार करना चाहिए। नमस्कारात्मक मुद्राओं का प्रभाव भी हमोर मन-मस्तिक एवं शरीर पर पड़ता है।

अष्टांग जिननाथस्य, पंचांग गुरू पादयोः।
सांधर्मीना शिरो नत्वा, नमनं त्रिविधं स्मृतं।।
jain temple386

श्री भगवान का दर्शन अष्टांग यानि सर्वांग से जमीन पर पट्ट लेकर (स्पर्शकर) नमस्कार करना चाहिए, गुरू चरणों में पंचाग यानि दोनों पैरों के घुटने, दोनों हाथों की कुहनियां सहित, दोनों हाथों को नारियल के समान जोड़कर धरती पर रखकर उस नारियल के समान बद्ध हाथों पर अपना सिर रखकर नमस्कार करना चाहिए। महिलायें आदि गवासन यानि नीचे जमीन पर घुटने टेकटे ही घुटनों को बायें हाथ की तरू तथा पैरों के पंजों को दायें हाथ की तरफ ले जायें, जिस तरह गाय तिरछा बैठती है। पुनः दोनों की कुहनियां जमीन से स्पर्श करती हो तथा दोनों हथेलियां नारियल के समान आकृति में होकर जमीन छू रही हो उसी पर अपना शिर रखकर नमस्कार करना चाहिए। सही तरीके से नमस्कार मुद्रा से प्रतिदिन दर्शन करने पर परिणामों की विशुद्धि में अवश्य ही प्रभाव पड़ता है। बैठकर यथायोग्य नमस्कार करने से मानसिक तनाव दूर होता है। विनय गुण प्रकट होता है, पूज्यों के प्रति आदर, बहुमान एवं समर्पण भाव झलकता है, तथा ‘‘वन्दे तद्गुण लब्दये’’ नमस्कार करने से भगवान जैसे ही वीतराग आदि गुणों की प्राप्ती हो, ऐसी भावना करते हुए नमस्कार करना चाहिए।

भगवान के आगे खड़े होकर जिनबिम्ब को अपने अन्तः स्थाल में विराजमान करें। ‘‘निरखाो अंग-अंग जिनवर के’’ अंग अंग निरखों, नीचे से ऊपर तक, ऊपर सेनीचे तक बार-बार देखों, उनकी सम्पूर्णता को अपनी हृदय भूमिक में अवतरित करने का प्रयास करो। जब आपकी अपनी आंखों में जिनेन्द्र भगवान का जिनबिम्ब सम्पूर्ण रूप से समा जायेगा, व्यवस्थित हो जायेगा, आपके मन को छू जायेगा तो प्रकाश ही प्रकाश हो जायेगा। हमारे अंतरंग का प्रकाश जागृत हो जायेगा। जिनके जीवन में कान्ती है। उनके जीवन में शान्ती है। आपके जीवन में कोई कान्ती नहीं है। इसलिये आपके जीवन में शान्ती नहीं है।

नमस्कार करने के बाद प्रायः सभी लोग गन्धोदक लेते हैं। प्रतिदिन गंधोदक आंखों, मस्तक, गला आदि पर लगाना चाहिये।

निर्मलं निर्मली करणं, पवित्रं पाप नाशनं।
जिन गन्धेकं वन्द्र, अष्टकर्म विनाशकं।।
अथवा
निर्मल से निर्मल अति, श्री जिन का अभिषेक।
रोग हरे सब सुख करे, काटे कर्म अशेष।।

गंधेदक स्वयं निर्मल (पवित्र) है औरों को भी निर्मल (पवित्र) करते है। जब यह जल जिन प्रतिमा पर अभिषिक्त होता है, तब मूर्ती के चारों ओर प्रवाहित होने वाला ‘‘सूर्यमन्त्र’’ का तेज-ऊर्जा उससे यह जल भी संस्कारित (चार्ज) होकर असाध्य रोगों को दूर करने में समर्थ हो जाता है। मैना सुन्दरी आादि श्रद्धा से कार्य करके फल प्राप्त किया जाता है।

भगवान के सामने भोगों के भिखारी बनकर मत आईये। बल्की भोगों के त्यागी बनकर, उच्चकोटि के दाता बनकर जाईये, तभी देव दर्शन का सही लाभ हो सकता है। आपका कत्र्तव्य आप करने से ‘‘न मांगे मोती’’ सब कुछ मिलता है।