संसार मं जन्म लेने वाला प्रत्येक मानव किसी न किसी रूप में अपने इष्टदेव का स्मरण करता है। चाहे वह जैन हो या बौद्ध, सिक्ख हो या ईसाई, हिन्दू हो या किसी अन्य धर्म को मानने वाले हो, अपना-अपना आराध्यदेव सभी को माना है। लगभग सभी धर्म व जाति के लोग अपने से ऊपर कोई महाशक्तिमान् ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उन्हीं में से अनादिनिधन जैनधर्म का मूल मंत्र णमोकार मंत्र है। जो इस प्रकार है-
इस मंत्र का अर्थ यह है - अरिहंतो को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोकों में सर्वसाधुओं को नमस्कार हो। पांच पदों मं इन पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। इसमं कोई व्यक्ति विशेष का नाम न लेकर गुणाों को ही नमन किया है।
जो चार घातिया कर्मों का नाश कर चुके हैं उन्हें अर्हंत परमेष्ठी कहते हैं और जिन्होंने संपूर्ण आठों कर्मों का नाश कर मोक्ष अवस्था प्राप्त कर लिया है वे सिद्ध कहलाते है। अरिहंत, सिद्ध पद को प्राप्त करने के इच्छुक 36 गुणों का पालन करने वाले चतुर्विध संघ के नायक आचार्य परमेष्ठी होते हैं। संघ में शिष्यों को पठन-पाठन कराने वाले 25 गुणों को धारण करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी कहे जाते हैं तथा रत्नत्रय की साधना में लीन 28 मूलगुणों को पालने वाले साधु परमेष्ठी होते हैं।
वर्तमान में इन पांचों परमेष्ठियों में से तीन परमेष्ठी के दर्शन प्रत्यक्षरूप में हे रहे हैं पंचमकाल में इस कर्मभूमि में अरहंत होते नहीं और जब अरहंत ही नहीं हैं तो सिद्धपद की प्राप्ति कैसे होगी? अतः अरहंत, सिद्ध की स्थापना धातु या पाषाण की प्रतिमाओं में करके उनकी पूजा की जाती है। इस महामंत्र को उठते-बैठते चलते-फिरते प्रतिक्षण जपना चाहिए जिससे कि कोई भी अमंगल मंगल में परिवर्तित हो जाता है।
आप प्रतिदिन मंदिर में पढ़ते भी हैं-
अर्थात अपवित्र अवस्था में भी ण्मोकार मंत्र को मानसिक रूप में हमेशा जापने से पापों का क्षालन होता है। पांच पद वाला यह मूल मंत्र 35 अक्षरी मंत्र कहलाता है। इसको संक्षिप्त रूप में जानने के लिए प्रत्येक पद का प्रथम अक्षर लेकर ‘‘असिआउसा’’ यह मंत्र बनाया गया है। इस असिआउसा मंत्र का जाप करने से पांचों परमेष्ठियों को नमस्कार हो जाता है। आप सब इस मंत्र की महिमा जानते हैं कि एक मरते हुए कुत्ते को जीवंधर कुमार ने णमोकार मंत्र सुनाया था जिसके प्रभाव से कुत्ता मरकर यक्षेन्द्र (देव) हो गया था और उस महामंत्र के अपमान का फल भी मालूम ही हैं।
सुभौम नामक एक षट्खंडधिप चक्रवर्ती था। वह एक दिन अपने रसोईघर में भोजन करने गया,उसके रसोइए ने गरम-गरम खीर परोस दी। उस गरम खीर के खाने से चक्रवर्ती का मुंह जल गया और इस गुस्से के कारा उसने खीर का बर्तन उठा कर रसाइए के सिर पर पटक दिया जिससे रसोइया तुरंत मर गया और मरकर व्यंतरदेव हो गया। मैं आपको यह बता चुकी हूं कि वैर और स्नेह के संस्कार जन्म जन्मान्तर तक चलते हैं। व्यंतर देव को कुअवधिज्ञान से पूर्व भव का सारा वृत्तान्त ज्ञात हो गया, तब उसके हृदय में राजा से बदला लेने की भावना जागृत हो उठी। देव तो वह थी ही, विक्रिया से अनेकों रूप बनाने की क्षमता थी अतः एक दिन वह मनुष्य के वेष में सुन्दर सुस्वादु फल लेकर राजदरबार में आ गया और विनयपूर्वक राजा को भेंट किया।
राता सुभौम ने ऐसे मधुर फल जीवन में कभी नहीं खये थे अतः उन्हें लालच आ गया। उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा कि ये फल कहां मिलते हैं? बस फिर क्या था, उस व्यंतर को तो अपनी सफलता नजर आने लगी, उसने कहा-राजन्! आप मेरे साथ चलिए, समुद्र के उस पार बहुत बड़ा बगीचा है, वहां ऐसे बहुत सारे फल मिलेंगे। उसके कथन पर मंत्रियों को कुछ आशांका हुई, उन लोगों ने राजा को गुप्त मंत्रणाएं दी कि राजन्! इसके कथन में कुछ मायाजान प्रतीत होता है, आप साथ में न जावें किन्तु जिह्वालोलुपी राजा ने किसी की एक न सुनी और चल दिया वेषधरी व्यंतर के साथ फलों को प्राप्त करने। ‘‘बुद्धि कर्मनुसारिणी’’ अर्थात् कर्म के अनुसार उसकी बुद्धि हो गई थी।
राजा अैर व्यंतर दोनों समुद्र के बीच में पहुंच गये। अब तो व्यंतर को अपना मनोरथ सिद्ध करने का स्वर्ण अवसर मिल गया। उसने अपना असली रूप प्रगट कर राजा से अपने पूर्व भव का सामाचर बताया और बोला-राजन्! जैसे तुमने मुझे मारा था वैसे ही अब मैं तुम्हें जीवित नहीं छोडूंगा। इस अथाह समुद्र में अब तुम बच नहीं सकते। राजा सुभौम समझदार था अतः विपत्ति के समय वह महामंत्र णमोकार को मन में पढ़ने लगा। देखिए! उस परमब्रह्मरूप मंत्र का प्रभाव! व्यंतर देव की मारक-शक्ति भी कुंठित हो गई, वह सुभौम को मार नहीं सका। व्यंतरदेव ने समझ लिया कि यह अपने इष्टदेव का स्मरण् कर रहा है इसीलिए मेरी शक्ति कुण्ठित हो गई अतः उसने कुछ कूटनीतिपूर्वक राजा से कहा-
अरे मूर्ख राजन्! यदि अपने प्राण प्रिय हैं तो मन में चिंतित मंत्र को पानी लिखकर पैर रख दे, तब मैं तुझे छोड़ सकता हूं अन्यथा तू वापस राजमहल नहीं पहुंच सकता। यद्यपि राजा नियम में दृढ़ था किन्तु व्यंतर की मायावी बातों में आकर जीवन का लोभ आ गया। उसने सोचा कि जीवन रहेगा तो पुनः धर्मसाधना कर लूंगा। मन में इस प्रकार सोचकर राजा ने वहीं जल में णमोकार मंत्र लिखकर पैर रख दिया, बस व्यंतर की मारकशक्ति जागृत हो गई और उसने सुभौम चक्रवर्ती को समुद्र में डुबो दिया।
महामं के अपमान की भावना से सुभौम चक्रवर्ती मरकर सातवें नकर चला गया।
सरस्वती का अपमान करने वाला व्यक्ति भला अच्छी गति को कैसे प्राप्त कर सकता है? कर्मसिद्धान्त कभी राजा या रंक को नहीं देखता, वह तो अपना कार्य करता है। आज भी हम देखते हैं कि लोग धार्मिक कैलेण्डरों का अविनय करते हुए डरते नहीं हैं किन्तु ध्यान रखो कि जिस किसी पुस्तक, कैलेण्डर, चाबी के गुच्छे आदि में भगवान के फोटो हों या णमोकार आदि मंत्र लिखें हों तो उनहें कभी इधर-उधर नीचे स्थानों में नहीं रखना चाहिए, सदैव उनकी विनय करनी चाहिए।
नमोकार मंत्र को मैंने आपको ‘‘असिआउसा’’ के पांच अक्षरी मंत्र रूप भी बताया। ‘‘अ’ से अरहंत परमेष्ठी, ‘‘सि’’ से सिद्ध, ‘‘आ’’ से आचार्य, ‘‘उ’’ शब्द से उपाध्याय और ‘‘सा’’ से साधु इस प्रकार पांचों परमेष्ठी का हृदय में चिंतन करते हुए असिआउसा का जाप्य करना चाहिए।
इसी प्रकार से महामंत्र का वाचक ‘‘ऊँ शब्द भी है। जो परंब्रह्म परमात्मा का सूचक होनेसे सर्वसम्प्रदाय मान्य है। प्रत्येक मंत्र के प्रारंभ में ऊँ जुड़ा होता है। यह एककाक्षरी मंत्र है, इसका ध्यान करने से मस्तिष्क के समस्त तनाव दूर हो जाते है। भगवान तीर्थंकर की दिव्यध्वनि भी ऊँकार रूप मानी गई है। यह ‘‘ ऊँ’’ शब्द कैसे बना है? इसकी प्रक्रिया देखिए-
नमो अरहंताणं का अकार ले लें, णमो सिद्धाणं पद में सिद्ध जीव अशरीरी -बिना शरीर के होते हैं अतः अशरीरी का अ ले लिया तो अ$अ$=आ बना। आगे णमो आइरियाणं का आ$आ=दीघ्ज्र्ञ आ ही रहा, णमो उवज्झायाणं का उ, आ$उ=ओ बना, णमो लोए सव्वसाहूणं मेें साधु से मुनि शब्द को ग्रहण किया है अतः मुनि का मकार लेकर ‘‘ओम्’’ बन गया। इसे ओम् और ऊँ दोनों प्रकार से लिखा जाता है। पांचों पदों का सार इस ‘‘ ऊँ’’ मंत्र की ही माला फेर लेने से महान पुण्यबंध होता है। अपनी और दूसरों की शांति के लिए प्रतिक्षण इसका उच्चारण करना चाहिए।
आप लोग रामायण देखते हैं उसमें सुग्रीव और रामचन्द्र की कैसी मित्रता दिखाई गई है। कभी आपने जैन रामायण का स्वाधय किया हो तो ज्ञात होगा कि इस एक णमोकार मंत्र के निमित्त से दोनों का संबंध जन्म-जन्मानतर तक रहा है।
महापुर नगर में एक श्रावक पद्रूचि सेठ किसी समय घोड़े पर चढ़कर अपने गोकुल की तरफ जा रहे थे। उन्होंने उस समय पृथ्वी पर पड़े हुए एक मरणासन्न बैल को देखा। पद्मरूचि घोड़े से उतरकर दया बुद्धि से उसके पास बैठकर कान में णमोकार मंत्र सुनाने लगे। उस मंत्र को सुनते हुए बैल की आत्मा शरीर से निकल गई और मंत्र के प्रभाव से उसी नगर के राजा छत्रच्छाय की रानी के गर्भ में आ गया और नव मास के बाद पुत्र उत्पन्न हो गया। उसका नाम वृषभध्वज रखा गया।