।। नमोकार मंत्र की महिमा ।।

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अनंतर पूर्व संस्कारवश उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। बैल पर्याय के बोझा ढोना आदि दुःखों तथा मरते समय महामंत्र श्रवण का दृश्य उसके स्मृतिपटल पर झूलने लगा। वह बचपन से ही णमोकार मंत्र को सदा पढ़ा करता था। किसी एक दिन वह घूमता हुआ उसी स्थान पर पहुंचा जहां उस बैल का मरण हुआ था। जातिस्मरण के कारण वह वहां के सभी स्थानों को पहचान कर अपने उपकारी को ढूंढने का उपाय सोचने लगा। कुछ सोचकर उसने उसी स्थान पर बहुत बड़ा जिनमंदिर बनवाया। उसमें दीवालों पर अनेकों चित्र भी बनवाए। उसी मंदिर के द्वार पर अपपने द्वारपालों को नियुक्त कर दिया कि जो व्यक्ति इस चित्र को बड़े ध्यान से देखें, मुझे उसके दर्शन करा देना।

संयोग की बात एक दिन वंदना की इच्छा करते हुए पद्मरूचि श्रावक उस मंदिर में आ गये और आश्र्चचकित हो उस चित्र का ेदखेने लगे और मन में सोचने लगे कि णमोकार मंत्र सुनाते हुए यह मेरा ही चित्र किसने बनाया है? अत्यधिक एकाग्रता से इनको चित्रपट देखते हुए इनके मनोभाव को समझकर द्वारपालों ने शीघ्र ही वृषभध्वज राजकुमा को यह समाचार पहुंचा दिया।

वृषभध्वज शीघ्र ही वहां आकर परमोपकारी मद्रूचि सेठ को पहचान कर उनके चरणों में गिर गया और बताया कि यह बैल का जीव मैं ही हूं। उसने कहा कि हे परम दयालु सेठ! मृत्यु के संकट में आपने हमें महामंत्ररूपी औषधि देकर इस उत्तम भव को प्राप्त करया है। इस मंत्रदान का मूल्य यद्यपिम ैं नहीं चुका सकता, फिर भी आा दो मैं आपका क्या उपकार करूं? इस प्रकार दोनों परममित्र बन गये। कुछ भवों के पश्चात् पद्मरूचि का जीव मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र हुआ, बैल का जीव सुग्रीव हुआ है। सुग्रीव विद्याधर ने सीता की खबर मंगाने में और रावण के साथ युद्ध में रामचन्द्र की बहुत सहायता की है। अनंतर ये रामचन्द्र, सुग्रीव, हनुमान आदि महापुरूष दैगम्बरी दीक्षा लेकर घोरतिघोर तपश्वरण करके तुंगीगिरि पर्वत से मोक्ष गये हैं। हम लोग प्रतिदिन निर्वाणकांड में इन सिद्धस्वरूप महापुरूषों की वंदना करते हैं-

राम हणू सुग्रीव सुडील, गव गवाख्य नील महानील।
कोटि निन्यानवे मुक्तिपयान, तुंगीगिरि वंदों धरध्यान।।

देखों! हमें कितने उदाहरण देखने और सुनने को मिलते हैं कि णमोकार मंत्र के स्मरण से कितने ही जीव तिर गये। अधिक नही ंतो कम से कम चैबीस घंटे में आधा घंटा समय निकालकर अपनी आत्मा का चिंतन अवश्य करना चाहिए जिसमें 9 बार ऊँकार की ध्वनि करते हुए सिथरतापूर्वक पंचपरमेष्ठी का अवलंबन लेना चाहिए।प्रत्येक कर्य के प्रारंभ में, समापन में, रात्रि को सोते समय, सोकर उठते ही नित्य णमोकार मंत्र का स्मरण अवश्य करना चाहिए। कभी किसी को तीव्र वेदना हो रही हो, एक कटोरी में छना हुआ शुद्ध जल सामने चैकी पर रखकर णमोकार मंत्र की एक माला फेरकर उस जल को पिला दीजिए, वेदना तुरंत दूर हो जायेगी। विज्ञान भी आज इस बात को सिद्ध कर चुका है कि जल के सामने पढ़े जाने वाले मंत्र को जल उन पुद्गल शब्द वर्गणाओं को खींचता है और उससे शरीर के अंदर भी प्रभाव पड़ता है इसीलिए आचार्यों ने यंत्र-मंत्र का महत्व बतलाया है। यू ंतो बारह भावना में कहा है-

मणि मंत्र तंत्र बहुत होई, मरते न बचावे कोई।

य?पि यह सत्य है कि मरते हुए जीव को कोई मंत्र-यंत्र जीवित नहीं करसकते फिर भी देवगति आदि उत्तम गति को प्राप्त करा देते हैं और कभी अकालमृत्यु को भी छाल देते हैं। धनंजय कवि जैसे भक्त ने मंत्रौषधि से ही बालक के ऊपर चढ़े सर्प विष को दूर कर उसे जीवनदान दिया था। णमोकार मंत्र के माहात्म्य में ही बतलाया है कि इस मंत्र के विविध प्रयोगों से बिच्छू आदि के विष भी उतर जाते हैं।

इसलिए इस मंत्र के विष में कह दिया हे-

एसो पंचाणमोयारो, सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।।

अर्थात् यह पंचनमस्कार मंत्र समस्त पापों का नाश करने वाला है और सभी मंगलों में पहला मंगल है अतः अपने जीव में मंगल की कामना करने वाले प्रत्येक मानव को इस महामंत्र का स्मरण अवश्यक करना चाहिए।

मनहस्ती को वश में करो

जह चंडो वणहत्थी उद्दमों णयररयमग्गम्मि।
तिक्खंकुसेण धरिद्रो णरेण दिढसत्तिजुत्तेण।।
तह चंडो मणहत्थी उद्दामों विसयराजमग्गम्मि।
णाणंकुसेण धरिदो रूद्धो जह मत्तहत्थिव्य।।

अर्थ- जैसा जिसके गंडस्थल से मद झर रहा है और जो अत्यंत कुपित हो रहा है ऐसा वनहस्ती यदि सांकल आदि बंध्नों से रहित होकर नगर के राजमार्गोै में दोड़ रहा है तो दृढ़ शक्तिशाली मनुष्य तीख्ण अंकुश के द्वारा ही उसे वश में कर सकता है। उसी प्रकार से पंचेन्द्रियों के विषयरूपी राजमार्ग में उद्दंड फिरता हुआ मनरूपी हस्ती ज्ञानरूपी अंकुश के द्वारा ही वश में किया जाता है एवं जैसे मदोन्मत हस्ती भी वशीभूत हो जाने से स्वच्छंद कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार से मुनि भी जब अपने मनरूपी हरती को वश में कर लेते हैं तो वे उसे जहां लगाते हैं, वही पर ठहर जाता है, व्यर्थ के दुःखदायी आर्तरौद्र ध्यान की तरफ नहीं जाता है, ऐसा अभिप्राय है।

-भगवान कुंदकुंद देव, मूलाचार

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