।। देव दर्शन ।।
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‘‘देव दर्शन’’

देवा सुरेन्द्र न रनाम समर्चितेभ्यः
पाप प्रणाशकर भव्य मनोहरेभ्यः
घंटा-ध्वजादि-परिवार विभूषितेभ्यो,
नित्यं नमो जगति सर्व जिनालयेभ्यः।।
हर रोज ब्रहम्ह बेला में उठना चाहिए।
ब्रम्ह मुहर्ते उत्थाय पंच नमस्कार कृते सति।
कोऽहं! को मम! किं निज धर्मः इति विचिन्त्येत्।।

ब्रम्ह मुहूर्त में निन्दा छोड़कर पंच नमस्कार (णमोकार) मन्त्र कम से कम नव बार पढ़ना चाहिये। यदि आपके पास समय है तो पूरे एक सौ आठ बार जपना चाहिए। सूर्योदय के चैबीस मिनट पहले से सूर्योदय के चैबीस मिनट बाद तक का समय ब्रम्हबेला या ब्रम्हमुहूर्त कहलाता है। उसे ही आत्मा जागरण का समय कहा है। क्योंकि तीर्थंकरों की वाणी इसी मुहूर्तं में खिरती है।

उठ कर पंचनमस्कार बोल कर-

करग्रे वसते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती।
कर मूले तु गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम्।।

हाथ के अग्रभाग में लक्ष्मी का, मधय भाग में सरस्वती का एवं मूल भाग में प्रभो!!! ईश्वर का निवास है। अतः प्रतिदिन प्रातःकाल हाथ (कर) का दर्शन करना चाहिए।

इसके बाद स्वयं को विचार करना चाहिए कि मैं कौन हूं मैंने कहां से आया हूं इस संसार में मेरा कौन है। इस संसार में सब स्वार्थी जीव है, स्वार्थ पूरा होने पर कोई नहीं पूछता। अतः धर्म के समान मेरा अन्य निरपेक्ष, निस्वार्थ बन्धु हितकारी नहीं है। मेरा क्या धर्म है? कत्र्तव्य है? मैं एक साधरण श्रावक हूं, गृहस्थ हूं। इसलिये मेरा प्रमुख धर्म देव पूजादि षट्क्रियायां है। इस प्रकार शुभ संकल्प करके दैनिक शौचादिक क्रियाओं से निपटकर, छुने हुए जल से स्नान करना, नहाते समय शैम्पू आदि चर्बीयुक्त साबुन प्रयोग नहीं करना चाहिए।

वैसे प्राचीन समय की मन्दिर आदि आने की वेशभूषा स्त्री पुरूषों के लिए पीले या सफेद रंग की साड़ी-धोती-दुपटा था, जिससे व्यक्ती अपने आप में संयमित रहता था और धर्म-ध्यान में खूब मन लगता था। याद रहे कि हम चमड़ेे के बने बेल्ट, जूते-चप्पल, पर्स आदि का प्रयोग में नहीं लेनी चाहिए। क्योंकि जिस जानवर का चमड़ा होगा, उसी जाति के समूच्र्छन जीव हमारे शरीर के स्पर्श से उत्पन्न होकर मरते रहते है। माता बहिनों को अपने ओठों में लिपिस्टिक या नाखूनों में नेलपालिस नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि ये दोनों वस्तुएं जीवों के खून से निर्मित होती है। सेन्ट आदि भी हिंसक तरीके से निर्मित होते हैं। अतः मन्दिर जी आते समय इनका भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। मुख में लौंग, इलायची आदि रहित मुख शुद्धि से हमरे पाठ या मन्त्रोच्चारण होना चाहिए।

घर में स्नानादि के समय में जब जिनेन्द्र देव के दर्शन की भावना होता है तभी आचार्य कहते हैं-

जब चिनतो तब सहस्त्र फल लक्खा फल गमणेय।
कोड़ा कोड़ी अनन्त फल जब जिनवर दिट्ठेय।।

जब हमें भगवान के दर्शन करने का विचार-संकल्प मन में आता है कि अरे! अीाी हमें मन्दिर जी जाना है भगवान के दर्शन करना है। ऐसा चिन्तन आते ही हजार गुणा फल प्रारम्भ हो जाता है। जब आप सामग्री आदि लेकर भक्ति - स्तुति आदि पढ़ते हुये मन्दिर की ओर ईर्यापथपूर्वक चल देते हैं, तब आपको लाख गुण फल होता है। लेकिन जब आप मन्दिर जी में पहुंचकर साक्षात् जिनमूर्ति के दर्शन करते हैं तब अवश्य ही अनन्त कोड़ा कोड़ी फल होता है आपने पढ़ा होगा, सुना होगा कि श्री सम्मेद शिखर जी की प्रत्येक टोंक की वन्दना करने से इतने इतने करोड़ों उपवासों का फल मिलता है।

परन्तु एक प्रश्न उठता है कि भगवान तो वीतरागी है उन्हें इस सामग्री को चढाने से क्या प्रयोजन? सुनो नीतिकारो ने कहा है कि

रिक्त पाणि नैव पश्येत् राजानां देवतां गुरूं।
नैमित्तिक विशेषेण, फलेन फलमादि शेत्।।

राजा, देवता, गुरू नैमित्तिक यानि वैद्य, ज्योतिषी के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, अर्थात कुछ न कुछ भेंट लेकर ही जाना चाहिए। क्योंकि फल की प्राप्ती फल से ही होती है। द्रव्य चढ़ाना हमारे परिणामों की विशुद्धि बनाने में निमित्त है तथा जितने द्रव्य को हम प्रभो चरणों में अर्पण करते है उतना हमारा ‘लोभ’ का त्याग होता है।

जब आप लोग प्रतिदिन व्यसनों-चाय, पान, फैशनों, लाली लिपिस्टिक में हजारो रूपया खर्च कर देते हैं, लेकिन भगवान को सामग्री चढ़ाने में कंजुसी करते है घर से पूरी डिब्बी भरकर लाया तो भी थोडत्र-थोड़ी सामग्री चढ़ाकर बची हुई वापस घर ले जाते हैं। माता-बहिनों भाईयों इस प्रकार भव मत रखना। उदार-हृदय से रहना चाहिए।

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मन्दिर जी में अधिकाशंतः चावल ही क्यों चढ़ाये जाते हैं? सुनों चावल गरीब-अमीर लोग इसका उपयोग खाने में रकते है, हमारे तीर्थंकरों के दीक्षा के परान्त अधिकांशतः श्रीरान्न (चावल का खीर) से ही पारणा हुए। भोजन के एक ग्रास का प्रमाण भी एक हजार चावलों से कहा है। चावल छिलका अलग होने पर उसमें पुनः अंकुरित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है। चावल सफेद होने से शुक्ल लेश्या का प्रतीक है। चावल के दाने में कोई जीव-जनतु अपना घर नहीं बना सकता। अखण्ड चावलों को अक्षत भी कहते हैं। उन्हें चढ़ाकर अक्षय पद की कामना करते हैं। इसलिये मन्दिर जाते समय कुछभी हाथ में ले जाना चाहिए।

मन्दिर जी में प्रवेश करते समय शुद्ध छन ेजल से पैर धोने चाहिए। घंटा बजाना चाहिए, क्येांकि - घंटा मंगल धवनी के प्रतीक रूप में बजाय जाता है घंटे की ध्वनी सुनकर दूर के लोगों को भी मन्दिर जी का स्मरण होा जाता ळै। इसकी मंगल ध्वनी हमारा मानसिक प्रदूषण दूर करती है। घंटे की ध्वनी से पर्यावरण भी परिशुद्ध होता है क्योंकि पंचकल्याण के समय घंटे को भी मंत्रों से, संस्कारित करके लगो हैं। घंटे और शंख की ध्वनी से रोग के कीटाणुओं का नाश होता है। मलेरिया, मिरगी, मच्र्छा, कंठमाला और कुष्ठ रोगियों के अंदर शंख ध्वनी से रोगनाशक प्रतिक्रिया होती है। शिकागों के डां, वाईनेन का दवाई में अनेक रोगियों रोग मुक्त हुआ है। अफीका में जहरीले सर्फ के काटने पर घंटा बजाकर इलाज किया जाता है।

घंटा बजाने के बाद ऊँ - जय- जय - । निस्सही, निस्सही, निस्सही नमोऽस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु मध्यम स्वर से बोलते प्रवेश करना चाहिए। क्योंकि वहां पर पहले से आये, मौन भक्ति-पूजा में मग्न अदृश्य देवतागण यदि हो ते उनकी भक्ति पूजा में विघ्न न हो। वे देवतागण ‘‘निस्सही’’ शब्द सुनकर व्यवस्थित हो जाते है एवं आपको भी दर्शन-पूजन-भक्ति के लिए बहुमान स्थान देते हैं। इसी के साथ क्षेत्रीय देवतागण क्षेत्रपालादिक से मन्दिर जी में प्रवेश की अनुमति सूचक यह शब्द उच्चारण् किया जाता है।

बाद में वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। जो गुणों में श्रेष्ठ हो, उन्हें अपने दक्षिण-पाश्र्व (दाहिने हाथ की ओर) रखते हुए, जन्म-जरा-मृत्यु के विनाश हेतु, तथा मन-वचन-काय से भक्ति की प्रतीक रूप से प्रदक्षिणा लगायी जाती है।

पुन णमोकारमंत्र, उसका महात्म्य एवं चात्तारि दंडक, दर्शन पाठ, भुकास्तुती भक्ति पूर्वक पढ़ना चाहिए।