।। जिनेन्द्र पूजा एवं दान ।।

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जिनेन्द्र पूजा एवं दान श्रावक के लिए आवश्यक है

श्रीमुखालोकनादेव, श्रीमुखालोकन भवेत्।
आलोकन विहीनस्य, तत्सुखावाप्तयः कृतः।।

पूज्यपाद स्वामी ने कहा है की श्री जिनेन्द्र भगवान के मुखावलोकन - दर्शन से श्रीमुख-लक्ष्मी का अवलोकर - धन की प्राप्ति होती है तथा जो श्रीमुख का दर्शन नहीं करता, उसे उस सुख की प्राप्ति भला कैसे हो सकती है।

यहां पर अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र भगवान के दर्शन बतलाया है।

भावसंग्रह ग्रंथ में आचार्य श्री देवसेन स्वामी ने भी कहा है-

‘‘देवपूजां बिना सर्वा दूरा सामायिक क्रिया’’

अर्थात् देवपूजा के बिना सामायिक आदि क्रियायें अधूरी मानी जाती हैं। श्रावक या श्राविका जब तक पिच्छी धारण करके साधु बनते हैं तब तक उनके दान-पूजन आदि क्रियाएं आवश्यक हैं। कोई श्रावक यदि मात्र सामायिक करके संतुष्ट होना चाहे अथवा बिना द्रव्य चढ़ाए भावपूजा कर लेवे, तो यह उसके दोषास्पद है। भावपूजा तो मात्र साधुओं के लिए है क्योंकि उनके पास द्रव्य है ही नहीं। श्रावक-श्राविका तो अपने पोषण हेतु भोजन वस्त्रादि के निमित्त द्रव्य रखते है, तो उन्हें द्रव्यपूजा में कभी भी प्रामाद नहीं करना चाहिए। पद के अनुसार ही आचार्यों ने क्रियाओं का विभाजन किया है। ‘‘बिना पिच्छी ग्रहण किये सााु जैसे क्रिया करके उनके सदृश ही अपने को पुजवने से नीचे गोत्र का आश्रव होता है।’’ यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। इसीलिए आचार्य श्री कुन्दुकुन्द स्वामी ने श्रावकों के लिए रयणसार में ‘‘दाणं पूजा मुक्खो, सावयधम्मो ण सावया तेण विणा’’ कहकर श्रावकों को उनके कर्तव्य का परिचय कराया है तथा साधुओं के लिए ‘‘झाणज्झयणं मुक्खो’’ अर्थात् ध्यान और अध्ययन मुख्य बतलाया है।

आदिपुराण में पूजा के 5 भेद माने हैं - नित्यमह, आष्टान्हिक, इन्द्रध्वज, चतुर्मुख और कल्पदु्रम। प्रतिदिन अभिषेकपूर्वक पूजन करना तो नित्य महापूजा है ही, इसके साथ-साथ मंदिर का निर्माण कराना, मंदिर में पूजन हेतु स्थाई दान देना, खेत आदि मंदिर के नाम कर देना, मुनियों को दान देना आदि भी नित्य पूजा में शामिल है।

भगवान तो कृतकृत हो चुके हैं आप उनकी पूजा करें या न करें, उनकी महिमा में कोई अंतर नहीं आता लेकिन पूजा करने वाला भक्त परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है।

श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है कि जैसे मकान बनाने वाला मिस्त्री पहले नीचे -नीचे सीढ़ी बनाकर फिर धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता जाता है, उसी प्रकार से साधु के साथ ?????????? एक गरीब ब्राह्मण की पत्नी खेत में काम करने के बाद मजदूरी से प्राप्त धन को लेकर आई नित्य की भांती उसने आटा पीसकर तीन लड़डू बनाए। एक अतिथि के लिए, एक पति के लिये और

एक अपने लिए। रसोइ्र बनाने के लिए वह द्वारापेक्षण के लिए घर के बाहर खड़ी हो गई। संयोगवश एक मासोपवासी मुनिराज वहां आ गये। महिला ने पड़गाहन किया और क्रम-क्रम से तीनों लड्डू महाराज को आहार में दे दिये। उसने सोचा कि आए हुए अतिथि को भूख रखना ठीक नहीं है, हम लोग आज उपवास कर लेंगे। महारा के आहार के बीच में ही उस ब्राह्मण के घर में रत्नादि पंचाश्वर्य की वृष्टि होने लगी। नगर के राजा को जब यह सब पता लगा तो उन्होंने ब्राह्मण को बुलाकर पूछा कि मेरे महल में ते रत्नवृष्टि कभी नहीं हुई, तेरे घर में इतने रत्न कैसे बरस गए? ब्राह्मण बोला-राजन! ये सब आहारदान का चमत्कार है। राजा बोले- तू अपनापुण्य मुझे दे दे। किन्तु यह विचारणीय विषय है कि भला किसी का का कर्म कोई कैसे ले सकता है?

सत्पात्र को आहारदान देने वला जीव नियम से नरक में नहीं जाता है। चतुर्थकाल के मुनियों के आहारदान में तो रत्नवृष्टि हुआ करती थी, आज के साधुओं में इतना चमत्कार तो नहीं किंतु थोड़ा बहुत अतिशय अवश्य देखा जाता है। वर्तमाान में साधुओं को आहार देने वाले श्रावक कभी गरीब-दरिद्र नहीं देखे जाते हैं।

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मैं बंगाल प्रांत में विहार कर रही थी, तो पुरलिया नामक गांव से विहार करने के बाद वहां के सेठ उम्मेदमन की धर्मपन्ती ने आकर मुझसे कहा कि जिस दिन से आपने हमारे यहां से विहार किया हे,उसी दिन से हमारी गाय ने शाम को दूध देना बंद कर दिया है। मैंने हंसकर कहा-मेरे विहार से आपकी गाय का भला क्या सम्बंध? तब वे बोलीं- अब तक मैं गुरूओं की महिमा सुना ही करती थी, आज प्रत्यक्ष में देखने का अवसर मिला। हमारे संघ की अन्य आर्यिकाएं आश्चर्यपूर्वक उनसे पूछने लगीं। तब उन्होंने बताया कि मेरे गाय हमेशा तो केवल एक टाइम दूध दिया करती थी किंतु जब माता जी का संघ यहां आया, तब आपके संघ की ब्रह्मचारिणी मनोवतीबाई (वर्तमान में आर्यिका अभयमती जी) ने कहा कि बड़ी माताजी के लिए मुझे मट्ठा बनाने हेतु शाम को दूध चाहिए। मैं बोली-बहन जी! क्षमा करें, मेरी गाय तो कवेल सुबह एक समय ही दूध देती है। फिर भी कुछ सोचकर हम दोनों बर्तन लेकर गाय के पास पहुंचे। आश्चर्य की बात थी उसने सुबह जितना ही शाम को भी दूध दुहने दिया और संघ रहने तब बराबर इसी प्रकार दोनों टाइम दूध देती रही और दही-मट्ठा बनता रहा। जिस दिन माताजी ने वहां से विहार कर दिया, उसी दिन से फिर शाम का दूध बंद हो गया। मेरे घर में तो सभी लोग कहते हैं कि यह सब माताजी का ही प्रभाव था।

मैनें सारी घटना सुनकर कहा-यह तो कोई खास बात नहीं है, साधुओं की तपस्या से तोन जाने कितने अतिशय हो जाते हैं। यदि मुझे पहले वहीं पर तुम बता देती तो मैं उस गड्डे को कभी न खेती, क्योंकि तुम तो मेरे निर्मित्त से ही वह मट्ठा बनाती होनी। खैर! वह बेचारी डर सी गई, कहने लगी-माताजी! साधुओं की बिमारी का इलाज करना तो हम श्रावकों का कत्र्तव्य है फिर हम तो सब साधुओं को भी देते थे और खुद भी पीते थे।

जब हृदय में साधुओं के प्रति वात्सल्य भाव उत्पन्न होता है तो असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और सरे मनोरथ भी सिद्ध होते हैं। भक्ति को आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी ने कामधेनु की उपमा दी है-‘कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यम’ भगवान ऋषभदेव को यदि राजा श्रेयांस ने आहार न दिया होात, तेा आज साधुओं के दर्शन नहीं होते। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने इस युग में जन्म लेकर साधुओं को मार्गदर्शन प्रदान किया। वे उत्तर भारत में भी ओय और दिल्ली के चैराहों पर खडत्रे होकर फोटो खिंचवाएसं, ताकि भविष्य में कभी जैन साधुओं के विहार पर प्रतिबन्ध न रहे। कुछ कुतर्कियों ने इस विषय पर विरोध भी प्रदशित किया कि आचार्यश्री को फोटा खिंचवाने का बड़ा शौक है। तब आचार्यजी ने अपनी प्रवचन सभा में इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि मुझ दिगम्बर को फोटो से क्या लाभ? मेरे पास तो फोटो रखने की जगह भी नहीं हैं लेकिन ये फोटुएं येग-युग तक स्मरण कराएंगी कि परतन्त्रयुगीन भारत में भी जैन साधु गली-गली विचरण करते थे।

2500वे निर्वाणोत्सव के समय आचार्यश्री धर्मसागर महाराज, देशभूषा महाराज और मुनिराज विद्यानन्दि ी ने समस्त साधुवर्गों का समीकरण बनाकर देशव्यापी धर्मप्रभावना की। उस समय दिल्ली के लोग आचार्य धर्मसागर जी महाराज के संघ को दिल्ली लाने से डर रहे थे क्योंकि वे विशेष त्याग नियम करवाकर श्रावकों से आहार लेते थे। मैंने दिल्ली वालों को समझा-बुझाकर आचार्यश्री के पास निवेदन करने अलवर (राज.) भेजा। आप सबके पुण्योदय से वे संघ सहित दिल्ली आए, पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी उनके चातुर्मास हुए। उनकी निस्पृहता एवं सिंहवृत्ति से आज इधर का बच्चा-बच्चा परिचित है।

धर्म की भावना तो श्रावक और साधु दोनों से मिलकर होती है। हम लोग आगम आधार को लेकर ही समाज का मार्गदशैन करते हैं। आचार्य शांतिसागर महाराज ने भी आगम पढ़कर पहले अपनी चर्या को निर्दोष बनाया। उन्होंने मुनिरी देवेन्द्रकीति जी से क्षुल्लक एवं मुनिदीक्षा धारण की पुनः मूलाचार, भगवती आराधना, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों को पढ़ा। उस समय दक्षिण में ऐसी परम्परा थी कि मंदिर पर उपाध्याय (पुजारी) जिस घर में भोजन बनाने को कह देते थे, उसी घर में मुनि महाराज जाकर आहार ग्रहण कर लेते थो, किंतु शांतिसागर महाराज जब वृत्तपरिसंख्यान (नियम) लेकर सारे गांव शहरों में चर्या करने लगे, ज्यादाचैके न लगने के कारण महाराज के उपवास होने लगे, तब श्रावक लोग पुजारी को डांटने-फटकारने लगे। उस पुजारी ने श्रावकों को शास्त्रोक्त आहारचर्या बतलाई और तब लोगों ने घर-घर चैके लगाकर ??????

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