।। अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है ।।

ऊँ

अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है

धम्मो मंगलमुद्दिट्ठ, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो।।

संसार में समस्त प्राणियों के लिए धर्म मंगलस्वरूप है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। वह धर्म अहिंस, संयम और तपस्या भी है, जो व्यक्ति अपने मन में इस धर्म को धारा करते हैं, उन्हें देवता भी प्रमणा करते हैं।

मंगल शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य ने कहा है-

मं-मलम् गालयति इति मंगलम् अर्थात् मल-पापों का जो नाश करे, वह मंगल है और दूसरी प्रकार से मंगृ-सुखं लाति इति मंगलम् अर्थात जो सुख की प्राप्ति करावे, उसे मंगल कहते हैं। सभी कार्यों के प्रारंभ में मंगलाचरण इसी उद्देश्य से किया जाता है ताकि बिना किसी विघ्न बाधा के उसे निर्विघ्न सम्पन्न किया जा सके एवं यह हेतु भी होता है कि मेरा शुभ कार्य मेरे और समस्त प्राणियों के लिए सुखकारी होवे।

प्रत्येक पूजा-पाठ के प्रारंभ में भी आप मंगलाष्टक में ‘‘कुर्वन्तु में मंगलम्’’ इत्यादि मंगलापाठ पढ़कर अपने और दसरों के मंगल की कामना करते हैं। इसी प्रकार का मंगल धर्म में निहित होता है।

jain temple402

भव्यात्माओं! धर्म एक मिश्री के टुकड़े की भांति है। जैसे मिश्री को आप चाहे स्वरूचि से खाएं अथवा कोई जबर्दस्ती खिला देवे किन्तु मुंह में जाने के बाद वह मीठी ही लगती है, कभी कड़वी नहीं लगती उसी प्रकार से धर्म को चाहे स्वरूचि से पालें अथवा गुरू प्रेरणा से, वह तो सदैव अचिन्त्य फल को प्राप्त कराता है। वास्तव में तो धर्म आत्मा का स्वभाव ही है। ‘‘वत्थु सहावो धम्मो, दंसणमूलो धम्मो, चारित्तं खलु धम्मो’’ इत्यादि रूप से भिन्न-भिन्न परिभाषाओं में धम्र का प्रतिपादन किया गया है।

वर्तमान की युवा पीढ़ी धर्म के नाम से दूर भागती है। मैं सोचती हूं कि ऐसा क्या है? बहुत चिन्तन करने के बाद यह बात समझ में आती है कि इस यांत्रिक युग में मानव भी बिल्कुल यंत्रतव्-मशीन के समान हो गया है। चैबीस घंटों में उसने अपने धर्म/कर्तव्य की ओर चिंतन करने का प्रयास नहीं किया।

हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण कराया और उसे धर्म का साधन बताया किन्तु वहां भी जाकर दश्ज्र्ञन करने की लोगों को फुर्सत नहीं है। यहां हस्तिनापुर में दर्शनार्थ आने वाले कितने ही महानुभावों को जब मैं मंदिर जाने की या गुरूओं के पास जाने की प्रेरणादेती हूं तब उनका यही कहना रहता है-माताजी! हमारे पास समय ही नहीं है, इतना व्यस्त हूं। दूसरी बात आती है कि किसी प्रकारसमय निकालकर गुरूओं के पास चले भी जाएं तो वहां सिवाय त्याग की बात के और कुछ होता ही नहीं है। वे कहते हैं कि हम रात्रि भोजन त्याग, कन्दूल त्याग आदि कैसे कर सकते हैं? और इसी डर से वे धर्म कर्म से दूर रहते हैं। अरे भाई! मैं सोचती हूं कि धर्म की गाड़ी तो सदैव धक्के से ही चलती है। गुरूओं की प्रेरणा भले ही आज कटु प्रतीत होती है किनतु ये ही हाथ पकउ़कर मोक्षमार्ग में लगाने वाले सच्चे गुरू होते हैं।

जैसे दुकानदार जब अपने ग्रहाक को कई प्रकार की वस्तुए ंदिखाता है, तब ग्राहक किसी न किसी वस्तु को पसंद करके खरीद ही लेता है, उसी प्रकार धर्म भी एक व्यापार है और उसका प्रतिपादनक रने वाले निग्र्रन्थ दिगम्बर मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाएं, दुकानदार हैं। दर्शनार्थ आने वाले भव्यात्मा ग्रहकों को वे भिन्न-भिन्न रूप से धर्म के स्वरूप को बताते हैं। अनेक बातों में से यदि एक बात भी उसके गले उतर गयी तो समझों कार्य सफल ही हो गया। मैं प्रतिदिन यह अनुभव करती हूं कि इस पंचमकाल में तो सबसे अधिक अहिंसा धर्म के बारे में लोगों को बताने की आवश्यकता है क्योंकि आज मानव ही मानव का संहारक हो गया है। हिन्दुस्तान में चारों ओर धर्म और जाति के नाम पर हिंसा का तांडव नृत्य चल रहा है। आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है-

‘‘अहिंसाभूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरमं’’ अर्थात् संसार में प्राणिमात्र की अहिंसा परमब्रह् स्वरूप है और उसका ज्ञान कराने वाली है। इसका मतलब यह नहीं कि किसी प्रकार का धर्म संकट आने पर भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जावें। अहिंसा धर्म की अत्यंत सूक्ष्म परिभाषा करते हुए हिंसा के 4 भेद बताये गये हैं- संकल्पी हिंसा, आरंभी हिंसा, उद्योगिनी हिंसा और विरोधिनी हिंसा। इन चारों हिसाओं में सम्यग्दृष्टी श्रावक तो संकल्पी हिंसा को छोड़कर बाकी तीन हिंसा से बच नहीं सकता है।

देखो! क्षायिक सम्यग्दृष्टि राम घमासान युद्ध करने के बावजूद भी अहिंसक ही रहे। जैन रामायण पद्मपुराण में पढ़ने से समझ में आता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र ने मात्र एक अपनी पत्नी सीता के लिए रावण से युद्ध नहीं किया बल्कि समस्त नारी जाति के ऊपर किये जाने वाले अत्याचारों का समूल चूल विध्वंस कराने हेतु ही युद्ध का सहारा लिया था। सभी जानते हैं कि युद्ध बिना हिंसा के नहीं होता और उस समय भी राम-रावण दोनों ही सेनाओं में न जाने कितनी जनता मारी गई किन्तु अंत में धर्म की विजय हुई। रावण की अक्षौहिणी सेना होने के बावजूद भी उसके पाप ने उसे धााशायी कर दिया। उस रावण का नाम सदा-सदा के लिए इतना बदनाम हो गया कि आज कोई भी माता-पिता अपने पुत्र का ‘रावण’ यह नाम रखना पसंद नहीं करते हैं और राम का नाम बड़े आदर्श से लिय जाता है क्योंकि उन्होंने धर्मयुद्ध करके आसुरी प्रवृत्ति का विध्वंस किया था।

jain temple403

इसी प्रकार से धर्म और धर्मायतनों पर जब भी कोई विपत्ति आवे, आप अपने कत्र्तव्य का पालन करते हुए सदैव तन, मन, धन से उनकी रक्षा के लिए कटिबद्ध रहें। इतिहास जहां अकलंक देव जेसे जैनधर्म की ध्वजा को दिग्दिगन्त में फहराने वाले महान आचार्य का नाम स्मरण कराता है वही ंउनसे अपने मस्तक को बलिवेदी पर चढ़ाने वाले निकलंक को कभी विस्मृत नहीं कर सकता। इसी हस्तिनापुर की भूमि पर आप देखें, पूर्व इतिहास का अवलोकर करें तो ज्ञात होता है कि अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के ऊपर जब यहां बलि ने अग्निकांड का भयंकर उपसर्ग किया था उस समय विष्णुकुमार महामुनिराज ने अपना मुनिवेष छोड़कर भी उस उपसर्ग का निवारण किया था।

जैन धर्म में तो कर्म सिद्धांत की प्रमुखता हैं कर्म के वश होकर यह जीव प्रतिक्षण सुख-दुख का अनुभव करता है। अहिंसा के विषय में तो जितना सूक्ष्म विवेचन जैन सिद्धांत में पाया जाता है, उतना कहीं भी नहीं है।

आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण बतलाया है-

‘‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरापणं हिंसा’’ अर्थात् प्रमाद के योग से किसी के प्राणों का घात करना हिंसा है। इस परिभाषा के अनुसार कोई जीव भले ही हिंसा नहीं कर रहा है परंतु उसका चित्त प्रमाद और कषाय से युक्त है तो वह हिंसक ही कहा जायेगा तथा प्रमाद कषाय रहित व्यक्ति यदि अपनी क्रियाओं में सावधन है और अन्जान में उससे किसी प्रकार की हिंसा भी हो जाती है तो भी वह अहिंसक माना जाता है क्योंकि प्रधानता तो भावों की है। कई बार ऐसा देखा जाता है कि दो-चार लोग एक पास बैठते हैं और अकारण ही चर्चा छिड़ जाती है कि अमुक व्यक्ति का अहित हो जावे या वह मर जावे तो अच्छा है इत्यादि, पर उनके अशुभ चिन्तन से उसका अहित होवे या न होवे किंतु आत्महिंसा तो हो ही जाती है।

एक व्याघ्र और शूकर के ही भावों को देखिये-

एक बार दो दिगम्बर मुनिराज एक गुफा में रह रहे थे उस गुफा में एक शूकर भी रहता था। मुनिराज के द्वारा उपदेश प्राप्त क रवह एक भक्त की भांति वहीं पर गुरू रक्षा के भाव से बैठा रहता था। एक दिन मनुष्य की गंध पाकर एक व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा हुआ आया। शूकर उसे दूर से ही देखकर गुफा के द्वार पर आकर डट गया ताकि वह भीतर बैठे हुए मुनियों की रक्षा कर सके। जैसे ही व्याघ्र ने आक्रमण किया बस, शूकर के साथ उसका युद्ध छिड़ गय। दोनों ही लड़ रहे थे परन्तु दोंनो के भावों में बड़ा अंतर था। एक के भाव थे मुनिरक्षा करने के और दूसरे के भाव हिंसा के थे। लड़ते-लडत्रते दोनों मर गये, मुनिरक्षा के भाव से शूकर तो पहले स्वर्ग में देव हो गया और व्याघ्र मुनिहिंसा के भाव से नरक चला गया।

2
1