संसारावस्था में सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा बद्ध है, इसी कारण इसके ज्ञान और सुख पराधीन हैं। राग, द्वेष, मोह और कषाय ही इसकी पराधीनता के कारण हैं; इन्हें आत्मा के विकार कहा गया है। विकार ग्रस्त आत्मा सर्वदा अशान्त रहती है, कभी भी निराकुल नहीं हो सकती। इन विकारों के कारण ही व्यक्ति के सुख का केन्द्र बदलता रहता है, कभी ऐन्द्रियिक विषयों के प्रति आकृष्ट होता है तो कभी विकृष्ट। कभी इसे कंचन सुखदायी प्रतीत होता है, तो कभी कामिनी।
राग और द्वेष की भावनाओं के संश्लेषण के कारण ही मानव हृदय में अगणित भावों की उत्पत्ति होती है। आश्रय और आलम्बन के भेद से ये दोनों भाव नाना प्रकार के विकारों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। जीवन के व्यवहार क्षेत्र में व्यक्ति की विशिष्टता, समानता एवं हीनता के अनुसार इन दोनों भावों में मौलिक परिवर्तन होता है। साधु या गुणवान् के प्रति राग सम्मान हो जाता है, समान के प्रति प्रेम तथा पीडि़त के प्रति करूणा। इस प्रकार द्वेष-भाव की दुर्दान्त के प्रति भय, समान के प्रति क्रोध एवं दीन के प्रति दर्द का रूप धारण कर लेता है।
मनुष्य रागभाव के कारण ही अपने अभीष्ट इच्छाओं की पूर्ति न होने पर क्रोध करता है, अपने को उच्च और बड़ा समझकर दूसरों का तिरस्कार करता है, दूसरों की धन-सम्पदा एवं ऐश्वर्य देखकर ईष्र्याभाव उत्पन्न करता है, सुन्दर रमणियों के अवलोकन से उनके हृदय के कामतृष्णा जाग्रत हो उठती है। नाना प्रकार के सुन्दर वस्त्राभूषण, अलंकार और पुष्पमालाओं आदि से अपने को सजाता है, शरीर को सुन्दर बनाने की चेष्टा करता है, तैलमर्दन, उबटन, साबुन आदि विभिन्न प्रकार के पदार्थों द्वारा अपने शरीर को स्वच्छ करता है। इस प्रकार अहर्निश राग-द्वेष की अनात्मिक वैभाविक भावनाओं के कारण मानव अशान्ति का अनुभव करता रहता है।
जिस प्रकार रोग की अवस्था और उसके निदान के मालूम हो जाने पर रोगी रोग से निवृत्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार साधक संसाररूपी रोग का निदान और उसकी अवस्था को जानकर उससे छूटने का प्रयत्न करता है। सांसारिक दुःखों का मूल कारण प्रगाढ़ राग-द्वेष है, जिन्हें शास्त्रीय परिभाषा में मिथ्यात्व कहा जा सकता है। आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप में विश्वास न कर अतत्त्वरूप-राग-द्वेष रूप श्रद्धा करने से मनुष्य को स्वपर का विवेक नहीं रहता है, जड़ शरीर को आत्मा समझ लेता है तथा स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, ऐश्वर्य में राग के कारण लिप्त हो जाता है, इन्हें अपना समझकर इनके सद्भाव और अभाव में हर्ष-विषाद उत्पन्न करता है। आत्मा के स्वाभाविक सुख को भूलकर संसार के पदार्थों द्वारा सुख प्राप्त करने की चेष्टा करता है। शरीर से भिन्न ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोगमय अखण्ड अविनाशी जरा-मरणरहित समस्त पदार्थों के ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा को विषय-कषाययुक्त शरीरमल समझने लगता है। मिथ्यात्व के कारण मनुष्य की बुद्धि भ्रममय रहती है। अतः इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले पुद्गल पदार्थों के निमित्त से उत्पन्न सुख को जो कि पर-पदार्थ के संयोगकाल तक-क्षण-भर पर्यन्त रहनेवाला होता है, वास्तविक समझता है। मिथ्यात्व के कारण यह जीव शरीर के जन्म को अपना जन्म और शरीर के नाश को अपना मरण मानता है। राग-द्वेषादि जो स्पष्ट रूप से दुःख देनेवाले हैं, उनका ही सेवन करता हुआ मिथ्यादृष्टि आनन्द का अनुभव करता है। अपने शुद्ध स्वरूप को भूलकर शुभ कर्मों के बन्ध के फल की प्राप्ति में हर्ष और अशुभ कर्मों के बन्ध की फल-प्राप्ति के समय दुःख मानता है। आत्मा के हित के कारण जो वैराग्य और ज्ञान हैं, उन्हें मिथ्यादृष्टि कष्टदायक मानता है। आत्म-शक्ति को भूलकर दिन-रात विषयेच्छा की पूर्ति में सुखानुभव करना तथा इच्छाओं को बढ़ाते जाना मिथ्यात्व का ही फल है। इससे स्पष्ट है कि समस्त दुःखों का कारण मिथ्यादर्शन है।
मिथ्यादर्शन के सद्राव-आत्मविश्वास के अभाव-में ज्ञान भी मिथ्या ही रहता है। मिथ्यात्व-रूपी मोहनिद्रा से अभिभूत होने के कारण ज्ञान वस्तु-तत्व की यथार्थता तक पहुॅंच नहीं पाता। अतः मिथ्यादृष्टि का ज्ञान आत्मकल्याण से सदा दूर रहता है। ज्ञान के मिथ्या हरने से चारित्र भी मिथ्या होता है। यतः कषाय और असंयम के कारण संसार में परिभ्रमण करनेवाला आचरण ही व्यक्ति करता है, जो मिथ्या चारित्र की कोटि मं परिगणित है। मोहनिद्रा से अभिभूत होने के कारण विषय ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छाएं अनन्त हैं। इनकी तृप्ति न होने से जीव को अशान्ति होती है। मोहाभिभूत होने के कारण इच्छा-तृप्ति को ही मिथ्यादृष्टि सुख समझताहै, पर वास्तव में इच्छाएं कभी तृप्त नहीं होती। एक इच्छा तृप्त होती है, दूसरी उत्पन्न हो जाती है, दूसरी के तृप्त होने पर तीसरी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार मोह के निमित्त से पंचेन्द्रिय-सम्बन्धी इच्छाएं निरंतर उत्पन्न होती रहती हैं, जिससे मनुष्य को आकुलता सदा बनी रहती है।
चारित्र-मोह के उदय से क्रोधादि कषाय रूप अथवा हास्यादि नोकषाय रूप जीव के भाव होते हैं, जिससे दुष्कृत्यों में प्रवृत्ति होती हैं। क्रोध उत्पन्न होने पर अपनी और पर की शान्ति भंग होती है; मान उत्पन्न होने पर अपने को उच्च और पर को नीच समझता है, माया उत्पन्न होने पर अपने तथा पर को धोखा देता है एवं लोभ के उत्पन्न होने पर अपने तथा पर को लुब्धक बनाता है। अतएवं संक्षप में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आत्मा के विकास हैं, वे आत्मा के स्वभाव नहीं विभाव हैं। उक्त मिथ्यात्व की उत्पत्ति का कारण राग और द्वेष् ही हैं। इन्हीं विभावों के कारण आत्मा स्वभाव धर्म से च्युत है, जिससे क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य रूप अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप आत्मा की प्रवृत्ति नहीं हो रही है। संसार का प्रत्येक प्राणी विकारों के अधीन होने के कारण ही व्याकुल है, एक क्षण को भी शान्ति नहीं है। आशा, तृष्णा सतत बेचैन किये रहती हैं।
मंगल-वाक्यों की आवश्यकता
विचारक महापुरूषों ने विषय-कषायजन्य अशान्ति और बेचैनी को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के विधानों का प्रतिपादन किया है। नाना प्रकार के मंगल-वाक्यों की प्रतिष्ठा की है तथा जीवन के शान्ति और सुख प्राप्त करने के लिए ज्ञान, भक्ति, कर्म और योग आदि मार्गों का निरूपण किया है। कुछ ऐसे सूत्र, वाक्य, गाथा और श्लोक में भी बतलाये गये हैं, जिनके स्मरण, मनन, चिन्तन और उच्चारण से शान्ति मिलती है, मन पवित्र होता है, आत्म स्वरूपका श्रद्धान होता है तथा विषय-कषायों की आसक्ति को व्यक्ति छोड़ने के लिए बाध्य हो जाता है। विकारों पर विजय प्राप्त करने में ये मंगलवाक्य दृढ़ आलम्बन बन जाते हैं तथा आत्मकल्याण की भावना का परिस्फुरण होता है। विश्व के सभी मत-प्रवर्तकों ने विकारों को जीतने एवं साधना के मार्ग में अग्रसर होने के लिए अपनी-अपनी मान्यतानुसार कुछ मंगलवाक्यों का प्रणयन किया है। अन्य मतप्रवर्तकों द्वारा प्रतिपादित मंगलवाक्य कहाँ तक जीवन में प्रकाश प्रदान कर सकते हैं, यह विचार करना प्रस्तुत रचना का ध्येय नहीं है। यहाॅं केवल यही बतलाने का प्रयत्न किया जाएगा कि जैनाम्नाय में प्रचलित मंगलवाक्य णमोकार मन्त्र किस प्रकार जीवन में शान्ति प्रदान कर सकता है तथा दार्शनिक, मान्त्रिक एवं लौकिक कल्याण-प्राप्ति की दृष्टि से उक्त वाक्य का क्या महत्व है, जिससे विकारों को शमन करने में सहायता मिल सके। आत्मकल्याण का मूल साधन सम्यग्दर्शन भी उक्त मंगलवाक्य के स्मरण से किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है, द्वादशांग जिनवाणी का परिज्ञान उक्त वाक्य द्वारा किस प्रकार किया जा सकता है तथा जीवन की आशा-तृष्णाजन्य अशान्ति किस प्रकार दूर हो जाती है आदि बातों पर विचार किया जाएगा।
अशान्ति को दूर करने का अमोघ साधन-णमोकार-मन्त्र
साधक को सर्वप्रथम अपनी छानबीन कर अपने सच्चिदानन्द स्वरूपक ा निश्चय करना अत्यावश्यक है। आत्मस्वरूप के निश्चय करने पर भी जब तक अनुकरणीय आदर्शन निश्चित नहीं, तब तक अपने स्वरूप को प्राप्त करने का मार्ग अन्वेषण करना असम्भव है। आदर्श शुद्ध सच्चिदानन्दरूप आत्मा ही हो सकता है। कोई भी विकारग्रस्त प्राणी विकाररहित आदर्श को सामने पाकर अपने भीतर उत्साह, दृढ़ संकल्प और स्फूर्ति उत्पन्न कर सकता है। चिदानन्द शान्तमुद्रा का चित्र अपने हृदय में स्थापित करने से विकारों का शमन होता है। वीतरागी, शान्त, अलौकिक, दिव्यज्ञानधारी, अनुपम दिव्य आनन्द और अनन्त सामथ्र्यवान् आत्माओं का आदर्श सामने रखने से मिथ्याबुद्धि दूर हो जाती है, दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाता है, राग-द्वेष की भावनाएँ निकल जाती हैं और आध्यात्मिक विकास होने लगता है। णमोकार मन्त्र ऐसा मंगलवाक्य है, जिसमें द्वादशांग वाणी का सारभूत दिव्यात्मा पंचपरमेष्ठी का पावन नाम निरूपित है। इस नाम के श्रवण, मनन, चिन्तन और स्मरण से कोई भी व्यक्ति अपने राग-द्वेष रूप विकारों को सहज में पृथक् कर सकता है। विकारों का परिष्कार करने के लिए पंचपरमेष्ठी के आदर्श से उत्तम अन्य कोई आदर्श नहीं हो सकता।
साधारण व्यक्ति का भी इधर-उधर वासनाओं के लिए भटकनेवाला मन इस मन्त्र के उच्चारण और चिन्तन द्वारा स्वास्थ्य लाभ कर सकता है। इस मन्त्र में प्रतिपादित भावना प्रारम्भिक साधक से लेकर उच्चश्रेणी के साधक तक को शान्ति और श्रेयोमार्ग प्रदान करनेवाली है। भारतीय दार्शनिकों का ही नहीं, विश्व के सभी दार्शनिकों का मत है कि जब तक व्यक्ति में आस्तिक्य भाव नहीं, विशेष मंगलवाक्यों के प्रति श्रद्धा नहीं; तब तक उसका मन स्थिर नहीं हो सकता है। आस्तिक व्यक्ति अपने आरध्य महापुरूष की आराधना कर शान्ति लाभ करता है। दृढ़ आस्था रखकर निर्दोष आत्माओं का आदर्श सामने रखना तथा उन वीतरागी आत्माओं के समान अपने को बनाने का प्रयत्न करना प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है। जो शान्ति चाहता है, राग-द्वेष से छुटकारा प्राप्त करना चाहता है एवं अपने हृदय को शुद्ध, सबल और सरस बनाना चाहता है, उसे अपने सामने कोई आदर्श अवश्य रखना होगा तथा इस आदर्श को प्रतिपदित करनेवाले किसी मंगलवाक्य का मनन भी करना पड़ेगा। वहाँ आदर्श रखने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अपने को हीन तथा आदर्श को उच्च समझकर दास्य-दासक भाव स्थापित किया जाए अथवा अन्य किसी रागात्मक सम्बन्ध की स्थापना कर अपने को रागी-द्वेषी बनाया जाए, बल्कि तात्पर्य यह है कि शुद्ध और उच्च आदर्श को स्थापित कर अपने को भी उन्हीं के समान बनाया जाए। राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दुर्बलताओं पर मंगलवाक्य में वर्णित शुद्ध आत्माओं के समान विजय प्राप्त की जाय। आत्मोन्नति के लिए आवश्यक है आराधना योग्य परमशान्त, सौम्य, भव्य और वीतरागी आत्माओं का चिन्तन एवं मनन करना तथा इन आत्माओं के नाम और गुणों को बतलानेवाले वाक्यों का स्मरण, पठन एवं चिन्तन करना। संसार के विकरों से ग्रस्त व्यक्ति आदर्श आत्माओं के गुणों के स्तवन, चिन्तन और मनन द्वारा अपने जीवन पर विचार करता है। जिस प्रकार उन शुद्ध और निर्मल आत्माओं ने राग, द्वेष आदि प्रवृतियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा नवीन कर्मों के अस्त्रव की अवरूद्ध कर संचित कर्मों का श्रय-विनाश कर शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, उसी प्रकार आदर्श शुद्ध आत्माओं के स्मरण, ध्यान और मनन के साधक भी निर्मल बन सकता है।
णमोकार मन्त्र में आत्माओं की शरण जाने से तात्पर्य उन्हीं के समान शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति से है। साधक किसी आलम्बन को पाकर ऊँचा चढ़ जाना-साधक की उन्नत अवस्था को प्राप्त कर लेना चाहता है। यह आलम्बन कमज़ोर नहीं है, बल्कि विश्व की समस्त आत्माओं से उन्नत-परमात्मारूप है। इनके निकट पहुँचकर साधक उसी प्रकार शुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार पारसमणि का संयोग पाकर लोहा स्वर्ण बन जाता है। लोहे को स्वर्ण बनने के लिए कुछ विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता, बल्कि पारसमणि का सान्निध्य प्राप्त कर लेन मात्र से ही उसके लौह-परमाणु स्वर्ण-परमाणुओं में परिवर्तित हो जाते हैं। अथवा जिस प्रकार दीपक को प्रज्वलित करने के लिए उन्य जलते हुए दीपकों के पास रख देने के पश्चात् नहीं जानेवाले दीपक की बत्ती जलते हुए दीपक की लौ से लगा देने मात्र से वह नही जलनेवाला दीपक प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार संसारी विषयकषाय संलग्न आत्मा उत्कृष्ट मंगलवक्य में निरूपित आत्माओं, जो कि सामान्य-संग्रह नय की अपेक्ष एक परमात्मारूप है, का सान्निध्य-शरण भाव प्राप्त कर तत्तुल्य बन जाता है। अतएव मानव जीवन के उत्थान में मंगलसूत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है।