जैन-संस्कृति और णमोकार मन्त्र
jain-img178

मंगलवाक्यों, मूलमन्त्रों और जीवन के व्यापक सत्योें का सम्बन्ध संस्कृति के साथ अनादि काल से चला आ रहा है। संस्कृति मानव-जीवन की वह अवस्था है, जहाँ उसके प्राकृतिक राग-द्वेषों का परिमार्जन हो जाता हैं वास्तव में सामाजिक ओर वैयक्तिक जीवन की आन्तरिक मूल प्रवृत्तियों का समन्वय ही संस्कृति हैं संस्कृति को प्राप्त करने के लिए जीवन के अन्तस्तल में प्रवेश करना पड़ता है। स्थूल शरीर के आवरण के पीछे जो आत्मा का सच्चिदानन्द रूप छिपा है, संस्कृति उसे पहचानने का प्रयत्न करती है। शरीर से आत्मा की ओर, जड़ से चैतन्य की ओर, रूप से भाव की ओर बढ़ना ही संस्कृति का ध्यये है । यों तो संस्कृति का व्यक्त रूप सभ्यता है जिसमें आचार-विचार, विश्वास-परम्पराएँ, शिल्प-केशन आदि शामिल हैं। जैन संस्कृति का तात्पर्य हे कि आत्मा के रत्नत्रय गुण को उत्पन्न कर बाहृ जीवन कोउसी के अनुकूल बनाना तथा अनात्मिक भावों को छोड़ आत्मक भावों को ग्रहण करना। अतएव जैन संस्कृति में जीवनादर्श, धार्मिक आदर्श, सामाजिक आदर्श, पारिवारिक आदर्श, आस्था ओर विश्वास-परम्पराएँ, सहित्यकल आदि चीज़ें अन्तर्भूत हैं। यों तो जैनसंस्कृति मेंवे ही चीज़ें आती हैं, जो आत्मशोधन में सहयक होती हैं,जिनसे रत्नत्रय गुण का विकार होता है। यही कारण है कि जैन संस्कृति अहिंसा, परिग्रह, त्याग, स्वयं तप आदि पर ज़ेार देती चली आ रही है।

आत्मसमत्व ओर वीतरागत्व की भावना से कोई भी प्राणी धर्म की शीतल छाया में बैठ सकता है। यह अपना आत्मक विकास कर अहिंसा की प्रतिष्ठा कर सकता है। यों तो जैन संस्कृति के अनेक तत्त्व हैं, परणमोकर महामन्त्र ऐसातत्त्व है, जिसके स्वरूप का परिज्ञान हो जाने पर इस संस्कृति का रहस्य अवगत करने में अत्यन्त सरलता होती हैं णमोकार मन्त्र में रत्नत्रयगुण् विशिष्ट शुद्ध आत्मा को नमस्कार कियाहैं जिन आत्माओं ने अहिंसा को अपने जीवन में पूर्णतः उतार लिया है, जिनकी सभी क्रियाएँ अहिंसक हैं, ये आत्माए ँ जैन संस्कृति की साक्षात् प्रतिमाएँ है। उनके नमस्कार से आदर्श जीवन की प्राप्ति होती हैं। पंच महाव्रतों का पालन करनेवाले आत्मस्वरूप के ज्ञाता-द्रष्टा परमेष्ठियों का वेष संसार के सभी वेषों से परे हैं लाल-पीले तरह-तरह के वस्त्र धारण करना, डण्डा-लाठी आदि रखना जटाएँ धारण करना शरीर में भभूत लगाने आदि अनेक प्रकर के वेष है; किन्तु नग्नता वेषातीत है, इसमें किसी भी प्रकार के वेष को नहीं अपनाया गया है। पंचपरमेष्ठी निग्र्रन्थ रहकर सत्य का मार्ग अन्वेषण करते हैं।उनकी क्रियाएँ -मन, वचन और शरीर की क्रियाएँ पूर्ण अहिंसक होती है। राग-द्वेष, जिनके कारण जीवन में हिंसा का प्रवेश होता है, इन आत्माओं में नहीं पाये जाते।

अर्थात-इस पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध का व्याख्यान महान् प्रबन्ध से अनन्त गुण और पर्यायों सहित, सूत्र की प्रियभूत निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियों द्वारा जैसा अनन्त ज्ञान-दर्शन के धारक तीर्थंकरों ने किया, उसी प्रकार संक्षेप में व्याख्यान करने योग्य था। परन्तु आगे काल-परिहाणि के दोष से वे निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियाँ विच्छिन्न हो गयीं। फिर कुछ काल जान ेपर यथा समय महाऋद्धि को प्राप्त पदानुसारी वज्रस्वामी नामक द्वादशांग श्रुतज्ञान के धारक उत्पन्न हुए। उन्होंने पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध का उद्धार मूल सूत्र के मध्य लिखा। यह मूलसूत्र सूत्रत्व की अपेक्षा गणधरों द्वारा तथा अर्थ की अपेक्षा अरिहन्त भगवान्, धर्मतीर्थंकर त्रिलोकमहित वीर जिनेन्द्र के द्वारा प्रज्ञापित है,ऐसा वृद्ध सम्प्रदाय है।

श्वेताम्बर आगम के उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में णमोकार मन्त्र के अर्थ का विवेचन तीर्थंकरों द्वारा तथा शब्दों का विवेचन गणधरों द्वारा किया गया माना गया हैं इस कल्पकाल के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने इस महामन्त्र के अर्थ का निरूपण तथा गौतम स्वामी ने शब्दों का कथन किया है। कालदोष के कारण तीर्थंकर द्वारा कथित व्याख्यान के विच्छिन्न हो जाने से द्वादशांग ज्ञान के धारी श्री वज्रस्वामी ने इसका उद्धार किया। अतएवं यह मन्त्र अनादि है, गुरू-परम्परा से अनादिकाल से प्रवाहरूप में चला आ रहा है। हाॅं, इतनी बात अवश्य है कि प्रत्येक कल्पकाल में इस मन्त्र का व्याख्यान एवं शब्दों द्वारा प्रणयन अवश्य होता है।

जैसा कि आरम्भ में कहा गया है कि दिगम्बर-परम्परा इस महामन्त्र को अनादि मानती है। जैसे वस्तुएँ अनादि हैं, उनका कोई कर्ता-धर्मा नहीं है, उसी प्रकार यह मन्त्र भी अनादि है, इसका भी कोई रचयिता नहीं है। मात्र व्याख्याता ही पाये जाते हैं। षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण के प्रारम्भ में यह मात्र मंगलाचरण रूप से अंकित किया गया है। धवला टीका के रचयिता श्री वीरसेनाचार्य ने टीका में ग्रन्थ-रचना के क्रम का निरूपण करते हुए कहा है:

मंगल-णिमित्त हेऊ परिमाणं णाम तह यह कत्तरं।
वागरिय छ प्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो।।

इदि णायमाइरिय-परंपरागयं मणेणावहारिय पुव्वाइरियायाराणु-सरणं तिरयण हेउ त्ति पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छण्णं सकारणाणं परूवणट्ठं सुत्तामहा-‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि।

अर्थात् - मंगल, निमित्त, हेतु, परिणाम, नाम और कर्ता इन छह अधिकारों का व्याख्यान करने के पश्चत् शास्त्र का व्याख्यान आचार्य करते हैं। इस आचार्य-परम्परा को मन में धारण करना तथा पूर्वाचार्यों की व्यवहार-परम्परा का अनुसरण करना रत्नत्रय का कारण है, ऐसा समझकर पुष्पदन्ताचार्य मंगलादि छहों के सकारण प्ररूपण के लिए ‘णमो अरिहंताणं’ आदि मंगलसूत्र को कहते हैं। श्री वीरसेनाचार्य ने इस मंगलसूत्र को ‘तालपलंब’-तालप्रलम्ब सूत्र के समानदेशामर्षक कहकर मंगल, निमित्त; हेतु आदिछहों अधिकार वाला सिद्ध किया है।

jain-img179

आगे चलकर वीरसेनाचार्य ने मंगल शब्द की व्युत्पत्ति एवं अनेक दृष्टियों से भेद-प्रभेदों का निरूपण करते हुए मंगल के दो भेद बताये हैं-

‘‘तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि। तत्थ णिबद्धं णाम जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्ध-देवदा-णमोक्कारों तं णिबद्ध-मंगलं। जो सुत्तसदीए सुत्तकआरेण कय देवदा-णमोक्कारो तमणबिद्ध-मंगलं। दइंद पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध-मंगलं। यत्तो ‘इमेसिं चोइसण्डहं जीवसमासाणं’ इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्धं-णमो अरिहंताणं’ इच्चादिदेवदा णमोक्कार-दंसणादो।’’1

अर्थात् - मंगल दो प्रकार का है-निबद्ध और अनिबद्ध। सूत्र के आदि में सूत्रकर्ता द्वारा जो देवता-नमस्कार अन्य के द्वारा किया गया लिखा जाए अर्थात् पूर्व परम्परा से चले आये किसी मंगलसूत्र या श्लोक को अथवा परम्परा द्वारा निरूपित अर्थ के आधार पर स्वरचित सूत्र या श्लोक को अंकित करना निबद्ध मंगल है। रचना के आदि में मन साया वचसा यों ही सूत्र या मंगल वाक्य बिना लिखे जो नमस्कार किया जाता हे, वह अनिबद्ध कहलाता है। यहाँ ‘जीवस्थान’ नामक प्रािमखण्डागम में ‘इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं’ इत्यादि जीवस्थान के सूत्र के पहले ‘णमो अरिहन्ताणं’ इत्यादि मंगलसूत्र, जो देवता नमस्कार रूप में विद्यमान है, परम्परा प्राप्त मंगल है।

उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि वीरसेन स्वामी के मान्यतानुसार यह मंगलसूत्र परम्पर से प्राप्त चला आ रहा है, पुष्पदन्त ने इसे यहाँ अंकित कर दिया
-------------------- 1. धवला टीका, प्रथम पु., पृ. 41।
है। इससे इस महामन्त्र का अनादित्व सिद्ध होता है।

अलंकारचिन्तामणि में निबद्ध और अनिबद्ध मंगल की परिभाषा निम्न प्रकार की गयी है। जिनसेनाचार्य ने निबद्ध का अर्थ लिखित और अनिबद्ध का अर्थ अलिखित या अनंकित नहीं लिया है। वह लिखते हैंः

स्वकाव्यमुखे स्वकृतं पद्यं निबद्धम्, परकृतमनिबद्धम्।

अर्थात् - स्वरचित मंगल अपने ग्रन्थ में निबद्ध और अन्यरचित मंगलसूत्र को अपने ग्रन्थ में लिखना अनिबद्ध कहा जाता है।

उक्त परिभाषा के आधार पर णमोकार मन्त्र को अनिबद्ध मंगल कहा जाएगा। क्योंकि आचार्य पुष्पदन्त इसके रचयिता नहीं हैं। उन्हें तो यह मन्त्र परम्परा से प्राप्त था, अतः उन्होंने इस मंगलवाक्य को ग्रन्थ के आदि में अंकित कर दिया। इसी आशय को लेकर वीरसेन स्वामी ने धवला टीका (1 141 ) में इसे अनिबद्ध मंगल कहा है।

वैशाली प्रतिष्ठान के निर्देशक श्री डाॅ. हीरालालजी ने वेदनाखण्ड के ‘णमो जिणाणं’ इस मंगलसूत्र की धवला टीका के1 आधार पर णमोकार मन्त्र के आदिकर्ता श्री पुष्पदन्ताचार्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है किन्तु अन्य आर्ष ग्रन्थों के साथ तथा जीवट्ठाणखण्ड के मंगलसूत्र की धवला टीका के साथ डाॅक्टर साहब के मन्तव्य की तुलना करने पर प्रतीत होता है कि यह मन्त्र अनादि है। जैसे अग्नि का उष्णत्व, जल का शीतत्व, वायु का स्पर्शत्व एवं आत्मा का चेतनधर्म अनादि है, उसी प्रकार यह णमोकार मन्त्र अनादि है। अथवा अनादि जिनवाणी का अंग होने से यह मन्त्र अनादि है। महाबन्ध प्रथम भाग की प्रस्तावना में बताया गया है कि ‘‘जिस2 प्रकार ‘णमो जिणाणं’ आदि मंगलसूत्र भूतबलि द्वारा संगृहीत है, ग्रथित नहीं है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्र रूप से ख्यात अनादि मूलमन्त्र नाम से वन्दित ‘णमो अरिहंताणं’ आदि भी पुष्पदन्त आचार्य द्वारा संगृही हे, ग्रथित नहीं है।’’ मोक्षमार्ग अनादि है, इस मार्ग के उपदेशक और पथिक भी अनादि हैं, तीर्थकर प्रभुओं की परम्परा भी अनादि है। अतः यह अनादि मूलमन्त्र भगवान् की दिव्यध्वनि से प्राप्त हुआ है। सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् ने अपनी दिव्य-ध्वनि से जिन
----------------------

1. धवला टीका, पुस्तक 2, पृ. 33-36।

2. महाबन्ध, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ. 30।

तत्त्वों का प्रकाशन किया, गणधरदेव ने उन्हें द्वादशांग वाणी का रूप दिया। अतएव अनादि द्वादशांगवाणी का अंग होने से यह महामन्त्र अनादि है। इस महामन्त्र के सम्बन्ध में निम्न श्लोक प्रसिद्ध है।

अनादिमूलमन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः।
मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः।।

द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा यह मंगलसूत्र अनादि है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सादि है। इसी प्रकार यह नित्यानित्य रूप भी है। कुछ ऐतिहासिक विद्वानों का अभिमत है कि साधु शब्द का प्रयोग साहित्य में अधिक पुराना नहीं है अतः इस अर्थ में ऋषि-मुनि शब्द ही प्राचीनकाल में प्रचलित थे। णमोकार मन्त्र में ‘साहूणं’ पाठ है, अतः यह शब्द ही इस बात का द्योतक है कि यह मन्त्र अनादि नहीं है। इस शब्द का समाधान पहले ही किया जा चुका है, क्योंकि शब्दरूप में निबद्ध यह मन्त्र अवश्य सादि है, अर्थ की अपेक्षा यह अनादि है। इसे अनादि का अर्थ यही है कि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा इसे अनादि कहा गया है।

किसी भी कार्य का फल दो प्रकार से प्राप्त होता है-तात्कालिक और कालान्तरभावी। इस महामन्त्र के स्मरण से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्मों का क्षय होकर कल्याण-श्रेयोमार्ग की प्राप्ति होना, इसका तात्कालिक फल है। अनादिकर्म-लिप्त आत्मा इस महामन्त्र के स्मरण से तत्काल ही श्रद्धालु हो सम्यक्त्व की ओर अग्रसर होता है। पंचपरमेष्ठी का पवित्र स्मरण व्यक्ति को आत्मिक बल प्रदान करता है। यतः पंचपरमेष्ठी के स्मरण से आत्मा में पवित्रता आती है, शुभ परिणति उत्पन्न हो जाती है और आत्मा में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे वह स्वयमेव ही धर्म की ओर अग्रसर होती है। अतः तात्त्कालिक फल आत्मशुद्धि है। कालान्तर फल में आत्मा की शुभ परिणति के कारण अर्थ-धन, ऐश्वर्य, अभ्युदय और काम-सांसारिक भोग, सुख, स्वास्थ्य आदि के साथ स्वर्गादि की प्राप्ति है। वास्तव में णमोकार मन्त्र का उद्देश्य मोक्ष-पाप्ति है और यही इस मन्त्र का यथार्थ फल है, किन्तु इस फल की प्राप्ति के लिए आत्मा में क्षायिक सम्यक्त्व की योग्यता अपेक्षित है।