कथा-साहित्य और णमोकार मन्त्र
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णमोकार मन्त्र के महत्त्व और फल को प्रकट करने वाली अनेक कथाएं जैन साहित्य में आयी है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय के धर्मकथा-साहित्य में इस महामन्त्र का बड़ा भारी फल बतलाया गया है। पुण्यस्त्रव और आराधना कथा-कोष के अतिरिक्त अन्य पुराणों में भी इस महामन्त्र के महत्त्व को प्रकट करने वाली कथाएं हैं। एक बार जिसने भी भक्तिभावपूर्वक इस महामन्त्र का उच्चारण किया वही उन्नत हो गया। नीच-से-नीच प्राणी भी इस महामन्त्र के प्रभा से स्वर्ग और अपवर्ग के सुख प्राप्त करता है। धर्मामृत की पहली कथा में आया है कि वसुभूति ब्राह्मण ने लोभ से आकृष्ट होकर दिगम्बर मुनिव्रत धारण किये थे तथा दयामित्र के अष्टाहिक पर्व को सम्पन्न कराने के लिए दक्षिणा प्राप्ति के लोभ से उसने केशलुंच एवं द्रव्यलिंगी साधु के अन्य व्रत धारण किय थे। दयामित्र जब जंगल में जा रहा था तो एक दिन रात को जंगली लुटेरों ने दयामित्र सेठ के साथवाले व्यापारियों पर आक्रमण किया। दयामित्र वीरतापूर्वक लुटेरों के साथ युद्ध करने लगा। उसने अपार बाण वर्षा की, जिससे लुटेरों के पैर उखड़ गये और वे भागने पर उतारू हो गये। युद्ध-समय वसुभूति दयामित्र के तम्बू में सो रहा था। लुटेरों का एक बाण आकर वसुभूति को लगा और वह घायल होकर पीड़ा से तड़पने लगा। यद्यपि दयामित्र के उपदेश से उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो चुकी थी, तो भी साधारण-सा कष्ट उसे था। दयामित्र ने उसे समझाया कि आत्मा का कल्याण समाधिमरण के द्वारा ही सम्भव है, अतः उसे समाधिमरण धारण कर लेना चाहिए। सल्लेखना से आत्मा में अहिंसा की शक्ति उत्पन्न होती है, अहिंसक ही सच्चा वीर होता है। अतः मृत्यु का भय त्यागकर णमोकार मन्त्र का चिन्तन करें। इस मन्त्र की महिमा अद्भुत है। भक्तिभावपूर्वक इस मन्त्र का ध्यान करने से परिणाम स्थिर होते हैं तथा सभी प्रकार की विघ्न-बाधाएं टल जाती हैं। मनुष्य की तो बातही क्या, तिर्यंच भी इस महामन्त्र के प्रभाव से स्वर्गादि सुखों को प्राप्त हुए हैं। हाँ, इस मन्त्र के प्रति अटूट श्रद्धा होनी चहिए। श्रद्धा के द्वारा ही इसका वास्तविक फल प्राप्त होगा। यों तो इस मन्त्र के उच्चारण से आत्मा में असंख्यातगुणी विशुद्धि उत्पन्न होती है।

दयामित्र के इस उपर्देश को सुनकर वसुभूति स्थिर हो गया। उसने अपने परिणामों को बाहृ पदार्थों से हटाकर आत्मा की ओर लगाया और णमोकार मन्त्र का ध्यान करने लगा। ध्यानावस्था में ही उसने शरीर का त्याग किया, जिसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग के मणिप्रभा विमान में मणिकुण्ड नामक देव हुआ। स्वर्ग के दिव्य भोगों को देखकर वसुभूति के जीव मणिकुण्ड को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। तत्काल ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान के उत्पन्न होते ही उसने अपने पूर्वभव की सब घटना अवगत कर ली और णमोकर मन्त्र के दृढ़ श्रद्धान का फल समझ अपने उपकारी दयामित्र के दर्शन करने को आया और उसकी भक्त् िकर अपने स्थान को चला गया। वसुभूति का जीव स्वर्ग से चय कर अभयकुमार नामक राजा श्रेणिक का पुत्र हुआ। इसने वयस्क होते ही दीक्षा ले ली और कठोर तपश्चरण कर समाधि के साथ शरीर त्याग किया, जिससे सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ से चय कर निर्वाण प्राप्त करेगा। णमोकार मन्त्र के दृढ़ श्रद्धान द्वारा व्यक्ति सभी प्रकार के सुख प्राप्त कर सकताहै। संसार का कोई भी कार्य उसके लिए दुर्लभ नहीं होता है।

इसी ग्रन्थ की दूसरी कथा में बताया गया है कि ललितांगदेव-जैसे-व्यभिचारी, चोर, लम्पट, हिंसक व्यक्ति भी इस मन्त्र के प्रभाव से अपना कल्याण कर लिये हैं, तो अन्य व्यक्तियों की बात ही क्या? यही ललितांगदेव आगे चलकर अंजनचोर नाम से प्रसिद्ध हुआ है, क्योंकि यह चोर की कला में इतना निपुण था कि लोगों के देखते ही देखते उनके सामने से वस्तुओं का अपहरण कर लेता था। इसका प्रेम राजगृह नगरी की प्रधान वेश्या मणिकाचना से था। वेश्या ने ललितांगदेव उर्फ अंजनाचोर से कहा-‘‘प्राणवल्लभ! आज मैंने प्रजापल महाराज की कनकावती नाम की पट्टरानी के गले में ज्योति-प्रभा नामक रत्नहार देखा है। वह बहुत ही सुन्दर है। मैं उस हार के बिना एक घड़ी भी नहीं रह सकती हूँ। अतः तत्काल मुझे उस हार को ला दीजिए।’’ ललितांगदेव उर्फ अंजनचोर ने कहा-‘‘प्रिये, यह बहुत बड़ी बात नहीं है, मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। पर अभी थोड़े दिन तक धैर्य रखिए। आजकल शुक्लपक्ष है, मेरी विद्या कृष्णपक्ष की अष्टमी को कार्य करती है, अतः दो-चार दिन की बात है; हार तुम्हें लाकर जरूर दूँगा।’’

वेश्या ने स्त्रियोचित भावभंगी प्रदशित करते हुए कहा-‘‘यदि आप इस छोटी-सी मेरी इच्छा को पूरा नहीं कर सकते, ते फिर और मेरा कौन-सा काम कीजिएगा। जब मैं मर जाऊँगी, तब उस हार से क्या होगा।’’ अंजनचोर को वेश्या का ताना सहा नहीं हुआ और आंख में अंजन लगाकर हार चुराने के लिए चल पड़ा। विद्याबल से छिपकर ज्योतिप्रभा हार को उसने अपने हाथ में ले लिया। किन्तु ज्योतिप्रभा हार में लगी हुई मणियों का प्रकाश इतना तेज था, जिससे वह हार छिप न सका। चांदनी रात में उसकी विद्या का प्रभाव भी नष्ट हो गया। अतः पहरेदारों ने उसका पीछा किया। वह नगर की चहारदीवारी को लाँघकर श्मशान भूमि की ओर बढ़ा। वहाँ पर एक वृक्ष के नीचे दीपक जलते हुए देखकर वह उस पेड़ के नीचे पहुंचा और ऊपर की ओर देखने लगा। वहाँ पर 108 रस्सियों का एक सींका लटक रहा था, उसके नीचे भाला, बरछा, तलवार, फरसा, मुद्गर, शूल आदि 32 प्रकार के अस्त्र गाड़े गये थे। एक व्यक्ति वहाँ पूजा कर णमोकार मन्त्र पढ़ता हुआ एक-एक रस्सी काटता जाता था। प्रत्येक रस्सी के काटने के बाद वह भयातुर हो कभी नीचे उतरता और कभी साहस कर ऊपर चढ़ जाता; एक रस्सी काटकर नीचे आता। इस प्रकार की उसकी स्थिति देखकर अंजनचोर ने उससे पूछा-‘‘तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है? यह कौन-सा कार्य कर रहे हो? तुम किस मन्त्र का जाप करते हो और क्यों?’’

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वह बोला-‘‘मेरा नाम वारिषेण है। मैं गगनगामी विद्या को सिद्ध कर रहा हूँ। मैं पवित्र णमोकार मन्त्र का जाप कर इस विद्या को साधना चाहता हूँ। मुझे यह विधि और मन्त्र जिनदत्त श्रेष्ठि से मिले हैं।’’ अंजनचोर उसकी बातों को सुनकर हँसने लगा और बोला-‘‘तुम डरपोक हो, तुम्हें मन्त्र पर विश्वास नहीं है। अतः तुम्हें विद्या सिद्ध नहीं हो सकती है।’’ इस प्रकार कहकर अंजनचोर सोचने लगा कि मुझे तो मरना ही है जैसे भी मरूँ। अतः जिनदत्त श्रेष्ठि के द्वारा प्रतिपादित इस मन्त्र और विधि पर विश्वास कर मरना ज्यादा अच्छा है, इससे स्वर्ग मिलेगा। जरा भी देर होती है तो पहरेदारों के साथ कोतवाल आएगा और पकड़कर फाँसी पर चढ़ा देगा। इस प्रकार का विचार कर उसने वारिषेण से कहा-‘‘भाई! तुम्हं विश्वास नहीं है, तो मुझे इस मन्त्र की साधना करने दीजिए।’’ वारिषेण प्राणों के मोह में पड़कर घबरा गया और उसने मन्त्र तथा उसकी विधि अंजनचोर को बतला दी। उसने दृढ़ श्रद्धान के साथ मन्त्र की साधना की तथा 108 रस्सियों को कटा दिया। अ बवह नीचे गिरने को ही था, कि इसी बीच आकाशगामिनी विद्या प्रकट हुई और उसने नीचे गिरते हुए अंजनचोर को ऊपर उठा लिया। विद्या-प्राप्ति के अनन्तर वह अपनी उपकारी जिनदत्त सेठ के दर्शन करने के लिए सुमेरू पर्वत पर स्थित नन्दन और भ्रदशाल के चैत्यालयों में गया। यहाँ पर वह भगवान् की पूजा कर रहा था। इस प्रकार अंजनचोर को आकाशगामिनी विद्या की प्राप्ति के अनन्तर संसार से विरक्ति हो गयी, अतः उसने देवर्षि नामक चारा ऋद्धिधारी मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की और दुर्धर तप कर कर्मों का नाश कर कैलास पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया। णमोकार महामन्त्र में इतनी बड़ी शक्ति है कि इसकी साधना से अंजनचोर-जैसे व्यसनी व्यक्ति भी तद्भव में निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। इसी कथा में यह भी बतलाया गया है कि धन्वन्तरी और विश्वनुलोम-जैसे दुराचारी व्यक्ति णमोकार मन्त्र की दृढ़ साधना द्वारा कल्याण को प्राप्त हुए हैं।

धर्मामृत की तीसरी कथा में अनन्तमती के व्रतों की दृढ़ता का वर्णन करते हुए बताया गया है कि अनन्तमती ने अपने संकट दूर करने के लिए कई बार इस महामन्त्र का ध्यान किया। इस मन्त्र के स्मरण से उसका बड़ा से बड़ा कष्ट दूर हुआ है। जब वेश्या के यहाँ अनन्तमती के ऊपर उपसर्ग आया था, उस समय उसके दूर होने तक उसने समाध्मिरण ग्रहण कर लिया और अन्न-पानी का त्याग कर पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लीन हो गयी। णमोकार मन्त्र का आश्रय ही उसके प्राणों का रक्षक था। जब वेश्या ने देखा कि यह इस तरह माननेवाली नहीं है, तो उसने सोचा कि इसके प्राण लेने से अच्छा है कि इसे राजा के हाथ बेच दिया जाए।

राजा इस अनुपम सुन्दरी को प्राप्त कर बहुत प्रसन्न होगा और मुझे अपार धन देगा, जिससे मेरे जन्म-जन्मान्तर के दारिद्र्य दूर हो जाएंगे। इस प्रकार विचार कर वह वेश्या अनन्तमती को राजा सिंहव्रत के पास ले गयी और दरबार में जाकर बोली-‘‘देव, इस रमणीरत्न को आपकी सेवा में अर्जण करने आयी हूँ। यह अनाघ्रात कलिका आपके भोग करने योग्य है। दासी ने इसे पाने के लिए अपार धन खर्च किया है।’’ राजा उस दिव्य सुन्दरी को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उस वेश्या को विपुल धनराशि देकर विदा किया।

सन्ध्या होते ही राजा अनन्तमती से बोला-‘हे कमलमुखी! तुम्हारे रूप का जादू मुझ पर चल गया है, मेरे समस्त अंगोपांग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मन मेरे अधीन नहीं रहा है। मैं अपना सर्वस्व तुम्हारे चरणों में अर्पित करता हूँ। आज से यह राज्य तुम्हारा है। हम सब तुम्हारे हैं, अतः अब शीघ्र ही मनःकामना पूर्ण करो। हाय! इतना सौन्दर्य तो देवियों में भी नहीं होगा।’’

अनन्तमती णमोकार मन्त्र का स्मरण करती हुई ध्यान में लीन थी। उसे राजा की बातों का बिलकुल पता नहीं था। उसके मुख पर अद्भुत तेज था। सतीत्व की किरणें निकल रही थीं। वह एक मात्र णमोकार मन्त्र की आराधना में डूबी हुई थी। कहा गया है ‘‘सापि पंचनमस्कारं संस्मरन्ती सुखप्रदम्’’ अर्थात् वह मौन हो कर एकाग्रभाव से णमोकार मन्त्र की साधना में इतनी लीन हो गयी कि उसने राजा की बातें ही नहीं सुनीं। अब अनन्तमती से उत्तर ना पाकर राजा का क्रोध उभरा और उसने अनन्तमती को पीटना आरम्भ किया। अनन्तमती के ऊपर होनेवाले इस प्रकार के अत्याचारों को देखकर णमोकार मन्त्र के प्रभाव से उस नगर के शासनदेव का आसन हिला ओर उसने ज्ञान बल से सारी घटनाएं अवगत कर लीं। यह अनन्तमती के पास पहुंचा और आदृश्य होकर राजा को पीटने लगा। आश्चर्य की बात यह थी कि मारनेवाला कोई नहीं दिखलाई पड़ता था, केवल मार ही दिखलाई पड़ती थी। कोड़े लगने के कारण युवराज के मुंह से खून निकल रहा था। राजा-अमात्य सभी मूच्र्छित थे, फिरभी मार पड़ना बन्द नहीं हुआ था। हल्ला गुल्ला और चीत्कार सुनकर दरबार के अनेक व्यक्ती एकत्र हो गये। रानियां आगयीं, पर युवराज की रक्षा कोइ्र नहीं कर सका। जब सब लोगोे ने मिलकर मारने वाले की स्तुति की तो शासनदेव ने प्रत्यक्ष हो कहा-‘‘आप लोग इसी सती को प्रसन्न करें, मै तो सती का दास हूँ। यह कुमारी णमोकार मन्त्र के ध्यान में इतनी लीन है कि मुझे इसकी सेवा के लिए आना पड़ा है। जो भगवान की भक्ति में निरन्तर लीन हरते हैं, उनकी आराधना और सेवा आबालवृद्ध सभी करते हैं। जो मोहवश में आकर भक्ति का तिरस्कार करता है, वह अत्यन्त नीच है। जिसके पास धर्म रहता है उसके पास संसार की सभी अलभ्य वस्तुएं रहती है। व्रतविभूषित व्यक्ति यदि भगवान् के चरणों की भक्ति करता है, तो उसे संसार के सभी दुर्लभ पदर्थ अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं। णमोकार मन्त्र का ध्यान समस्त अरिष्टों को दूर करनेवाला है। जो विपत्ति में इस मन्त्र का स्मरण करता है, उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। पंचपरमेष्ठी की भक्ति और उनका स्मरण सभी पकार के सुखों को प्रदान करता है।’’पश्चात् देव ने कुमारी से कहा-‘‘हे अनन्तमती! तुम्हारा संकट दूर हुआ, नेत्रोन्मीलन करो। ये सब भक्त तुम्हारी चरण-धूलि लेने के लिए आये हैं। जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव जलना, पानी का स्वभाव शीतल, वायु का स्वभाव बहना है; उसी प्रकार णमोकार मन्त्र की आराधना का फल समस्त उपसर्ग ओर कष्टों का दूर होना है। अब इस राजकुमार को आप क्षमा करें। ये सभी नगरनिवासी आपसे क्षमा-याचना के लिए आये हैं।’’ इस प्रकार शासनदेव ने अनन्तमती के द्वारा राजकुमार को क्षमा प्रदान करायी। राजा, अमात्य तथा रानियों ने मिलकर अनन्तमती की पूजा की और हाथा जोड़कर वे कहने लगे-‘‘धर्ममूर्ते! हमने बिना जाने बड़ा अपराध किया। हम लोगों के समान संसार में कौन पापी हो सकता है। अब आप हमें क्षमा करें, यह सारा राज्य और सारा वैभव आपके चरणों में अर्पित हैं।’’ अनन्तमती ने कहा-‘‘राजन! धर्म से बड़कर कोई भी वस्तु हितकारी नहीं है। आपधर्म में स्थिर हो जाइए। णमोकार मन्त्र का विज्ञान कीजिए। इसी मन ? के स्मरण, ध्यान और चिन्तन से आप के समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे। पंचपरमेष्ठी वाचक इस महामन्त्र का ध्यान सभी पापों को भस्म करने वाला है। पापी से पापी भी इस महामन्त्र के ध्यान से सभी प्रकार के सुख प्राप्त करता है।’’ राजा ने रानियों और अमात्यसहित णमोकार मन्त्र का ध्यान किया, जिससे उनकी आत्मा में विशुद्धि उत्पन्न हो गयी।

वहां से चलकर अनन्तमती जिनालय में पहुंची और वहां आर्यिका के पास जाकर धर्म श्रवण किया। यहीं पर उसके माता-पिता से मुलाकात हुई। पिता ने अनन्तमती को घर ले जाना चाहा, पर उसने घर जाना पसन्द नहीं किया और पिता से स्वीकृति लेकर वरदत्त मुनिराज की शिष्या कमलश्री आर्यिका से जिन-दीक्षा ले ली तभि निःकांक्ष्ति हो व्रत पालन करने लगी। वह दिन-रात णमोकार मन्त्र के ध्यान में लीन रहती थी तथा उग्र तपश्चरण करने में लीन थी। अन्तिम समय में उसने समाधिमरण धारण किया; जिससे स्त्रीलिंग का छेद कर बारहवें स्वर्ग में 18 सागर की आयु प्राप्त कर देव हुई। इस प्रकार णमोकार मन्त्र की साधना से अनन्तमती ने अपने सांसारिक कष्टों को दूर कर आत्म-कल्याण किया।

धर्मामृत की चैथी कथा में बताया गया है कि नारायणदत्ता नामक संन्यासिनी के बहकावे में आकर मालव नरेश चण्डप्रद्योत ने रौरवपुर नरेश उद्दायन की पत्नी प्रभावती के रूप-सौन्दर्य का लोभी बनकर राजा उद्दायन की अनुपस्थिति में रौरवपुर पर आक्रमण किया। उस समय रानी प्रभावती के शील की रक्षा णमोकार मन्त्र की आराधना से ही हुई। प्रभावती ने अन्नतजल का त्याग कर इस मन्त्र का ध्यान किया। राजा चण्डप्रद्योत की सेना जिस समय नगर में उपद्रव कर रही थी, उसी समय आकाश मार्ग से अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना के लिए देव जा रहे थे। प्रभावती के मन्त्र-स्मरण के प्रभाव से देवों का विमान रौरवपुर के ऊपर से नहीं जा सका। देवों ने अवधिज्ञान से विमान के अटकने का कारण अवगत किया तो उन्हें मालूम हुआ कि इस नगर में घिरी सती के ऊपर विपत्ति आयी है। सती के ऊपर होने वाले अत्याचार को अवगत कर एक सम्यग्दृष्टि देव उसकी रक्षा के लिए उद्यत हुआ। उसने अपनी शकित से चण्डप्रद्योत की सेना को उड़ाकर उज्जयिनी में पहुंचा दिया और नगर का सारा उपद्रव शान्त कर दिया।

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रानी प्रभावती की परीक्षा करने के लिए उस देव ने चण्डप्रद्योत का रूप धारण किया और समस्त प्रजा को महानिद्रा में मग्न कर विक्रिया ऋद्धि के बल से चतुरंग सैना तैयार की और गढ़ कोचारों ओर से घेर लिया। नगर में मायावी आग लगा दी, मार्ग और सड़कों पर कृत्रिम रक्त की धार बहने लगी, सर्वत्र भय व्याप्त कर किया अैर प्रभावती देवी के पास आकर बोला-‘‘मैंने तुम्हारी सेना को मार डाला है। अब आप पूरी तरह से मेरे अधीन है।; अतः आंखें खोलकर मेरी ओर देखिए। आपके पति उद्दायन राजा को भी पकड़कर कैद कर लिया है। अब मेरा सामना करने वाला कोई नहीं है। आप मेरे साथ चलिए और पटरानी बनकर संसार का आनन्द लीजिए। आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा।’’

रानी राजा चण्डप्रद्योत के रूपधारीदेव के वचनों को सुनकर णमोकार मन्त्र के ध्यान में और भी लीन हो गयी और स्थिरतापूर्वक जिनेन्द्र प्रभु के गुणों का चिन्तन करने लगी।उसने निश्चय किया कि प्राण जाने तक शील को नहीं छोडूंगी। इस समय णमोकार मन्त्र ही मेरा रक्षक है। पंचपरमेष्ठीी की शरण् ही मेरे लिए सहायक है। इस प्रकार निश्चय कर वह ध्यान में और दृढ़ हो गयी। देव ने पुनः कहा-‘‘अब इस ध्यान से कुछ नहीं होगा, तुम्हें मेरे वचन मानने पड़ेंगे।’’ परन्तु प्रभावती तनिक भी विचलित नहीं हुई और णमोकार मन्त्र का ध्यान करती रही। प्रभावती की दृढ़ता से प्रसन्न होकरदेव ने अपना वास्तविक रूप धारण किया और रानीसे बोला-‘‘देवि! आप धन्य हैं। मैं देव हूँ, मैंने चण्डप्रद्योत की सेना को उज्जयिनी पहुंचा दिया है तथा विक्रियाबल से आपकी सेना और प्रजा को मूच्र्छित कर दिया है। मैं आपके सतीत्व ओर भक्तिभाव की परीक्षा कर रहा था। मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूँ। आपके ऊपर किसी भी प्रकार की अब विपत्ति नहीं है। मध्यलोक वास्तव में सती नारियों के सतीत्व पर ही अवलम्बित है।’’ इस प्रकार कहकर पारिजात पुष्पों से रानी की पूजा की, आकाश में दुन्दुभि बाजे बजने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी। पंचपरमेष्ठी की जय और जिनेन्द्र भगवान की जय के नारे सर्वत्र सुनाई पड़ते थे। णमोकार की आराधना के प्रभाव से रानी प्रभावती ने अपने शील कील रक्षा की तथा आर्यिका से दीक्षा ग्रहण कर तप किया, जिससे ब्रह्मस्वर्ग में दस सागरोपम आयु प्राप्त कर महर्घिदेव हुई।

इस ग्रन्थ की बारहवीं कथा में बताय गया है कि जिनपालित मुनिएक दिन एकाकी विहार करते हुए आ रहे थें उज्जयिनी के पास आते-आते सूर्यास्त हो गया, अतः रात में गमन निषिद्ध होने से वह भयंकर श्मशानभूमि में जाकर ध्यानस्थ हो गये। सूर्योदय तक इसी स्थान पर रहेंगे, ऐसा नियम कर वहीं एक ही करवट लेट गये। धनुषाकार हो कर उन्हेांने ध्यान लगाया। योग में मुनिराज इतनी लीन थे कि उन्हें अपने शरीर का भी होश नहीं था।

मध्यरात्रि में उज्जयिनी का विडम्ब नामकर साधक मन्त्र विद्या सिद्ध करने के लिए उसी श्मशानभूमि में आया। उसने योगस्थ जिनपालत मुनि को मुरदा समझा, अतः पास की चित्तओं से दो-तीन मुरदे ओर खींच लाया। जिनपालित मुनि और अन्य मुरदों को मिलाकर उसने चूल्हा तैयार किया और इस चूल्हे में आग जलाकर भात बनाना आरम्भ किया। जब आग की लपटैं जिनपालित मुनि के मस्तक के पास पहुंची, तब भी वह ध्यानस्थ रहे। उन्होंने अग्नि की कुछ भी परवाह नहीं की। मुनिराज सोचने लगे-स्त्री बिना पुत्र, दूध बिना मक्खन, सूत बिना कपड़ा और मिट्टी बिना घड़े का बनना जैसे असम्भव है, उसी पाकार उपसर्ग बिना सहे कर्मों का नष्ट होना असम्भव है। उपसर्ग की आग से कर्मरूपी लकडी जलकर भस्म हो जाती है। इस पर्याय की प्राप्ति, और इससे भी दिगम्बर दीक्षा का मिलना बडे सौभाग्य की बात है। जो व्यक्ति इस प्रकार के अवसरों पर विचलित हो जाते हैं, वे कहीं के नहीं रहे। जीव के परिणाम ही उन्नति-अवनति के साधन हैं। परिणाम जैसे-जैसे विशुद्ध होते जाते हैं, वैे-वैसे यह जीव आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो जाता है। परिणामों की शुद्धि का साधन णमोकार मन्त्र है। इस मन्त्र की आरधाना से परिणामों में निर्मलता आ जाती है,आतमा अपने ज्ञान दश्रन, चैतन्यमय स्वरूप को समझ लेता है। अतः णमोकार मन्त्र की साधना ही संकटकाल में सहायक होती है। इसी के द्वारा मोहममता को जीता जा सकता है। जड़ ओर चेतन का भेद-भाव इसी महामन्त्र की साधना से प्राप्त होता है। आत्मरस का स्वाद भी पंचपरमेष्ठी के गुणचिन्तन से प्राप्त होता है। इस प्रकार जिनपालित मुनि ने द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन किया। महाव्रत ओर समिति के स्वरूप का विचार कर परिणामों को दृढ़किया। अनन्तर सोचने लगे कि व्रतों की महिमा अचिन्त्य है। व्रत पालन करने से चाण्डाल भी देव हो गया, कौवे का मासं छोउ़ने से खदिर सागर इन्द्र पदवी को प्राप्त हुआ। णमोकार मन्त्र केप्रभाव से कितने ही भव्य जीवों ने कल्याण प्र्राप्त किया है। दृढ़सूर्य नामक चोर चोरी करे पकड़ा गया, दण्डस्वरूप शूली पर चढ़ाया गया, पर णमोकार मन्त्र के स्मरण से देवपद प्राप्त हो गया। सोमशर्मा की स्त्री नेवरदत्त मुनिराज को अविभावपूर्वक आहार दान दिया था तथा अन्तिम समय में णमोकार-मन्त्र की आराधन की थी, जिससे वह देवांगना हुई। नमि और विनमि ने भगवान् आदिनाथ की आराधना की थी, जिससे धरणेन्द्र ने आकर उनकी सेवा की। क्या पंचपरमेष्ठी की आराधना करना सामान्य बात जळ। द्रुमसेन ने जिनेश्वर मार्ग को समझकर णमोकार मन्त्र की साधना की, जिससे पिण्डस्थ, पदस्थ अैर रूपस्थ ध्यान के अनन्तर रूपातीत ध्यान किया और कर्मों का नाश कर मोक्षलाभ किया। अतः इस समय सभी प्रकार के उपसर्गों को जीतनपरम आवश्यक है। णमोकार मन्त्र ही मेरे लिए शरण है।

अग्नि उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। जिनपालित का सारा शरीर भस्म हो रहा था, पर वह णमोकार मन्त्र की साधना में लीन थे। परिणाम और विशुद्ध हुए और णमोकार मन्त्र के प्रभाव से श्मशान-भूमि के रक्षक देव ने प्रकट हो उपसर्ग दूर किया तथा मुनिराज के चरण-कमलों कीपूजा की। इस प्रकार णमोकार मन्त्र की साधना से जिनपालित मुनि ने अपूर्व आत्मसिद्धि प्राप्त की।

इस ग्रन्थ की तेरहवीं कथा में आया है कि एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्यों सहित मलवदेश पहुंचे, वहां का राजा सिंहसेन था। इसकी स्त्री का नाम चन्द्रलेखा थ। चन्द्रलेखा अपनी सखियों के साथ सहस्कूट चैत्यालय का दर्शन कर लौट रही थी। इतने में एक मदोन्मत्त हाथी चिंघाड़ता हुआ और मार्ग में मिलने वालों का रौंदता हुआ चन्द्रलेखा के निकट आया। चारों ओर हाहाकार मच गया, चन्द्रलेखा की सखियां तो इधर-उधर भाग गयीं, किन्तु वह अपने स्थान पर ही घबराकर गिर गयी। उसने उपसर्ग के दूरे होने पर सन्यास ले लिया और णमोकार मन्त्र के ध्यान में लीन हो गयी। हाथी चन्द्रलेखा को पैरो के नीचे कुचलने वाला ही था, सभी लोग किनारे पर खड़े इस दयनीय दृष्श्य को देख रहे थे। द्रोणाचार्य के शिष्य भी इस अप्रत्याशित घटना को देखकर घबरागये। प्रमाति कुमार को चन्द्रलेखा पर दया आयी, अतः वह हाथी को पकड़नेे लिए दौड़ा। अपने अपूर्व बल से तथा चन्द्रलेखा के णमोकार मन्त्र के प्रभाव से उसने हाथी को पकड़ लिया, जिससे चन्द्रलेखा के प्राण बच गयें वह कुमारी णमोकार मऩ्त्र की अत्यन्त भक्तिन बन गयी ओर सर्वथा इस मन्त्र का चिन्तन किया करती थी। चन्द्रलेखा का विवाह भी प्रमाति कुमार के साथ हो गया; क्योंक प्रमाति कुमारने ही स्वयंवर में चन्द्रवेध कियां प्रमाति कुमार के इस कौशल के कारण उसके साथी भी इससे ईष्र्या रखते थे। एक दिन वह जंगल में गया था, वहां एक मन्दोन्मत्त वनगत सामने आता हुआ दिखाइ दिया। प्रमाति कुमार ने धैर्यपूर्वक णमेकार मन्त्र का स्मरण किया और हाथी को पकड लिया। इस कार्य से उसके साथियों पर अच्छा प्रभाव पड़ा और वे अपना वैर-विरोध भूलकर उससे प्रेम करने लगे।

एक दिन कौशाम्बी नगरी से दूर आया और उसने कहा कि दन्तिबल राजा पर एक माण्डलिक राजा ने आक्रमण करदियाहै। शत्रुओंने कौशाम्बी के नगर को तोड दिया है। राजा दन्तिबल वीरतपूर्वक युद्ध कर रहा है, पर युद्ध में विजय प्राप्त करना कठिन है। प्रमाति कुमार ने मालव नरेश से भी आज्ञा नहीं ली ओर चन्द्रलेखा के साथ रात में णमोकार मन्त्र का जाप करता हुआ चला। मार्ग में चोर-सरदार से मुठभेड़ भी हुई, पर उसे परास्त कर कौशाम्बी चला आया और वीरतपूर्वक युद्ध करने लगा। राजा दन्तिबल ने जब देखा कि कोइ्र उसकी सहायता कर रहा है, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। प्रमाति कुमार ने वीरतापूर्वक युद्ध किया जिससे शत्रु के पैर उखड गये और वह मैदान छोड़कर भाग गया। राजा दन्तिबल पुत्र को प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। चन्द्रलेखा ने ससुर की चरणधूलि सिर पर धारण की। दन्तिबल को वृृद्धावस्था आजाने से संसार से विरक्ति हो गयी। फिर उन्हांने प्रमाति कुमार को राज्यभार दे दिया। प्रमाति कुमार न्याय-नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। एक दिन वन में मुनिराज का आगमन सुनकर वह अमात्य, सामन्त और महाजनों सहित मुुनिराज के दशर््न करने को गया। उसने भक्तिभावपूर्वक मुनिराज की वन्दना की और उनका धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरकत रहने लगा। कुछ दिनों के उपरान्त एक दिन अपने श्वेत केश देखकर उसे संसार के बहुत घृणा हुई और अपनेपुत्र विमलकीत्रि को बुूला कर राज्यभार सौंप दिया और स्वयं दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चरण करने लगा। मरणकाल निकट जानकर प्रमाति कुमान ने सल्लेखनमररण धारण किया तथा णमोकार मन्त्र का स्मरण करते हुए प्राणों का त्याग किया; जिससे पन्द्रहवें स्वर्ग में कीर्तिधन नामक महर्द्धिकदेव हुआ। णमोकार मन्त्र का ऐसा ही प्रभाव है, जिससे इस मन्त्र के ध्यान से सांसारिक कष्ट दूर होे हैं, साथ परलोक में महानसुखप्राप्त होता है। धर्मामृत की सभी कथाओं में णमोकार मन्त्र की महत्त प्रदशित की गयी है। यद्यपि ये कथाएं सम्यक्त्व के आठ अंग तथा पंचागुण्व्रतों की महत्त दिखलाने के लिए लिखी गयी है, पर इस मन्त्र का प्रभाव सभी पात्रों पर है।

पुण्यास्त्रव कथाकोष में इस महामन्त्र के महत्व को प्रकट करनेवाली आठ कथाएं आयी है। प्रथम कथा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इस महामन्त्र की आरधना करके तिर्यंच भी मानव पर्याय को प्राप्त होते हैं। कहा है-

प्रथम मन्त्र नवकार सुन तिरौ बैल को जीव
ता प्रतीत हिरदै धरी भयो राम सुग्रीव।।
ताके बरनन करत हँू जानो मन वच काय।
महामन्त्र हिरदै धरे सकल पाप मिट जाय।।
णमोकार का महापुण्य है अकथनीय उसकी महिमा।
जिसके फल से नीच बैल ने पाई सद्गति गरिमा।।
देखो! पदमरूचिर जिस फल से हुए राम से नृपति महान्।
करो ध्यान युत उसकी पूजा यही जगत् में सच्चा मान।।

अयोध्या में जब महाराज रामचन्द्र जी राज्य करते थे, उस समय सकलभूषण केवलज्ञान के धारी मुनिराज इस नगर के एक उद्यान में पधारे। पूजा-स्तुति करने के उपरान्त विभीषण ने मुनिराज से पूछा कि ‘‘प्रभो! कृपा कर यह बतलाइए कि किस पुण्य के प्रभाव से सुग्रीव इतना गुणी और प्रभावशाली राजा हुआ है। महाराज रामचन्द्र जी की तथा सुग्रीव की पूर्व भावावलि जानने की बड़ी भारी इच्छा है।’’

केवली भगवान् कहने लगे-इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में श्रेष्ठपुरी नाम की एकप्रसिद्ध नगरी है। इस नगरी में पद्मरूचि नाम का सेठ रहता था, जो अत्यन्त धर्मात्मा, श्रद्धालु और सम्यग्दृष्टि था। एक दिन वह गुरू का उपदेश सुनकर घर जा रहा था कि रास्ते में एक घायल बैल को पीडा से छटपटाते हुए देखा। सेठ ने दया कर उसके काम में णमेकार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभाव से मरकर वह बैल इसी नगर के राजा का वृषध्वज नाम का पत्रु हुआ। समय पाकर जब वह बड़ा हुआ तो एक दिन हाथी पर सवार होकर वह नगर-परिभ्रमण को चला। मार्ग में जब राजा का हाथी उस बैल के मरने के स्थान पर पहुंचा तो उस राजा को अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया तथा अपने उपकारी का पता लगाने के लिए उसने एक विशाल जिनालय बनवाया, जिसमें एक बैल के कान में एक व्यक्ति णमेकार मन्त्र सुनाते हुए अंकित किया गयां उस बैल के पास एक पहरेदार को नियुक्त कर दिया तथा उस पहरेदार को समझा दिया कि जो कोई इस बैल के पास आकर आश्चर्य प्रकट करे, उसे दरबार में ले आना।

एक दिन उस नवीन जिनालय के दश्र करने सेठ पद्मरूचि आया ओर पत्थर के उस बैल के पास णमेार मन्त्र सुनाती हुई प्रस्तर-मूर्ति अंकित देखकर आश्चर्यान्वित हुआ। वह सोचने लगा कि यह मेरी आज से 25 वष्र पहले की घटना यहाँ कैसे अंकित हो गयी है। इसमें रहस्य है,इस प्रकार विचार करता हुआ आश्चर्य प्रकट करने लगां पहरेदान ने जब सेठ को आश्चर्य में पड़ा देखा तो वह उसे पकड़कर राजा के पास ले गयां

राजा-सेठ जी! आपने उस प्रस्तर-र्मूति को देखकर आश्चर्य क्यों प्रकट किया ?

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सेठ-राजन! आज से पचीस वर्ष पहले की घटना का मुझे स्मरण आया। मैं जिनालय से गुरू का उपदेश सुनकर अपने घर लौट रहाथा कि रास्ते में मुझे एक बैल मिला। मैंने उसे णमेकार मन्त्र सुनाया। यही घटना उस प्रस्तर-मूर्ति में अंकित है। अतः उसे देखकर मुझे आश्चर्यान्वित होना स्वाभाविक है।

राजा-‘‘सैठजी! आज मैं अपने उपकारी को पाकर धन्य हो गया। आपकी कृपा से ही मैं राजा हुआ हूँ। आपने मुझे दया कर णमोकर मन्त्र सुनाया जिसके पुण्य केप्रभाव से मेरी तिर्यंच जाति छूट गयी तथा मनुष्य पर्याय और उत्तम कुल की प्राप्ति हुई। अब मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूँ। मैंने आपका पता लगाने के लिए ही जिलनायल में यह प्रस्तर-मूर्ति अंकित करायी थी। कृपाया आपइस राज्यभार को ग्रहण करें और मुझे आत्मकल्याण का अवसर दें। अब मैं इस मायाजाल में एक क्ष्ण भी नहीं रहना चाहता हूँ।’’ इतना कहकर राजा ने सेठ के मस्तक पर स्वयं ही राज मुकुट पहना दिया तथा राज्यतिलक कर दिगम्बर दीक्षा धारण की। यह कठोर तपश्चरण करता हुआ णमोकर मन्त्र की साधना करने लगा और अन्तिम समय में सल्लेखना धारण कर प्राण त्याग दिये, जिससे वह सुग्रीव हुआ है। सेठ पद्मरूचि ने अन्तिम समय में सल्लेखना धारण की तथा णमोकार मन्त्र की साधना की; जिससे उनका जीव महाराज रामचन्द्र हुआ हैं इस णमोकार मन्त्र में पाप मिटाने और पुण्य बढ़ाने की अपूर्व शक्ति है। केवली मुनिराज के द्वारा इस प्रकार णमोकार मन्त्र की महिमा को सुनकर विभीषण, रामचन्द्र, लक्ष्मण औरभरत आदि सभी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

णमोकार मन्त्र के स्मरण से बन्दर ने भी आत्मकल्याण किया है। कहा जाता है कि अर्धमृतक एक बन्दर को मुनिराज ने दया कर णमोकार मन्त्र सुनाया। उस बन्दर ने भी भक्तिभावपर्वूक णमोकार मन्त्र सुना, जिसके प्रभाव सेउस चित्रांगद के जीव ने च्युत होकर मानव पर्याय प्राप्त की और अपना वास्तविक कल्याण किया।

तीसरी कथा में बताया गया है कि काशी के राजा की लडकी का नाम सुलोचना था। यह जैनध्र्म में अत्यन्त अनुरक्त थी। वह सतत विद्याभ्यास में लीन रहती थी। अतःउसके पिता ने अपने मित्र की कन्या के साथ उसे रख दिया। दोनों सख्यिां बडे प्रेम के साथ विद्याभ्यास करने लगीं। सुलोचना की इस सखी का नाम विन्ध्यश्री था। एक दिन विन्ध्यश्री फूल तोड़ने बगीचे में गयी, वहाँ एक साँप न उसे काट लिया जिससे वह मूच्र्छित होकर गिर पड़ी। सुलोचना ने उसे णमोकार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभाव से वह मरकर गंगा देवी हुई तथा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगी। कहा है:

महामन्त्र को सुलोचना से विन्ध्यश्री ने जब पाया।
भक्ति-भाव से उसने पायी गंगा देवी की काया।।
क्यों न कहेगा अकथनीय है नमस्कार महिमा भारी।
उसे भजेगा सतत नेम से बन जावेगा सुखकारी।।

चैथी कथा में आया है कि चारूदत्त ने एक अद्ध्र्रदग्ध पुरूष को, जिसे एक सन्यासी ने धोखा देकर रसायन निकलाने के लिए कुएं में डाल दिया था ओर जिसका आधा शरीर वर्षों से उस अन्धकूप में रहने के कारण जल गया था, जिससे उसमें चलने-फिरने की भी शक्ति नहीं थीं, जिसके प्राणों का अन्त ही होना चाहता था, उसे चारूदत्त ने णमोकार मन्त्र सुनाया। अंतिम समय में इस महामन्त्र के श्रवणमात्र? से उसकी आत्मा में इतनी विशुद्धि आयी जिससे वहप्रथम स्वर्ग मेंदेव हुआ। आगे इसी कथा में बतलाया गया है कि चारूदत्त ने एक मरणासन्न बकरे को भी णमोकार मन्त्र सुनाया। जिससे वह बकरे क जीव भी स्वर्ग में देव हुआ।

पुण्यास्त्रव-कथाकोष की एक कथा में बतलाया गया है कि कीचड़ में फँसी हुई हथिनी णमेकार मन्त्र के श्रवण से उत्तम मानव पर्याय को प्राप्त हुई। कहा गया है कि गुणवती का जीव अनेक पर्यायों को धारण करने के पश्चात् एक बार हथिनी हुआ। एक दिन वह हथिनी कीचड़ में फँस गयी और उसका प्राणान्त होने लगा।इसी बीच सुरंग नाम का विद्याधर आया और उसने हथिनी को णमोकार मन्त्र सुनाया; जिसके प्रभाव से वह मरकर नन्दवती कन्या हुई और पश्चात् सीता के समान सती-साध्वी नारी हुई। महामन्त्र काप्रभाव अद्भुत है। कहा गया है:

हथिनी की काया से कैसे हुई सती सीता नारी।
जिसने नारी युग में पायी पातिव्रत पदवी भारी।।
नमस्कार ही महामन्त्र हे ीाव सागर की नैया।
सदा भजोगे पार करेगा बन पतवार खिवेया।।

पाश्र्वपुराण में बताया गया है कि भगवान पाश्र्वनाथ ने अपनी छद्मस्थ अवस्था में जलते हुए नाग-नागनी को णमोकार महामन्त्र का उपदेष दिया, जिसके प्रभाव से वे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। इसी प्रकार जीवनधर स्वमी ने कुत्ते को णमोकार महामन्त्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से कुत्त स्वर्ग में देव हुआ। आरधना कथा कोश में इस महामन्त्र के माहात्म्य की कथा का वर्णन करते हुए कहा है की चम्पानगरी के सेठ वृष्भदत्त के यहाँ एक ग्वाला नौकर था। एक दिन वहवन से अपने घर आ रहा था, कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। उसे रास्ते में ऋद्धिधारी मुनि के दर्शन हुए, जो एक शिलातल पर बैठकर ध्यान कर रहे थे। ग्वाले को मुनिराज के ऊपर दया आयी और घर जाकर अपनी पत्नी सहित लौट आया तथा मुनिराज की वैयावृत्ति करने लगा। प्रातःकाल होने पर मुनिराज काध्यान भंग हुआ और ग्वाले को निकट भव्य समझकरउसे णमोकार मन्त्र का उपदेश दिया। अब तो उस ग्वाले कायह नियम बन गया कि वह प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ करने पर णमोकार मन्त्र का नौ बार उच्चारण करता। एक दिन वह भैंस चराने के लिए गया था। भैंसें नदी में कूदकर उस पार जाने लगीं, अतः ग्वाला उन्हें लौटाने के लिए अपने नियामनुसार णमोकारमन्त्र पढ़कर नदी में कूद पड़ा। पेट में एक नुकीली लकडी चुभ जाने से उसका प्राणान्त हो गया और णमोकार मन्त्र के प्रभाव से उसी सेठ के यहां सुदर्शन नाम का पुत्र हुआ। सुदर्शन ने उसी भाव से निर्वाण प्राप्त किया। अतः कथा के अन्त में कहा गया है:

‘‘इत्थं ज्ञात्वा महाभव्यैः कर्तव्यः परया मुदा।
सारपंचनमस्कार-विश्वासः शर्मदः सताम्।।’’

अर्थात् णमोकार मन्त्र का विश्वास सभी प्रकार सुखों को देनेवाला है। जो व्यक्ति श्रद्धापर्वूक इस महामन्त्र का उच्चारण, स्मरण या चिन्तन करता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।

इस महामन्त्र की महत्ता बतलानेवाली एक कथा द्ढ़सूर्य चोर की भी इसी कथाकोश में आयी है। बताया गया है कि उज्जयिनी नगरी में एक दिन वसन्तोत्सव के समय धनपाल राजा की रानी बहुमूल्य हार पहनकर वनविहार के लिए जा रही थी। जब उसके हार पर वसन्तसेना वेश्या की दृष्टि पड़ी तो वह उस पर मोहित हो गयी और प्रेमी दृढ़सूर्य से कहने लगी कि इस हार के बिना तो मेरा जीवित रहना सम्भव नहीं। अतः किसी भी तरह हो, इस हार को ले आना चाहिए। दृढ़सूर्य राजमहल में गया ओर उस हार को चुराकर ज्यों ही निकला, त्यों ही पकड लिया गया। दृढ़सूर्य फाँसी पर लटकाया जा चुका था, पर अभी उसके शरीर में प्राण अवशेष थे। संयोगवश उसी मार्ग से धनदत्त सेठ जा रहा थां दृढ़सूर्य ने उससे पानी पिलाने को कहा । सेन ने उत्तर दिया-‘‘मेरे गुरू ने मुक्षे णमोकार मन्त्र दिया है। अतः मैं जब तक पानी लाता हूँ, तुम इसे स्मरण रखो।’’ इस प्रकार दृढ़सूर्य को णमोकार मन्त्र सिखला कर धनदत्त पानी लाने चला गया। दृढ़सूर्य ने णमोकार मन्त्र का जोर-जोर से उच्चारण आरम्भ किया। आयु पूर्ण होने से उस चोर का मरण हो गया और वह णमोकार मन्त्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।

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जम्बूस्वामी-चरित में आया है कि सेठ अर्हद्दास का अनुज सप्तव्यसनों में आसक्त था। एक बा रवह जुए में बहुत-सोना हार गया और इसधन को न दे सकने के कारण दूसरे जुआरी इसे मार-मारकर अधमरा कर दिया। सेठ अर्हद्दास ने अन्त समय में णमेकार मन्त्र सुनया, जिसके प्रभाव से यह यक्ष हुआ। इस प्रकार णमोकार मन्त्र के प्रभाव से अगणित व्यसनी और पापी व्यक्तियों ने अपना सुधार किया है तथा वे सद्गति को प्राप्त हुए हैं। इस माहमन्त्र की आराधना करने वाले व्यक्ति को भूत, पिशाच और व्यन्तर आदि की किसी भी प्रकार की बाधा नहीं हो सकती है। धन्यकुमार-चरित की सुभौम चक्रवर्ती की निम्न कथा से यह बात सिद्ध हो जाएगी।

आठवें चक्रवर्ती सुभौम के रसोइये का नमा जयसेन था। एक दिन भोजन के समय इस पाचक ने चक्रवर्ती के आगे गरम-गरम खीर परोस दी। गरम खीर से चक्रवर्ती का मुंह जलने लगा; जिससे क्रोध मेें आकर खीर के रखे हुए बर्तन को उस पाचक के सिर पर पटक दिया; जससे उसका सिर जल गया। वह इस कष्ट से मरकर लवणसमुद्र में व्यन्तर देव हुआ। जब उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव की जानकारी प्राप्त की तो उसे चक्रवर्ती के ऊपर बड़ा क्रोध आया। प्रतिहिंसा की भावना से उसका शरीर जलने लगा। अत वह तपस्वी का वेष बनाकर चक्रवर्ती के यहां पहुंचा। उसके हाथ में कुछ मधुर ओर सुन्दर फल थे। उसने उन फलों को चक्रवर्ती को दिया, वह फल खाकर बहुत प्रसन्न हुआ। उन्होंने उस तापस से कहा-‘‘महाराज, ये फल अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट है। आप इन्हें कहां से लये हैं और ये कहां मिलेंगे।’’ तपास रूपधीर व्यन्तर देव ने कहा-‘‘समुद्र के बीच में एक छोटा-सा टापू है। मैं वही निवास करता हूँ। यदि आप मुझ गरीब पर कृपा कर मेरे घर पधारें तो ऐसे अनेक फल भेंट करूँ।’’ चक्रवर्ती जिहृा के लोभ में फंस कर व्यन्तर के झांसे में आ गये और उसके साथ चल दिये। जब व्यन्तर समुद्र के बीच में पहुंचा तब वह अपने प्रकृत रूप में प्रकट होकर लाल-लाल आंखें कर बोला-‘‘दुष्ट, जानता है, मैं तुझे यहां क्यों लाय हूँ। मैं ही तेरे उस पाचक का जीव हूँ, जिसे तूने निर्दयता पूर्वक मार डाला था। अभिमान सदा किसी का नहीं रहत। मैं तुझे उसी का बदला चुकाने के लिए लाया हूँ।’’ व्यन्तर के इन वचनों को सुनकर चक्रवर्ती भयभीत हुआ और मन-ही-मन णमोकार मन्त्र का ध्यान करने लगा। इस महामन्त्र के सामथ्र्य के समक्ष उस व्यन्तर की शक्ति काम नहीं कर सकी। अतः उस व्यन्तर ने पुनः चक्रवर्ती से कहा-‘‘यदि आप अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं तो पानी में णमोकार मन्त्र को लिखकर उसे पैर के अंगूठे से मिटा दें। मैं इसी शर्त के ऊपर आपको जीवित छोड़ सकता हूँ। अन्यथा आप का मरण निश्चित है।’’ प्राण रक्षा के लिए मनुष्य को भले-बुरे का विचार नहीं रहता; यही दशा चक्रवर्ती की हुई। व्यन्तरदेव के कथानानुसार उसने णमेकार मन्त्र को लिखकर पैर के अंगूठे से मिटा दिया। उनके उक्त क्रिया सम्पन्न करते ही, व्यन्तर ने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया। क्योंकि इस कृत्य के पूर्व वह णमोकार मन्त्र के श्रद्धानी को मारने का साहस नही कर सकता था। अतः उस समय जिन शासनदेव उस व्यन्तर के इस अन्याय को रोक सकते थे; किन्तु णमेकार मन्त्र के मिटा देने से व्यन्तरदेव ने समझ लिया था धर्म-देषी है, भगवान् का भक्त नहीं। श्रद्धा या अटूट विश्वास इसमें नहीं है। अतः उस व्यन्तर ने उसे मार डाला। णमोकार मन्त्र के कारण उसे सप्तम न कर की प्राप्ति हुई। जो व्यक्ति णमोकार मन्त्र के दृढ़ ज्ञानी हैं, उनकी आत्मा में इतनी अधिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे भूत, प्रेत, पिशाच आदि उनका बाल भी बांका नहीं कर पाते। आत्मस्वरूप इस मन्त्र का श्रद्धान संसार से पार उतारने वाला है तथा सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का प्रधान हेतु है। शान्ति, सुख और समता का कारण यही महामन्त्र है।

श्वेताम्बर धर्म कथा साहित्य में भी इस महामन्त्र के सम्बन्ध में अनेक कथाएं उपलब्ध होती हैं। कथा रत्नकोष में श्रीदेव नृपति के कथन में इस महामन्त्र की महत्ता बतलायी गयी है। णमोकार मन्त्र के एक अक्षर या एकपद के उच्चारणमात्र से जन्म-जन्मान्तर के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने से अन्धकारनष्ट हो जात है, कमलश्री वृद्धिंगत होने लगती हे, उसी प्रकार इस महामन्त्र की आराधना से पाप तिमिर लुप्त हो जते हैं ओर पुण्यश्री बढ़ती है। मुनष्यों की तो बात ही कया तिर्यंच, भील-भीलनी, नीच-चाण्डाल आदि इस महामन्त्र के प्रभाव से मरकर स्वर्ग में देव हुए और वहां से चय कर मनुष्य की पर्याय प्राप्त होकर निर्वाण प्राप्त किया है। स्त्रीलिंग का छेद और समाधिमरण की सफलता इसी मन्त्र की धारणा पर निर्भर है।

कथासाहित्य में एक भील-भीलनी की कथा आयी है, जिसमें बताय गया है कि पुष्कारावर्त द्वीप के भरत क्षेत्र में सिद्धकूट नाम का नगर है। उसमें एक दिन शान्त तपस्वी वीतरगी सुव्रत नाम के आचार्य पधारे। वर्षाऋतु आरम्भ हो जाने के कारण चातुर्मास उन्होंने वही ग्रहण किया। एक दिन मुनिराज ध्यानस्थ थे कि भील-भीलनी दम्पती वहां आये। मुनिराज का दर्शन करे ही उनका चिरसंचित पाप नष्ट हो गया, उनके मन में अपर्वू प्रसन्नता हुई और दोनों मुनिराज का धर्मोपदेश सुनने के लिए वहीं पर ठहर गये। जब मुनिराज का ध्यानटूटा तो उन्होंने भील-भीलनी को नमस्कार करते हुए देखा। महाराज ने धर्मबुद्धि को आशीर्वाद दिया। आशीर्वाद प्राप्त कर वे दोनों अत्यंत आह्दित हुए और हाथ जोड़कर कहने लगे-प्रभो! हमें कुछ धर्मोपदेश दीजिए। मुनिराज ने णमोकार मन्त्र उनहे सिखलाया, उन दोनों ने भक्ति-भावपूर्वक णमोकार मन्त्र का जापआरम्भ किया। श्रद्धापूर्वक सर्वदा त्रिकाल इस महामन्त्र का जाप करने लगे। भील ने मृत्यु के समय भी भक्ति-भावपूर्वक इस महामन्त्र की आराधना की, जिससे वह मरकर राजपुत्र हुआ। भीलनी ने भी सुगति पायी।

आगे बतलाया गया है कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मणिमन्दिर नाम का नगर था। उस नगर के निवासी अत्यन्त धर्मात्मा, दानपरायण, गुणग्राही और सत्पुरूष थे। इस नगर के राजा का नाम मृगंाक था और इसकी रानी का नाम विजय। इन्हीं दम्पती का पुत्र मोकार मन्त्र के प्रभाव से उस भील का जीवन हुआ। इस भव में इसका नाम राजसिंह रखा गया। बड़े होने पर राजसिंह मन्त्री-पुत्र के साथ भ्रमण के लिए गया। रास्ते में थककर वह वृक्ष की छया में विश्राम करने लगा। इतने में एक पथिक उसी मार्ग से आया ओर राजपुत्र के पास आकर विश्राम करने लगा। बातचीत के सिलसिले में उसने बतलाया कि पद्पुर में पद्म नामक राजा रहता है, इसकी रत्नवती नाम की अनुपम सुन्दर पुत्री हैं जब इसका विवाह सम्बन्ध ठीक हो रहा था, तब एक नट के नृत्य को देखकर उसे जाति-स्मरण हो गय, अतः उने निश्चय किया कि जो मेरे पर्वूभ्व के वृत्तन्त को बतलाएगा, उसी के साथ मैं विवाह करूंगी। अनेक देशों के राजपुत्र आये, पर सभी निराश होकर लौट गये। राजकुमारी के पूर्वभ्व के वृत्तान्त को कोई नहीं बतला सका। अब उस राजकुमारी ने पुरूष का मुंह देखना ही बन्द कर दिया है और वह एकान्त स्थान में रहकर समय व्यतीत करती है।

पाथिक की उपर्युक्त बातों को सुनकर राजकुमार का आकर्षण राजकुमारी के प्रति हुआ ओर उसने मन-ही-मन उसके साथ विवाह करने की प्रतिज्ञा की। वहां से चलकर मार्ग में मन्त्र-पुत्र और राजकुामर ने णमोकार मन्त्र के प्रभाव की कथाओं का अध्ययन, मनन और चिन्तन किया, जिससे राजकुमार ने अपने पूर्वभव के वृत्तान्त को अवगत कर लिया। पास में रहनेवली मणि के प्रभाव से दोनों कुमारों ने स्त्रीवेष बनाया और राजकुमारी के पास पहुंचे। राजसिंह ने राजकुमारी के पूर्वभव क समस्त वृत्तान्त बतला दिया। तथा अपना वेष बदल कर वहां तक आने की बात भी कह दीं राजकुमारी अपने पूर्वभव के पति को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उसे मालूम हो गया कि णमाकार मन्त्र के माहात्म्य से मैं भीलनी से राजकुमारी हुई हूँ ओर यह भील से राजत्र। अतः हम दोनों पूर्वभव के पति-पत्नी है। उसने अपनी पिता से भी यह सब वृत्तान्त कह दिया। राजा ने रत्नावती और राजसिंह का विवाह कर दिया।

कुछ दिनों तक संसारिक भोग भोगने के उपरान्त राजसिंह अपने पुत्र प्रतापसिंह को राजगद्दी देकर धर्मसाधन के लिए रानी के साथ वन में चला गया। राजसिंह जब बीमार होकर मृत्यु-शैया पर पडा जीवन की अंतिम घ्डि़याँ गिन रहा था, उसी समय उसने जातेे हुए एक मुनि को देखा ओर अपनी स्त्री से कहा कि आप उस साधु को बुला लाइए। जब मुनिराज उसके पास आये तो राजसिंह ने ध्र्मोपदेश सुनने की इच्छा प्रकट की। मुनिराज ने णमोकार मन्त्र का व्याख्यान कि और इसी महामन्त्र का जप करने को कहा। समाधिमरण भी उसने धारण किया अैर आरम्भ परिग्रह का त्याग कर इस माहमन्त्र के चिन्तन में लीन होकर प्राण त्याग दिये; जिससे वह ब्रह्मलोक में दस सागर की आयुवाला एक भवावतारी देव हुआ। भीलनी के जीव राजकुमारी ने भी णमोकार महामन्त्र के प्रभाव से स्वर्ग में जन्म ग्रहण किया।

क्षेत्रचूडामणि में णमोकार मन्त्र की महत्वसूचक एक सुन्दरकथा आयी है। इस कथा में बताया गया है कि एक बार कुछ ब्राह्मणों ने क्रूद्ध हो उस कुत्ते को इतना मारा कि वह कण्ठगत प्राण हो गया। संयोग से महाराज सत्येन्द्र के पुत्र जीवनधर कुमार उधर आ निकले, उन्होंनंे कुत्ते को मरते हुए देखकर उसे णमोकार मन्त्र सुनाया। मन्त्र के प्रभाव से कुत्ता मकरयक्ष जाति क इन्द्र हुआ। अवधिज्ञान से अपने उपकारी का स्मरण कर वह कुमार जीवनध के पास आया और नाना प्रकार से उनकी स्तुति-प्रशंसा कर उन्हें इच्दित रूप बनाने और गाने की विद्या देकर अपने स्थान पर चला गया।

इस आख्यान से स्पष्ट है कि कुत्ता भी इस महामन्त्र के प्रभाव से देवेन्द्र हो सकता है, फिर मनुष्य जाति की बात ही क्या?

फल-प्राप्ति के आधुनिक उदाहरण

इस प्रकार कथासाहित्य में ऐसी अनेक कथाएं आयी हैं, जिनमें इस महामन्त्र के ध्यान स्मरण, उच्चारण और जप का अद्भुत फल बताया गया है। जो व्यक्ति भाव सहित इस मन्त्र का अनुष्ठान करता है, वह अवश्य अपना कल्याण कर लेता है। सांसारिक समस्त विभूतियाँ उसे चरणों में लोटती हैं। वर्तमान में भी श्रद्धापूर्वक णमोकार मन्त्र के जाप से अनेक व्यक्तियों को अलौकिक सिद्धि प्राप्त हुई। आनेवाले आपत्तियाँ इस महामन्त्र की कृपा से दूर हो गयी हैं।

यहाँ दो-चार उदाहरण दिये जो हैं। इस मन्त्र के दृढ़ श्रद्धान से जखौरा (झाँसी) निवासी अब्दुल रज्जाक नामक मुसलमान की सारी विपतियाँ दूर हो गयी थी। उसने अपना एक पत्र जैनदशर््न वर्ष 3 अंक 5-6 पृ. 31 में प्रकाशित कराया है। वहां से इस पत्र को ज्यों-का-त्यों उद्धत किया जाता है। पत्र इस प्रकार है-मैं ज्यादतर देखता या सुनता हूँ कि हमारे जैन भाई धर्म की आरे ध्यान नहीं देते। और जो थोडा-बहुत कहने-सुुुनने को देता भी हैं तो सामायिक और णमोकार-मन्त्र के प्रकाश् से अनभिज्ञ हैं। यानी अभी तक वे इसके महत्व को नहीं समझते हैं। रात-दिनशास्त्रों का स्वाध्याय करते हुए भी अन्धकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं। अगर उनसे कहा जाए कि भाई, सामायिक और णमोकार मन्त्र आत्मा के शान्ति पैदा करने वाला और आये हुए दुःखो को टालनेवाला है, तो वे इस तरह से जवाब देत हैं कि यह णमोकार मन्त्र तो हमारे यहां के छोटे-छोटे बच्चे जानते हें। इसको आप क्या बताते हैं, लेकिन मुझे अफ़सोस के साथ लिखना पड़ता है कि उन्होंने सिर्फ दिखाने की गरज से मन्त्र को रट लिया है। उसपर उनका दृढ़ विश्वास न हुआ ओर न वे उसके महव को ही समझे। मैं दावे के साथ कहता हूँ कि इस मन्त्र पर श्रद्ध रखने वाला हर मुसीबत से बच सकता है। क्योंकि मेरे ऊपर ये बातें बीत चुकी है।

मेरा नियम है कि जब मैं रात को सोता हूँ तो णमोकार मन्त्र को पढ़ता हुआ सो जाता हूँ। एक मरतबे जाड़े की रात का जिक्र है कि मेरे साथ चारपाई पर एक बड़ा साँप लेटा रहा, पर मुझे उसकी खबर नहीं। स्वप्न में ज़रूर ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई कह रहा हो कि उठ साँप है। मैं दो-चार मरतबे उठा भी और उठकर लालटेन जलाकर नीचे-ऊपर देखकर फिर लेट गया लेकिन मन्त्र के प्रभाव से जिस ओर साँप लेटा था, उधर से एक मरतबा भी नहीं उठा। जब सुबह हुआ, मैं उठा और चाहा कि बिस्तर लपेट लूं, तो क्या देखता हूं कि बड़ा मोटा साँंप लेटा हुआ है। मैंने जो पल्ली खंची तो झट उठ बैठा और पल्ले के सहरे नीचे उतर कर अपने रास्ते चला गया।

दूसरे अभी दो-तीन माह का जिक्र है कि जब मेरी बिरादरी वालों को मालूम हुआ कि मैं जैन मत पालने लगा हूँ, तो उन्हेंने सभा की, उसमें मुझे बुलाय गया। मैं जखैराी से झाँसी जाकर सभा में शामिल हुआ। हर एक ने अपनी-अपनी राय के अनुसार बहुत कुछ कहा-सुना अैर बहुत-से सवाल पैदा किये, जिनका कि मैं जवाब भी देता गया। बहुत-से महाशयों ने यह भी कहा कि ऐसे आदमी को मार डालना ठीक है, लेकिन अपने धर्म से दूसरे धर्म मे न जाने पावे। इस तरह जिसके दिल में जो बात आयी, कही। अन्त में सब लोग अपने-अपने घर चले गये और मैं भी अपने कमरे में चला आया। क्योंकि मैं जब अपने माता-पिता के घर आ जाता हूँ तो एक दूसरे कमरे में ठहरता हूँ और अपने हाथ से भोजन पकाकर खाता हूँ। उनके हाथ का बनाया हुआ भोजन नहीं खाता। जब शाम का समय हुआ-यानी सूर्य अस्त होने लगा तो मैंने सामायिक करना आरम्भ किया और सामायिक से निश्चितन्त होकर जब आँखें खोलीं तो देखता हूँ कि एक बड़ा साँप मेरे आसपास चक्कर लगा रहा है और दरवाजे पर एक बर्जन रखा हुआ मिला, जिससे मालूम हुआ कि कोई इसमें बन्द करके यहाँ छोड़ गया है। छोड़नेवाले की नीयत एकमात्र मुझे हानि पहुँचाने की थी।

लेकिन उस साँप ने मुझे कोई नुकसान नहीं पहुँचाया। मैं वहाँ से डरकर आया और लोगों से पूछा कि यह काम किसने किया है, परन्तु कोई पता न लगा। दूसरे दिन सामायिक समय जब साँप के पासवाले पडोसी के बच्चे को डँस लिया तब वह रोया ओर कहने लगा कि हाय मैंने बुरा किया दूसरे के वास्ते चार आने पैसे देकर वह साँप लाया था, उसने मेरे बच्चे को काट लिया। तब मुझे पता चला। बच्चे का इलाज़ हुआ, मैं भी इलाज़ कराने में सना रहा, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। वह बच्चा मर गया। उसके 15 दिन बाद वह आदमी भी मर गया, उसका वही एक बच्चा था। देखिए सामायिक और णमोकर मन्त्र कितना जबर्दस्त खम्भ है कि आगे आया हुआ काल प्रेम का बर्ताव करता हुआ चला गया। इस मन्त्र के ऊपर दृढ़ श्रद्धान होना चाहिए। इस प्रताप से सभी कार्य सिद्ध होते हैं।’’

इस माहामन्त्र के प्रभाव की निम्न घटना पूज्य भगतजी प्यारेलाल, बेलगछिया कलकत्ता निवासी ने सुनायी। घटना इस प्रकार है कि एक बार कलकत्ता निवासी स्व बलदेवदासजी के पिता स्व. श्रीमान सेठ दयाचन्दजी सा. तथा और भी कलकत्ते के चार-छह आदमी थूबैनजी की यात्रा के लिए गये। जब यात्रा से वापस लौटने लगे तो मार्ग में रात हो गयी, जंगली रास्ता था और चोर-डाकुओं का भय था। अँधेरा होने से मार्ग भी नहीं सूझता था, कि किधर जाएँ और किस प्रकार स्टेशन पर पहुँचे। सभी लोग घबरा गये। सभी के मन में भय और आतंक व्याप्त था । मार्ग दिखाई न पड़ने से एक स्थान पर बैठ गये। भगतजी साहब ने उन सबसे कहा कि अब घबराने से कुछ नहीं होगा, णमोकार मन्त्र का स्मरण ही इस संकट को टाल सकता है। अतः स्वयं भगतजी सा. ने तथा अन्य सब लोगों ने णमोकार का ध्यान किया। इस मन्त्र के आधा घण्टा तक ध्यान करने के उपरान्त एक आदमी वहाँ आया और कहने लगा कि आप लोग मार्ग भूल गये हैं, मेरे पीछे-पीछे चले आइए, मैं आप लोगों को स्टेशन पहुँचा दूँगा। अन्यथा यह जंगल ऐसा है कि आप महीनों इसमें भटक सकते हैं। अतः वह आदमी आगे-आगे चलने लगा और सब यात्री पीछे-पीछे। जब स्टेशन के निकट पहुँचे और स्टेशन का प्रकाश दिखलाई पड़ने लगा तो उस उपकारी व्यक्ति की इसलिए तलाश की जाने लगी कि उसे कुछ पारिश्रिमिक दे दिया जाए। पर यह अत्यन्त आश्चर्य की बात हुई कि तलाश करने पर भी उसका पता नहीं चला। सभी लोग अचम्भित थे, आखिर वह उपकारी व्यक्ति कौन था, जो स्टेशन तक छोड़कर चला गया। अन्त में लोगों ने निश्चय कि कि णमोकार मन्त्र के स्मरण के प्रभाव से किसी रक्षकदेव ने ही उनकी यह सहायता की। एक बात यह भी कि वह व्यक्ति पास नहीं रहता था, आगे-आगे दूर-दूर ही चल रहाथा कि आप लोग मेरे ऊपर अविश्वास मत कीजिए। मैं आपका सेवक और हितैषी हूँ। अतः यह लोगों को निश्चय हो गया कि णमोकार मन्त्र के प्रभाव से किसी यक्ष ने इस प्रकार का कार्य किया है। यक्ष के लिए इस प्रकार कार्य करना असम्भव नहीं है।

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पूज्य भगतजी सा. से यह भी मालूम हुआ कि णमोकार मन्त्र की आराधना से कई अवसरों पर उन्होंने चमत्का पूर्ण कार्य सिद्ध किये हैं। उनके सम्पर्क में आने वाले कई जैनेतरों ने इस मन्त्र की साधन से अपनी मनोकमनाओं को सिद्ध किया है। मैंने स्वयं उनके एक सिन्धी भक्त को देखा है जो णमोकार मन्त्र का श्रद्धानी हैं

पूज्य बाबा भागीरथ वर्णी सन् 1937-38 में श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी में पधारे हुए थे। बाबाजी को णमोकार मन्त्र पर बड़ी भारीश्रद्धा थी। श्री छेदीलालजी के मन्दिर में बाबाजी रहे थे। जाड़े के दिन थे, बाबाजी धूपमें बैठकर छत के ऊपर स्वाध्याय करते रहते थे। एक लंगूर कई दिनों तक वहाँ आता रहा। बाबाजी उसे बगल में बैठकार णमोकार मन्त्र सुनाते रहे। यह लगूर भी आधा घण्टे तक बाबाजी के पास बैठता रहा। यह क्रम दस-पाँच दिन तक चला। लड़कों ने बाबाजी से कहा-‘‘महाराज, यह चंचल जाति का प्राणी है, इसका क्या विश्वास, यह आपको किसी दिन काट लेगा।’’ पर बाबाजी कहते रहे, ‘‘भैया, ये तिर्यंच जाति के प्राणी णमोकार मन्त्र के लिए लालायित है, ये आपना कल्याण करना चाहते हैं। हमें इनका उपकार करना है।’’ एक दिन प्रतिदिन वाला लंगूर न आकर दूसरा आया और उसने बाबाजी को काट लिया, इस पर भी बाबाजी उसे णमोकार मन्त्र सुनाते रहे, पर वह उन्हें काटकर भाग गया। पूज्य बाबाजी को इस महामन्त्र पर बड़ी श्रद्धा था और वह इसक उपदेश सभी को देते थे।

एक सज्जन हथुआ मिल में कार्य करते हैं, उनका नाम ललितप्रसादजी है। वह होम्योपैथिक औषध का वितरण भी करते हैं। णमोकार मन्त्र पर उन्हें बड़ी श्रद्धा है। वह बिच्छू, ततैया, हट्ट आदि के विष को इस मन्त्र द्वारा ही उतार देेते हैं। उसी मिल के कई व्यक्तियों ने बतलाया कि बिच्छू का ज़हर इन्होंने कई बार णमोकार मन्त्र द्वारा उतारा है। यों तो वह भगवान् के भक्त भी हैं; प्रतिदिन भगवान् की नियमित रूप से पूजा करते हैं। किन्तु णमोकार मन्त्र पर उनका बड़ा भारी विश्वास है।