आत्मा के भेद और मंगल-वाक्य
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जैन आगम में भावों की अपेक्षा से आत्मा के तीन भेद बताये गये हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। राग-द्वेष को अपना स्वरूप समझना, पर पर्याय में लीन शरीरादि पर-वस्तुओं को अपना मानना एवं वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृत से वंचित रहना आत्मा की बहिरात्म अवस्था है। बताया है- ‘‘देह जीव को एक गिनै बहिरातमतत्त्व मुधा है।’’ अर्थात् शरीर और आत्मा को एक समझना; अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ से युक्त होना और मिध्याबुद्धि के कारण शारीरिक सम्बन्धों को आत्मा के सम्बन्ध मानना बहिरात्मा है। इस बहिरात्म अवस्था में रागभाव उत्कट रूप से वर्तमान रहता है, अतः स्वसंवेदन ज्ञान-स्वानुभवरूप सम्यग्ज्ञान इस अवस्था में नहीं रहता।

बहिरात्म मंगलवाक्यों के स्मरण ओर चिन्तन से दूर भागता है,उसे णमोकार मन्त्र जैसे पावन मंगलवाक्यों पर श्रद्धा नहीं होती; क्योंकि राग बुद्धि उसे आस्तिक बनाने से रोकती है। जब तक आस्तिक्य वृत्ति नहीं, तब तक उन्नत आदर्श सामने नहीं आ सकेगा। कर्मों का क्षयोपशम होने पर ही णमोकार मन्त्र के ऊपर श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा इसके स्मरण, मनन और चिन्तन से अन्तरात्मा बनने की ओर प्राणी अग्रसर होता है। अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणी की इस परम मांगलिक महामन्त्र के प्रति श्रद्धा भावना जाग्रत् नहीं होती है, तब तक वह बहिरात्मा ही बना रहता है और विकारभावों को अपना स्वरूप समझकर अहर्निश व्याकुलता का अनुभव करता रहता है।

भेदविज्ञान और निर्विकल्प समाधि से आत्मा में लीन, शरीरादि पर वस्तुओं से ममत्वबुद्धि-रहित एवं चिदानन्दस्वरूप आत्मा को ही अपना समझनेवाला स्वत्मज्ञ चेतन्यस्वरूप आत्मा अन्तरात्मा है। इसके तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य। समस्त परिग्रह के त्यागी; निःस्पृही, शुद्धपयोगी और आत्मध्यानी मुनीश्वर उत्तम उन्तरात्मा है; देश्वत्रती गृहस्थ और छठे गुण्स्थानवर्ती निग्र्रन्थ मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा राग-द्वेष को अपने से भिन्न समझ स्वरूप का दृढ़ श्रद्धान करनेवाले व्रतरहित श्रावक जघन्य अन्तरात्मा हैं।

उपर्युक्त तीनों की प्रकार के अन्तरात्मा णमोकार मन्त्र जैसे मंगलवाक्यों की आराधना द्वारा अपनी प्रवृत्तियों को शुद्ध करते हैं तथा निवृत्ति मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं। णमोकार मन्त्र का उच्चारण ही शुभोपयोग का साधक है। इसके प्रति जब भीतरी आस्था जाग्रत् हो जाती है और इस मन्त्र में कथित उच्चात्माओं के गुणों के स्मरण, चिन्तन और मनन द्वारा स्वपरिणति की ओर झुकाव आरम्भ हो जाता है, तो शुद्धोपयोग की ओर व्यक्ति बढ़ता है। अतः यह मंगलवाक्य उक्त तीनों प्रकार की अन्तरात्माओं को प्रगति प्रदान करता है। वास्तविकता यह है कि महामन्त्र विकारभावों को दूर कर आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप की ओर प्रेरित करता है। सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति तथा आसक्ति से होनेवाली अशान्ति आत्मा को बेचैन नहीं करती। यद्यपि कर्मों के उदय के कारण विकार उत्पन्न होते हैं किन्तु उनका प्रभाव अन्तरात्मा पर नहीं पड़ता। णमोकार-मन्त्र अन्तरात्माओं के साधना मार्ग में मीन के पत्थरों का कार्य करता है, जिस प्रकार पथिक को मीन का पत्थर मार्ग का परिज्ञान कराता है, उसे मार्ग के तय करने का विश्वास दिलाता है, उसी प्रकार यह मन्त्र अन्तरात्मा को साधु, उपायाय, आचार्य, अरिहन्त और सिद्धि रूप गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए मार्ग परिज्ञान का कार्य करता है अर्थात अन्तरात्मा इस मन्त्र के सहारे पंचपरमेष्ठी पद को प्राप्त हेता है।

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परमात्मा के दो भेद है-सकल और निकल। घातिया कर्मों को नाश करने वाले और सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञाता, द्रष्टा अरिहन्त सकल परमात्मा हैं। समस्त प्रकार के कर्मों से रहित अशरीरी सिद्ध निकल परमात्मा कहे जाते हैं। कोई भी अन्तरात्मा णमोकार मन्त्र भाव-स्मरण से परमात्मा बनता है तथा सकल परमात्मा भी योग निरोध कर अघातिया कर्मों का नाश करते समय णमोकार मन्त्र का भाव चिन्तन करते हैं। निर्वाण प्राप्त होने के पहले तक ण्यामोकार मन्त्र के स्मरण, चिन्तन, मनन और उच्चारण की सभी को आवश्यकता होती है; क्योंकि इस मन्त्र के स्मरण से आत्मा में निरन्तर विशुद्धि उत्पन्न होती है। श्रद्धा-भावना, जो कि मोक्ष महल पर चढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी है, इसी मन्त्र में भाव स्मरण द्वारा उत्पन्न होती है। सरल शब्दों में यों कहा जा सकता है कि इस मन्त्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के स्मरण और मनन से आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न होती है; जिससे राग-द्वेष प्रभृति विकारों का नाश होता है, साथ ही अपना इष्ट भी सिद्ध होता है। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु को परमेष्ठी इसीलिए कहा जाता है कि इनके स्मरण, चिन्तन और मनन द्वारा सुख की प्राप्ति और दुःख के विनाशरूप इष्ट प्रयोजन की सिद्धि होती है। विश्व के प्रत्येक प्राणी को सुख इष्ट है; क्योंकि यह आत्मा काप्रमुख गुण हैं तथा इससे उत्पन्न होने पर ही बेचैनी दूर होती है। ये परमेष्ठी स्वयं परमपद में स्थित हैं तथा इनके उवलम्बन से अन्य व्यक्ति भी परमपद में स्थित हो सकते हैं।

स्पष्ट करने के लिए यों समझना चाहिए कि आत्मा के तीन प्रकार के परिणाम होते हैं-अशुभ, शुभ और शुद्ध। तीव्र कषायरूप परिणाम अशुभ, मन्द कषायरूप परिणाम शुभ और कषायरहित परिणाम शुद्ध होते हैं। राग-द्वेषरूप संक्लेश परिणामों से ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों का, जो आत्मा के वीतराग भाव के घातक हैं, तीव्रबन्ध होता है और शुभ परिणामों से मन्दबन्ध होता है। जब विशुद्ध परिणाम प्रबल होते हैं तो पहले के तीव्रबन्ध को भी मन्द कर देते हैं; क्योंकि विशुद्ध परिणामों से बन्ध नहीं होता, केवल निर्जरा होती है। णमोकार मन्त्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के स्मरण से जो भावनाएं उत्पन्न होती हैं, उनसे कषायों की मन्दता होती है तथा वे परिणाम समस्त कषायों को मिटाने के साधन बनते हैं। ये ही परिणाम आगे शुद्ध परिणामों की उत्पत्ति में भी साधना का कार्य करते हैं। अतएव भावसहित णमोकार मन्त्र के स्मरण से उत्पन्न परिणामों द्वारा जब अपने स्वभावघातक घातिया कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब सहज में वीतरागता प्रकट होने लगती है। जितने अंश में घातिया कर्म क्षीण होते हैं,उतने ही अंश में वीतराग भाव उत्पन्न होते हैं। इन्द्रियासक्ति एवं असंयम की प्रवृत्ति णमोकार मन्त्र के मनन से दूर होती है, आत्मा में मन्द कषायजन्य भावनाएं उत्पन्न होती हैं। असाता आदि पाप प्रवृत्तियाँ मन्द पड़ जाती हैं और पुण्य का उदय होने से स्वतः सुख-सामग्री उपलब्ध होने लगती हैं।

उपर्युक्त विवेचन में हम इन निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मा को शुद्ध करने की तथा अपने सत्, चित् और आनन्दमय स्वरूप में अवस्थित होने की प्रेरणा इस णमोकार मन्त्र से प्राप्त होती है। विकारजन्य अशान्ति को दूर करने का एक मात्र साधन यह णमोकार मन्त्र है। इस मन्त्र के स्मरण, चिन्तन और मनन बिना अन्य किसी भी प्रकार की साधना सम्भव नहीं हैं यह सभी प्रकार की साधनाओं का प्रारम्भिक स्थान है तथा समस्त साधनों का अन्त भी इसी में निहित है। अतः राग-द्वेष, मोह आदि की प्रवृत्ति तभी तक जीव में वर्तमान रही है, जब तक जीव आत्मा के वास्तवकि स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रहता है। आत्मस्वरूप पंचपरमेष्ठी की आराधना से अपने-आप अवगत हो जाता है। जिस प्रकार एक जलते दीपक से अनेक बुझे हुए दीपकों को जलाया जा सकता है,उसी प्रकार पंचपरमेष्ठी की विशुद्ध आत्माओं से अपनी ज्ञान-ज्योति को प्रज्वलित किय जा सकता हैं

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जिन संसारी जीवों की आत्मा में कषायें वर्तमान हैं, वे भी क्षीण कषाय वाले व्यक्तियों के अनुकरण से अपनी कषाय भावनाओं को दूर कर सकते हैं। साधारण मनुष्य की प्रवृत्ति शुभ या अशुभ रूप मेंसामने के उदाहरणों के अनुसार ही होती है। मनोविज्ञान बतलाता है कि मनुष्य अनुकरणशील प्राणी है, यह अन्य व्यक्तियों का अनुकरण कर अपने ज्ञान के क्षेत्र को विस्तृत और समृद्ध करता रहता है। अतएव स्पष्ट है कि णमोकार मन्त्र में प्रतिपादित अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु की आत्मा शुद्ध चिद्रूप है, इनके स्मरण् और चिन्तन से शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति होती है।

दर्शनशास्त्र के वेत्ता मनीषियों ने अनुभव तीन प्रकार का बतलाया है- सहज, इन्द्रियगोचर और अलौकिक। इन तीनों प्रकार के अनुभवों से ही मनुष्य आनन्द की प्राप्ति करता है तथा अपने मन और अन्तःकरण का विकास करता है। सहज अनुभव उन व्यक्तियों को होता है, जो भौतिकवादी हैं तथा जिनकी आत्मा विकसित नहीं है। ये क्षुधा, तृषा, मैथुन, मलमूत्रोत्सर्जन आदि प्राकृतिक शरीर समबन्धी माँगों की पूर्ति में ही सुख और पूर्ति के अभाव में दुःख का अनुभव करते रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों में आत्मविश्वासा की मात्रा प्रायः नहीं होती हे, इनकी समस्त क्रियाएँ शरीराधीन हुआ करती हैं। णमोकार मन्त्र की साधना इस सहज अनुभव को आध्यात्मिक अनुभव के रूप में परिवर्तित कर देती है तथा शरीर की वास्तविक उपयोगिता और उसके स्वरूप का बोध करा देती है।

दूसरे प्रकार का अनुभव प्राकृतिक रमणीय दृश्यों के दर्शन, स्पर्शन आदि के द्वारा इन्द्रियों को होता है, यह प्रथम प्रकार के अनुभव की अपेक्षा सूक्ष्म हैं; किन्तु इस अनुभव से उत्पन्न होने वाले आनन्द भी ऐन्द्रियिक आनन्द है, जिससे आकुलता दूर नहीं हो सकती है। मानसिक बेचैनी इस प्रकार के अनुभव से ओर बढ़ जाती है। विकारों की उत्पत्ति इससे अधिक होने लगती है तथा ये विकार नाना प्रकार के रूप धारण कर मोहक रूप में प्रस्तुत होते हैं जिससे अहंकार ओर ममकार की वृद्धि होती है। अतएव इस अनुभवजन्य ज्ञान का परिमार्जन भी णमोकार मन्त्र के द्वारा ही सम्भव है। इस मन्त्र में निरूपित आदर्श अहंकार और ममकार का निरोध करने में सहायक होता है। अतः आत्मोत्थान के लिए यह अनुभव मंगलवाक्यों के रसायन द्वारा ही उपयोगी हो सकता है। मंगलवाक्य ही इसका परिष्कार करते हैं। जिस प्रकार गन्दा पानी छानने से निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्र की साधना से सांसारिक अनुभव शुद्ध होकर आत्मिक बन जाता हैं

तीसरे प्रकार का अनुभव आत्मिक या अध्यात्मिक होता हैं इस अनुभव से उत्पन्न आनन्द अलौकिक कहलाता है। इस प्रकार के अनुभव की उत्पत्ति सत्संगति, तीर्थाटन, समीचीन ग्रन्थों के स्वाध्याय, प्रार्थना एवं मंगलवाक्यों के स्मरण, मनन और पठन से होती है। यही अनुभव आत्मा की अनन्त शक्तियों की विकास-भूमि है और इस परचलने से आकुलता दूर हो जाती है। णमोकार मन्त्र की साधना मनुष्य की विवेक बुद्धि की वृद्धि और इच्छाओं को संयमित करती है, जिससे मानव की भावनाएं परिमार्जित हो जाती है। अतएव विकारों से उत्पन्न होनेवाली अशान्ति को रोकने तथा आत्मिक शान्ति को विकसित करने का एकमात्र साधन णमोकार महामन्त्र ही है। यह प्रत्येक व्यक्ति को बहिरात्मा अवस्था से दूर कर अन्तरात्मा और परमात्मा अवस्था की ओर ले जाता है। आत्मबल का आविर्भाव इस मन्त्र की साधना से होता है। जो व्यक्ति आत्मबली है, उनके लिए संसार में कोई कार्य असम्भव नहीं। आत्मबल और आत्मविश्वास की उत्पत्ति प्रधान रूप में आराध्य के प्रति भावसहित उच्चार किये गये प्रार्थनामय मंगलवाक्यों द्वारा ही होती है। जिन व्यक्तियों में उक्त दोनों गुण नहीं हें, वे मनुष्य के उच्चतम शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं। जिस प्रकार प्रचण्ड सूर्य के समक्ष घटाटोप मेघ देखते-देखते विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार पंचपरमेष्ठी की शरण जाने से-उनके गुणों के स्मरण से, उनकी प्रार्थना से आत्मा का स्वकीय विज्ञान धन एवं निराकुलतारूप सुख अनुभव में आने लगता है तथा शक्ति इनती प्रबल होती है कि अन्तर्मुहूर्त में कर्म भस्म हो जाते हैं। मोह का अभाव होते ही यह आत्मा ज्ञानाग्नि द्वारा अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख को प्राप्त कर लेता है।