।। अक्षय तृतीया पर्व ।।
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हे चक्रवर्तिन्! अप उस समय राजा वज्रजंघ के मतिवर नाम के महामंत्री थे, सो इस भव में भगवान के ही पुत्र होकर चक्रवर्ती हुए हो। उस समय के राजा वज्रजंघ के जो आनंद नाम के पुरोहित थे; उन्हीं का ही जीव आप आपके भाई बाहुबली हुए हैं जो कि कामदेव हैं। अकंपन सेनापति का जीव ही आपका भाई ऋषभसेन हुआ है जो कि आज परिमतालपुर नगर का अधीश्वर है, धनमित्र सेठ का जीव आपका अनंतविजय नाम का भाई है। दान की अनुमोदना से ही उन्नति करने वाले व्याघ्र का जीव आपका अनंतवीर्य नाम का भाई है, शूकर का जीव अच्युत नाम का भाई है, वानर का जीव वीरवरन नाम का भाई है और नेवला का जीव वरवीर नाम का भाई है अर्थात् राजा वज्रजंघ के आहार दान के समय जो मतिवर मंत्री आदि चार लोग दान की अनुमोदना कर रहे थे और जो व्याघ्र आदि चारों जीवों अनुमोदना कर रहे थे वे दान की अनुमोदना के पुण्य से ही क्रम-क्रम से मनुष्य के और देवों के सुखों का अनुभव करके अब इस भव में तीर्थंकर के पुत्र होकर महापुरूष के रूप में अवतीर्ण हुए हैं और सब इसी भव से प्रभु के तीर्थ से ही मोक्षधाम को प्राप्त करेंगे। मैं भी भगवान का गणधर होकर अंत में मोक्षधाम को प्राप्त करूंगा।

सम्राट भरत! यह दान की महिमा अचिन्त्य है, अद्भुत है और अवर्णनीय है। देव भी इसकी महिमा को नहीं कह सकते हैं। पुनः साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है?

राजन्! जो दाता, दान, देय, और पात्र इनके लक्षणों को समझकर सत्पात्र में दान देता है वह निश्चित ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। देखो! इस आहारदान के बिना मोक्षमार्ग चल नहीं सकता हैः अतः आहार, औषधि शास्त्र और अभय इन चारों दानों में भी आहारदान ही सर्वश्रेष्ठ है और वही शेष दानों की भी पूर्ति कर सकता है।’

इस प्रकार से विस्तृत भवावली और अपना तथा भगवान ऋषभदेव का व राजकुमार श्रेयांस कई भवों तक पारिवारिक सम्बंध सुनकर भरत चक्रवर्ती अत्याधिक प्रसन्न हुए और बोले-

‘कुरूवंशशिरोमणे! भगवान ऋषभदेव जैसा ना तो कोई उत्तम सत्पात्र होगा और न आप जैसा महान दातार होगा, न आप जैसी नवधाभक्ति की विधि ही होगी, न आपके जैसा उत्तम फल को प्राप्त करने का अधिकारी ही हर कोई बन सकेगा। आप इस युग में ‘दानतीर्थ के प्रथम प्रवर्तक’ कहलाओगे। युग-युग तक आपकी अमर कीर्ति यह भारत वसुन्धरी गाती ही रहेगी। ‘‘इत्यादि प्रकार से राजकुमार श्रेयांस का सत्कार करके राजा भरत अयोध्या नगरी की तरफ प्रस्थान गये।

जिस दिन भगवान का आहार हुआ था उस दिन वैशााख सुदी तृतीया थी अतः उस दान के प्रभाव से ही अव ‘अक्षय तृतीया’ इस नाम से आज तक इस भारत भूमि में प्रचलित है क्योंकि जहां पर भगवान का आहार होता है वहां पर उस दिन भोजनशाला में सही वस्तु ‘अक्षय’ हो जाती है अतः इसका यह नाम सार्थ हो गया है तथा वह दिन इतना पवित्र हो गया कि आज तक भी बिना मुहूर्त देखे-शोधे भी बड़े से बड़े मांगलिक कार्य इस अक्षय तृतीयाके दिन प्रारम्भ कर दिये जाते हैं। सभी सम्प्रदाय के लोग भी इस दिन को सर्वोत्तम मुहूर्त मानते हैं, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। यह है आहार दान का माहात्म्य! जो कि सभी की श्रद्धा करने योग्य है।

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