।। अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है ।।
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पशु होकर भी एक शूकन ने कत्र्तव्य का पालन किया और अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये क्योंकि वह अंिसक बन गया था। किसी भी जाति या धर्म में कभी हिंसा को श्रेयस्कर नहीं माना है। अहिंसा के बल पर ही हमारे हिन्दुस्तान ने आजादी प्राप्त की है। आप सभी जानते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी अहिंसक थे। यदि सूक्ष्मता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि हिंसा और अहिंसारूप भावों की श्रृंखला परस्पर में जन्म-जन्मान्तर तक चला करती है।

धर्म को पालन करने में जातिवाद का कोई बंधन नहीं होता। यदि एक पशु जैसे पामर प्राणी ने भी उसे जीवन में धारण कर लिया तो वह महान बन गया और यदि उच्च कुल में जन्म लेकर किसीने ने हिंसा आदि अनार्य कृतियों को जीवन में उतारा तो उसकी कुलीनता व्यर्थ है।

श्वापि देवोऽपि देवः श्वा, जायते धर्मकिल्विषात्।
कापि नाम भवेदन्या, संपद्धर्माच्छरीरिणाम्।।

अर्थात धर्म के प्रसाद से कुत्ता भी मरकर देव बन जाता है और किल्विष - पाप के कारण देवता भी मरकर कुत्ते जैसी निंद्य पर्याय को प्राप्त कर लेते हैं।

आपको मालूम है जैन किसे कहते हैं? ‘‘कर्मारातीन् जयति इति जिनः’’ सबसे पहले तो जिन की परिभाषा बताते हुए आचार्यों ने कहा है कि कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे जिन कहलाते हैं और फिर ‘‘जिनो देवता यस्य स जैनः’’ अर्थात वे जिनेन्द्र भगवान को देवता मानने वाले जैन कहे जाते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जैनधर्म किसी व्यक्ति विशेष का न होकर ‘‘सार्वभौम’’ धर्म बन जाता है इसीलिए इसे विश्वधर्म भी कहा जाता है प्राणिमात्र के लिए यह हिताकारी होता है। कहा भी है-

धर्म करत संसार सुख धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान।।

सांसारिक सुख की सिद्धि और परमार्थ की सिद्धि सभी कुछ धर्म से ही प्राप्त होती है।

हिंसा के चारों भेदों का लक्षण जानना भी आवश्यक है।

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1 संकल्पी हिंसा - अभिप्रायपूर्वक किसी भी छोटे या बड़े जीव को मारना संकल्पी हिंसा है।

2 आरंभी हिंसा - चूल्हा जलाना, चक्की पीसना, पानी छानना आदि आरंभ कार्य करके भोजन बनाना, खेती आदि करना आरंभी हिंसा है।

3 उद्योगिनी हिंसा - धन कमाने के लिए बड़े-बड़े व्यापार करना, कारखाने खोलना उसमें होने वाली हिंसा उद्योगिनी हिंसा है।

4 विरोधिनी हिंसा - धर्म, धर्मायतन और धर्मात्माओं की रक्षा के लिए हिंस करना विरोधिनी हिंसा है। जैसे कि श्री रामचन्द्र ने की थी।

इन चारों हिंसा में से गृहस्थाश्रम में रहने वाले गृहस्थ केवल संकल्पी हिंसाओं का ही त्याग कर सकते हैं क्योंकि भोजन आदि करने हेतु आरंभ करने से उस योग्य हिंसा तो होती ही है फिर भी सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिए। इसी प्रकार धन के बिना गृहस्थी नहीं चल सकती इसलिए व्यापार करना ही पड़ता है उसकी हिंसा भी गृहस्थ के लिए क्षम्य है किन्तु चमड़ा, शराब, हड्डी की खाद, भट्ठे आदि हीन कार्य सद्गृहस्थ को नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार श्री गौतम स्वामी द्वारा कथित गाथा के द्वारा मैंने आपको धर्म की परिभाषा सुनाई है इसमें अहिंसा, संयम और तप को भी धर्म कहा है। गृहस्थ केयोग्य अहिंसा का वर्णन मैंने संक्षेप में आपको बताया है, आप इसका यथोचितरूप से पालन करते हुए अपने-गृहस्थाश्रम को सुखी एवं समृद्धिशाली बनावें, यही मंगल प्रेरणा व आशीर्वाद है।

गृहस्थ धर्म भी पूज्य है।

आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरूषु च विनतिर्धार्मिकैः प्रीतिरूच्चैः
पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारूण्यबुद्धया।
तत्वाभ्यासः स्वकीयव्रतरतिममलं दर्शनं यत्र पूज्यं,
तद्गार्हस्थ्यं बुधानमितरदिह पुनर्दुः खदो मोहपाशः।।3।।

जहां पर जिनेन्द्र की आराधना की जाती है, गुरूओं का विनय किया जाता है, धर्मात्माओं के साथ अतिशय प्रीति रहती है, पात्रों को दान दिया जाता है एवं आपत्ति से पीडि़त प्राणियों को दयाबुद्धि से करूणा दान दिया जाता है, तत्वों का अभ्यास किया जाता है, अपने व्रतों में अर्थात् दान-पूजा आदि क्रियाओं तथा पंच अणुव्रत आदि व्रतों में प्रेम किया जाता है, निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया जाता है, वह गृहस्थावस्था विद्वानों के द्वारा पूज्य है, किन्तु इससे विपरीत गार्हस्थ्य जीवन इस संसार में दुःखदायक मोह का जाल ही है।

श्री पद्मनंदि आचार्य

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